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… और उधर भारत के कपड़ा उद्योग पर

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Mar 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Mar 2005 00:00:00

चीन की निगाह

विश्व व्यापार संगठन के तत्वावधान में नई मुक्त व्यापार व्यवस्था लागू करने के समर्थकों द्वारा एक प्रमुख दलील यह दी जाती थी कि एक जनवरी, 2005 से कोटा राज समाप्त होने के बाद भारत के कपड़ा उद्योग को सबसे ज्यादा लाभ होगा। पिछले ढाई महीने में इन दावों की पोल खुलती नजर आ रही है। जहां एक ओर अमरीका की सरपरस्ती में चीन द्वारा अंतरराष्ट्रीय कपड़ा बाजार में एकाधिकार का प्रयास चल रहा है वहीं भारत सरकार की कमजोर व अप्रभावी नीतियों तथा नीति-निर्माताओं में दूरगामी सोच का अभाव भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए महंगा साबित हो रहा है। यही हाल रहा तो जल्द ही भारतीय कपड़ा उद्योग बरबादी के कगार पर पहुंच सकता है। चीन में निर्मित कपड़ों की कीमतों में भारी कमी के कारण 50 देश सीधे प्रभावित हुए हैं। इन देशों की दुनिया के बाजार में हिस्सेदारी 90 फीसदी से गिरकर 28 फीसदी पर आ गई है। भारत भी इन प्रभावित देशों की सूची में है। तैयार वस्त्रों के निर्यात में चीन ने पिछले कुछ समय में 1000 फीसदी की वृद्धि की है। जाहिर है ऐसे में भारत सहित दुनिया के कई वस्त्र निर्यातकों के लिए बाजार में जमे रहना मुश्किल होता जा रहा है।

पिछले ढाई महीने में चीन ने कपड़ा क्षेत्र में कीमतों में 20 प्रतिशत कटौती की है। इसका सीधा लक्ष्य भारतीय निर्यातकों को बाजार से बाहर करना है ताकि स्थायी रूप से चीन का एकाधिकार इस अंतरराष्ट्रीय बाजार पर स्थापित हो सके। उल्लेखीय है कि भारत के लिए अमरीका कपड़ा व्यापार की दृष्टि से एक प्रमुख बाजार है। यहां पर चीन के आधिपत्य का मतलब होगा भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए करारा झटका। विडंबना यह है कि चीन का खतरा सर पर मंडरा रहा है, पर हमारे नीति-निर्माता हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। कपड़ा क्षेत्र की उपेक्षा नई बात नहीं है। साल दर साल इस क्षेत्र की उपेक्षा की गई है जबकि आंकड़े बताते हैं कि कपड़ा क्षेत्र की भागीदारी भारत के कुल औद्योगिक उत्पादन में 14 फीसदी है। पर चीन के कसते शिकंजे को ढीला न किया गया तो कई भारतीय कपड़ा निर्माताओं को अपना बोरिया-बिस्तर बांधना भी पड़ सकता है, जिससे सैकड़ों मजदूर बेरोजगार होंगे।

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