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आजीवक परम्परा के आचार्यसुरेश सोनीसुरेश सोनीश्राद्ध करने से पितरों को तृप्ति मिलती है। इस पर चार्वाक कहते थे अगर ऐसा है तो यात्रा में जाते समय पाथेय बांधकर क्यों ले जाते हैं? घर में ही तुम्हारे नाम से भोजन रख देंगे तो तुम्हारी तृप्ति हो जायेगी।आस्तिक लोग मानते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा परलोक में जाती है। चार्वाक इसका उपहास उड़ाते हुए कहते थे, यदि ऐसा है तो वह नित्य आत्मा शोकाकुल बंधुओं के स्नेह से वापस क्यों नहीं आ जाती?दान देने से स्वर्ग स्थित पितरों की तृप्ति होती है, इसके विरुद्ध चार्वाक तर्क देते थे कि यदि ऐसा ही है तो ऊपरी मंजिल पर बैठे व्यक्ति को तल मंजिल पर रखे भोजन से तृप्त हो जाना चाहिए।इस प्रकार चार्वाक दर्शन पूर्णत: भौतिकवादी था। किसी प्रकार का नैतिक बंधन उन्हें स्वीकार नहीं था। वे मानते थे कि मानव की वासनाओं की किसी भी साधन से पूर्ति जायज है। उनका यह विचार यदि समाज में व्याप्त हो जाये तो सभ्य व सुसंस्कृत समाज की रचना नहीं हो सकती। मानव समाज और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। अत: यह दर्शन हर काल में कुछ समय तो समाज पर असर करता रहा परन्तु अंततोगत्वा अनुभव के आधार पर नकारा गया। मानव देह और भौतिक सुखों से ऊपर उठकर किसी उच्चतर सत्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहा। इसी जिज्ञासा में से अन्यान्य दर्शनों की उत्पत्ति हुई।आजीवक परम्परा- श्रमण परम्परा में कई आचार्य हुए हैं। जैन ग्रन्थों में 263 प्रकार के पंथों का वर्णन मिलता है तथा बौद्ध ग्रन्थों में 62 प्रकार के पंथों का वर्णन मिलता है। परन्तु उन दो धाराओं ने न केवल भारत अपितु विश्व को भी प्रभावित किया। वे धारायें थीं जैन तथा बौद्ध। परन्तु इन दो प्रमुख दर्शनों का प्रचार करने वाले भगवान, महावीर तथा बुद्ध के समय जो अनेक पंथ थे उनमें 6 आचार्य बहुत प्रसिद्ध थे। वे आचार्य और उनका दर्शन निम्नानुसार था-1. पूरण काश्यप अक्रियावाद के समर्थक थे। वे सदैव नग्न रहते थे। इसका कारण बताते हैं कि वे ज्ञान चाहते थे। घर वाले इसमें बाधक बनते थे अत: उन्होंने घर छोड़ दिया। जंगल में गये। वहां चोरों ने लूट लिया। सारे कपड़े ले गये। उस समय उनके मन में विचार आया, मनुष्य कपड़े क्यों पहनता है? इसलिए कि उसमें लज्जा है। लज्जा उत्पन्न होती है किसी अवस्था के बारे में पाप बुद्धि के कारण। इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्हें लगा कि मेरे अन्दर पाप बुद्धि नहीं है, अत: लज्जा क्यों रखनी चाहिए, इसलिए वे जीवनभर नग्न रहे।उनके मत का सार था, कुछ भी करने का कोई भी परिणाम नहीं होता है। आप पूजा करें, सत्य बोलें, असत्य बोलें, दान करें या न करें इसका कुछ परिणाम नहीं होता है।2. दूसरे आचार्य थे मक्खली गोशाल वे नियतिवादी थे। उनके अनुसार पुरुषार्थ से कुछ नहीं होता है। नियति का चक्र निर्धारित है। 84 लाख महाकल्पों के चक्र में नियति के अधीन बुद्धिमान और मूर्ख दोनों को घूमना पड़ता है और सुख-दु:ख प्राप्त करते हुए समय आने पर सब मुक्त हो जायेंगे।3. तीसरे आचार्य थे अजित केसकम्बली। उनका विचार उच्छेदवाद था, अर्थात् हर चीज का उच्छेदन करना। अत: उन्होंने वेद, कर्मकाण्ड, परलोक, साधना, ईश्वर आदि सबका खण्डन किया।4. चौथे आचार्य थे संजय वेलठ्ठिपुत्त। वे अनिश्चिततावादी थे।5. पांचवें आचार्य थे प्रबुद्ध कात्यायन। वे अन्योन्यवादी थे। उनके अनुसार सात पदार्थ हैं जो अचल हैं तथा बदलते नहीं हैं। ये पदार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दु:ख तथा जीव।इस प्रकार इन पांचों आचार्यों का चिंतन चार्वाकों की भौतिक विचारधारा के निकट था तथा नैतिकता को इसमें बहुत स्थान नहीं था। अत: ये विचार तत्कालीन समाज पर तात्कालिक असर तो डाल सके परन्तु समाज में गहरा प्रभाव न छोड़ सके और काल के प्रवाह में लुप्त हो गये। परन्तु श्रमण परम्परा की दो दार्शनिक विचारधाराओं ने भारतीय जनजीवन को बहुत गहराई से प्रभावित किया। इनमें एक है जैन और दूसरी बौद्ध।…जारी(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)NEWS
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