जया जेटली की शिल्प यात्रा
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जया जेटली की शिल्प यात्रा

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Jun 3, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jun 2005 00:00:00

परम्पराओं में सिमटी संस्कृति,संस्कृति में खिले शिल्प-संस्कारजया जेटलीदस्तकारी एक नदी की तरह है, जो हजारों-हजार साल से बहती आ रही है। भारतीय दस्तकारी की यात्रा को नदी की संज्ञा देते हुए श्रीमती जया जेटली कहती हैं, यह यात्रा नदी की तरह न जाने कितने पथरीले रास्तों से गुजरी, लेकिन रुकी नहीं, निरंतर चलती रही और आगे इसका पाट और भी विस्तृत होगा। नई दिल्ली में भारतीय दस्तकारी यात्रा की बहुआयामी प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने जब अपने लिखित भाषण में कहा कि भारत में शिल्प यात्रा की कहानी का वर्तमान चित्र क्या है? यह तो जया जेटली की ही शिल्प यात्रा कही जा सकती है। और यह सही भी है, क्योंकि दस्तकारों और जया जेटली का 35 साल से अटूट रिश्ता रहा है। यह रिश्ता कब दोस्तकारी में बदल गया, पता ही नहीं चला। दस्तकारी से दोस्तकारी तक की यह यात्रा भारत और पाकिस्तान के दस्तकारों को एक सांस्कृतिक धरातल पर स्थापित करने का माध्यम बनी। मार्च, 2004 के अंतिम दो सप्ताह में “दोस्तकारी” प्रदर्शनी में भारत और पाकिस्तान के दस्तकारों ने मील के पत्थर के रूप में साझा कलाकृतियां बनाई थीं। और अब श्रीमती जया जेटली के प्रयासों से नई दिल्ली के दिल्ली हाट में ही भारतीय दस्तकारी की यात्रा प्रदर्शनी का आयोजन किया गया, जिसके उद्घाटन अवसर पर स्वयं दो-दो भारत रत्न उपस्थित थे-राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और पंडित रविशंकर। सुप्रसिद्ध चित्रकार अंजलि एला मेनन भी वहां आई थीं। यह प्रदर्शनी भारत का आईना थी, भारत की जनजातियों, वनवासियों और भारत के सुदूर ग्रामीणों की संस्कृति का आईना। प्रदर्शनी की विशेषताएं और दस्तकारी हाट समिति के कार्यकलाप आदि के बारे में पाञ्चजन्य ने श्रीमती जया जेटली से बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं इसी बातचीत के कुछ अंश–विनीता गुप्ताभारत का शिल्प मानचित्र, जिसमें विभिन्न राज्यों के उन स्थानों को दर्शाया गया हैजो भारतीय दस्तकारी के गढ़ हैंभारतीय दस्तकारी और दस्तकारों के साथ आपकी यात्रा कब शुरू हुई?भारतीय दस्तकारी की यात्रा तो हजारों साल पुरानी है, लेकिन दस्तकारों के साथ मेरी यात्रा 35 साल पहले कश्मीर से शुरू हुई। 1965 में मैं कश्मीर में रहती थी। तो देखा वहां की दस्तकारी अनूठी है और वहां पर्यटक भी बहुत आते थे। दस्तकारों की कला में बहुत संभावनाएं थीं, जिन्हें सामने लाने के उद्देश्य से मैंने उनके बीच काम शुरू किया। 1965 से 1975 तक मैं जम्मू-श्रीनगर-लद्दाख के दस्तकारों से मिलती रही। तभी एक पुस्तक भी लिखी- “लिविंग ट्रैडिशंस आफ इंडिया”। फिर दिल्ली आयी और सरकारी संगठन गुजरात हस्तशिल्प विकास निगम से सलाहकार के रूप में जुड़ी, 11 साल तक गुजरात के गांव-गांव में गई। गुजरात एम्पोरियम “गुर्जरी” के माध्यम से वहां के दस्तकारों की कारीगरी को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सरकारी एम्पोरियम से मिले अनुभव से लगा कि सिर्फ सरकारी प्रतिष्ठानों पर या एक-दो दुकानों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। इस दिशा में कुछ सोचा जाना चाहिए और इसी सोच का परिणाम सामने आया “दिल्ली हाट” के रूप में।”दिल्ली हाट” की परिकल्पना के मूल में क्या था?1983 में दिल्ली में कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर के सामने हफ्ते में एक दिन हाट लगता था। उसमें दस्तकार आते थे, उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता था। तब मैंने दिल्ली में एक सर्वेक्षण किया कि दिल्ली में कितने कारीगर हैं, वे माल कैसे बनाते हैं, कहां बनाते हैं और किसे बेचते हैं। पता चला कि कुछ कारीगर चार रुपएमें खिलौने बनाते हैं और विक्रेता उससे पांच या छह रुपए में खरीदकर 25 रुपए में बेच देता है। तब हमने हाट के लिए अधिकारियों से बातचीत की। डेढ़ साल तक संघर्ष के बाद नई दिल्ली नगरपालिका से सप्ताह में एक दिन के लिए जगह मिली। फिर धीरे-धीरे तीन दिन के लिए मंजूरी मिल गई। वहां से अनुभव मिला कि दस्तकारों को सामान रखने के लिए जगह चाहिए, चाय-पानी के लिए जगह चाहिए। मेलों और हाट की तरह ग्राहकों को भी दो घड़ी सुस्ताने और चाय-पानी के