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बिहार में अराजकता का प्रतीक बनीसोनिया की लालू सरकार….वरना यदि सोनिया चाहतीं कि बिहार में नरसंहार, अपहरण और डकैतियां न हों तो क्यों लालू को समर्थन देतींलालू राज मेंबेहाल बिहार, बेहाल जनता-श्याम वेतालस्थानीय संपादक, दैनिक हिन्दुस्तान (पटना)कहने को तो विधानसभा चुनाव तीन राज्यों में हो रहे हैं पर देश भर की निगाहें बिहार के चुनावों पर टिकी हुई हैं। क्योंकि बिहार के साथ कई बातें जुड़ी हुई हैं। पहला कारण तो हैं- लालू यादव। हो सकता है शेष देश के लोग चाहते हों कि लालू यादव सत्ता से हट जाएं। लेकिन यहां के समीकरणों को देखते हुए लालू यादव की हार कहीं दिखाई नहीं देती। समीकरण भी कई तरह हैं। जातिगत समीकरण इस कदर प्रभावी है कि विकास आदि के मुद्दों की बजाय यहां जातिवाद ही चुनाव परिणाम प्रभावित करता है। जातिवाद के आगे सब मुद्दे गौण हो जाते हैं। लालू यादव का “एम.-वाई.” (मुस्लिम-यादव) समीकरण भी बहुत व्यापक है। बिहार में यादव और मुस्लिमों का वोट प्रतिशत साथ मिलकर इतना ज्यादा हो जाता है कि बिखरा हुआ विपक्ष लालू यादव के राजद को हरा नहीं सकता। अगर विपक्षी दल- जनता दल (यू.), भाजपा, लोजपा, कांग्रेस- एक साथ जुड़कर लालू यादव के खिलाफ चुनाव लड़ते तो निश्चित रूप से इस बार लालू यादव को हटाया जा सकता था। लेकिन अब ऐसी कोई संभावना ही नहीं दिखती। कांग्रेस अपना राग अलग अलाप रही है, लोजपा अपने पैंतरे अकेले चला रही है। यह सच है कि बिहार में 15 साल से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में गिरावट ही दिखी है। न शिक्षा है, न रोजगार। रोजगार है तो तनख्वाह नहीं। उद्योग हैं तो कामगार नहीं। खेत हैं तो बिजली, पानी नहीं। यह भी सही है कि चुनाव में ये मुद्दे ही प्रभावी रहने चाहिए, लेकिन चुनाव से ठीक पहले यहां ऐसी लहर चलती है कि लोग बाकी बातें भूलकर अपनी जाति के आदमी को वोट दे देते हैं, चाहे वह उम्मीदवार कैसा भी हो, कितने भी दोष हों।इसमें कोई शक नहीं है कि बिहार में बदलाव के लिए एक जनांदोलन उठना चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि नेतृत्व कौन करेगा? जब विपक्ष खेमों में बंटा रहेगा और वोटों की ही राजनीति चलती रहेगी तो कैसे खड़ा होगा कोई जनांदोलन।लालू यादव के राज में कांग्रेस की भी अहम भूमिका रही है। कांग्रेस की स्थिति बड़ी विडम्बनापूर्ण है। अगर वह लालू यादव को नाराज करती है तो केन्द्र में उसकी सरकार पर असर पड़ता है। लालू यादव अगर समर्थन वापस लेते हैं तो केन्द्र की सत्ता डगमगा जाएगी। इस सांसत में कांग्रेस लालू यादव से कन्नी नहीं काट सकती। बिहार की स्थिति देखें तो पता चलता है कि सबसे ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे यहीं हैं, अशिक्षा है, डकैतियां, अपहरण यहीं सबसे ज्यादा हुए हैं, मुस्लिमों की हालत भी सबसे खराब बिहार में ही है। ऐसी हालत में भी अगर सोनिया गांधी लालू यादव की सत्ता को समर्थन दे रही हैं तो निश्चित है कि जनता की भलाई से बढ़कर उनका राजनीतिक स्वार्थ है। चाहे कोई पार्टी हो, आज राजनीति परमार्थ की नहीं, स्वार्थ की ही हो गई है। बिहार में तो राजनीति अपने सबसे दूषित रूप में दिखाई देती है। लालू जी की सत्ता को सोनिया गांधी का पूरा समर्थन है। लालू यादव से पीछा छुड़ाने की दिशा में अर्जुन सिंह द्वारा झारखण्ड में की गई कार्रवाई अच्छा कदम था। लेकिन बाद में शायद लालू यादव ने भीतर ही भीतर कोई पैंतरा दिखाया होगा कि कांग्रेस के तेवर फिर ढीले पड़ गए। कारण, दोनों की ही मजबूरी है। बिहार का बुद्धिजीवी वर्ग हो या अखबार जगत सभी का यही मानना है कि बिहार में स्वाभिमान की रक्षा का आंदोलन शुरू होना चाहिए। बिहार की जनता पीड़ित है।लालू यादव के इशारे पर गठित न्यायमूर्ति बनर्जी समिति की अंतरिम रपट इस वक्त नहीं लाई जानी चाहिए थी। चुनाव आयोग को उस रपट को लाए जाने पर प्रतिबंध लगाना चाहिए था। चुनाव आयोग चुनाव आचार संहिता में क्यों नहीं यह नियम बनाता कि चुनाव के दौरान ऐसी कोई रपट सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए, जिसमें पार्टी विशेष को राजनीतिक लाभ मिलता हो या निष्पक्ष चुनाव कराए जाने में कोई बाधा आती हो। लालू यादव ने तो पहले ही पूरा हिसाब लगाकर घोषणा की थी कि गोधरा समिति की जांच रपट तीन महीने में आ जाए। बनर्जी समिति की रपट किसी भी प्रकार वैध नहीं है। यह तो महज मुस्लिम वोट पुख्ता बनाने के लिए उछाली जा रही है।(वार्ताधारित)NEWS
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