लिए जगह चाहिए। लेकिन तीन दिन के लिए कारीगर अपना पूरा सामान लाएं, फिर वापस ले जाएं, ये बहुत महंगा पड़ता था। उनके लिए कोई स्थायी हाट होना चाहिए। मैंने देशभर में गांव-गांव जाकर हाट देखे, दस्तकारों से मिली और उसी तरह का हाट दिल्ली में बनाने की बात सोची। उस समय दिल्ली में विदेशी बाजार “नांज” शुरू हो रहा था। मुझे लगा स्वदेशी पारम्परिक वस्तुओं का एक बाजार क्यों न हो, जिसमें भारतीय सोच-समझ, माहौल और कला लोगों के सामने आए। आखिर 6 साल के संघर्ष के बाद 1994 में दक्षिण दिल्ली में एक नाले को पाटकर जगह बनायी गई और वहां दिल्ली हाट शुरू हुआ। अब दिल्ली हाट में एक समय में लगभग 200 कारीगर बैठते हैं और अपना सामान बेचते हैं। दिल्ली हाट के दस साल पूरे होने पर दिसम्बर, 2004 में दस्तकारी हाट समिति के कलाकारों ने प्रदर्शनी में दो सप्ताह में 1 करोड़, 56 लाख रुपए का सामान बेचा। एक अनुमान के अनुसार एक महीने में दिल्ली हाट के दस्तकार दो करोड़ का सामान बेच लेते हैं। अभी तक यहां 50,000 से ज्यादा कारीगर और डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग आ चुके हैं।दस्तकारों के बीच आप भारत को किस रूप में देखती हैं?भारत का सौंदर्य दस्तकारों के हाथों से हम लोगों के सामने आता है। ईश्वर की प्रार्थना भी ये अपनी कारीगरी के जरिए करते हैं। ध्यानस्थ होकर, एकाग्रचित्तता से जिस प्रकार ये नवसृजन करते हैं, वह योग जैसा है। पूरे भारत का चित्र कारीगरों के काम में दिखाई देता है।भारतीय दस्तकारी की यात्रा प्रदर्शनी का क्या संदेश है?इस प्रदर्शनी के 24 कलात्मक मानचित्रों में हर प्रदेश की अपनी अलग विशिष्ट शैली की न केवल झलक है, अपितु उसका इतिहास भी है। भारत के मानचित्र में स्पष्ट हो जाता है कि हम नये भारत के लोग भले ही हैं, लेकिन हमारे भीतर प्राचीन संस्कृति-परम्परा की जड़ें बहुत गहरी हैं। उसी से हमारी सोच बनती है। हर राज्य की पारम्परिक शैली को दर्शाया गया है, इस तरह कि लोग मानचित्रों में दी गई सूचना के अनुसार उन कारीगरों तक सीधे पहुंच सकें। ये कलात्मक मानचित्र एक प्रकार से पर्यटन मार्गदर्शिका का काम करते हैं। जब गुजरात में भूकम्प आया और उड़ीसा में तूफान आया तब संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) के अधिकारी इन मानचित्रों के जरिये उन कारीगरों तक पहुंचे, उनके नुकसान आदि का जायजा लिया।दस्तकारी मानचित्रों की योजना कब शुरू हुई?पिछले दस साल से इन पर काम हो रहा है। इनके पीछे बहुत गहन शोध है। अनेक कलाकारों का परिश्रम लगा है। इनमें उस जगह के मेलों, त्योहारों, हाटों आदि का वर्णन है।दिल्ली हाट की तरह देश के अन्य शहरों में भी हाट बनाने की योजना है?सरकार ने “दिल्ली हाट” को एक बहुत अच्छे विपणन माडल के रूप में स्वीकार किया है। योजना आयोग ने अपनी पांचवीं योजना में पहले ही इसे स्वीकृति दी। सरकार दिल्ली हाट की शैली में देशभर में 20 से ज्यादा स्थानों पर ऐसे ही हाट लगाने जा रही है। लोगों का मानना है सबका नाम “दिल्ली हाट” ही हो। “दिल्ली हाट” एक तरह से “ऊंड” नाम हो गया है।दस्तकारों के बीच आपके अनुभव कैसे रहे?35 साल उनके बीच रहने के बाद लगता है, यही तो है मेरा जीवन। इस दौर में कितने ही अविस्मरणीय अनुभव मिले। केरल में एक गांव है, जहां के लोग मिट्टी के बर्तन बनाते थे, लेकिन यह काम ठप्प हुआ और उस गांव की महिलाएं वेश्यावृत्ति को मजबूर हो गईं। वहां जाकर हमने कार्य शुरू किया और 6 महीने रहकर उन्हें सिखाया। अब वे महिलाएं बहुत सुन्दर बर्तन बनाती हैं। ऐसे ही एक बार भदोही (उ.प्र.) में कालीन बुनने वाली महिलाओं के बीच पहुंची, उनकी हालत दयनीय थी। वे अपने घरों में घास की टोकरियां भी बनाती थीं, जो बहुत सुन्दर थीं। हमने उन महिलाओं से और टोकरियां बनाने को कहा और उन्हें दिल्ली हाट में बुलाया। दिसम्बर, 2004 में जब वे दिल्ली हाट आयीं तो उनकी सारी टोकरियां बिक गईं 17,000 रुपए में। वे कितनी खुश हुईं। उन्हें अपनी सामथ्र्य का अहसास हुआ।दस्तकारी यात्रा का भविष्य कैसा देखती हैं?इस प्रदर्शनी की प्रतीक है एक विशाल प्रवाहमान नदी। वह निरंतर बह रही है, सबको अपने साथ लेते हुए। नदी पुरानी है, ऐतिहासिक है, लेकिन उसके पानी की हर बूंद नयी है। दस्तकारी की यात्रा भी इस नदी के समान है, जिसमें दस्तकार हमेशा कुछ नया बनाता रहता है, अपनी पारम्परिक शैली में। इसमें नया भी है, पुराना भी है और यह निरंतर चलता रहेगा।NEWS

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