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चर्चा सत्र

by
Feb 10, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Feb 2005 00:00:00

समय की परतों में छुपा सचटी.वी.आर. शेनाय”यह विशुद्ध रूप से सनसनी फैलाने के लिए किया गया है। इसमें कोई तथ्यात्मक सत्यता नहीं है।” जब “मित्रोखिन आर्काइव-2: द केजीबी एण्ड द वल्र्ड” के रहस्योद्घाटन पर कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी की यही प्रतिक्रिया थी। सिंघवी ने अपनी सफाई में जो टिप्पणियां कीं, वे स्वयं परस्पर अन्तरविरोधी हैं। उन्होंने कहा कि मित्रोखिन ने दस्तावेज चोरी किए थे, इसलिए इसकी सत्यता सन्देहास्पद है। अब क्या कहा जाए इस पर? हमारे यहां एक सूक्ति है कि चोरी उसी वस्तु की होती है जो मूल्यवान हो। और यह बात मित्रोखिन जैसे व्यक्ति के सन्दर्भ में और महत्व की है क्योंकि वे तो के.जी.बी. के आला अधिकारी रहे थे। उनके द्वारा चोरी किए गए दस्तावेज कितने कीमती होंगे, यह बात स्वयं में प्रमाणित हो जाती है।मित्रोखिन-या उनके साहित्यिक प्रस्तोता- तो “आप हमारा पैसा लें, हमारा आदेश मानें” सिद्धान्त के आधार पर ली गई रिश्वत के बारे में लिखकर संतुष्ट हो गए। लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रभाव जमाने का कोई, इससे भी भीतरी, तरीका साथ-साथ काम कर रहा था? यद्यपि वह रिश्वतखोरी नहीं कहा जा सकती, लेकिन उसके परिणाम वैसे ही थे, यानी सोवियत संघ के इशारों पर भारत को नचाना?आज हर कोई जानता है कि भारत और तत्कालीन सोवियत संघ ने रक्षा और विदेश नीति संबंधों को किस तरह बनाए रखा गया था। हमारे रक्षा बजट की भारी-भरकम राशि सोवियत हथियारों को खरीदने में खर्च की जाती थी। लेकिन इसके साथ-साथ ऐसे दूसरे गैर-सैन्य क्षेत्र भी थे, जिसमें सक्रिय रूप से आदान-प्रदान होता था। सोवियत संघ हमेशा खाद्यान्न की तलाश में रहता था और इसके लिए वह अपने प्रतिद्वन्द्वी अमरीका का दरवाजा खटखटाने में भी कोई संकोच नहीं करता था। मास्को को यही वस्तुएं भारत से खरीदने में प्रसन्नता होने लगी जब भारत हरित-क्रांति के बाद अतिरिक्त उत्पादन भी करने लगा। (अब यह एक गाथा है कि कालांतर में यही रूस, जो जार वंश के जमाने में खाद्यान्न निर्यात करने वाले देशों में गिना जाता था, अपना पेट भर पाने में ही नाकाम हो गया!)बहरहाल, दिल्ली में किसी चीज की खरीद-फरोख्त का मतलब ही है किसी दलाल की मौजूदगी। सोवियत वाले भारत में खरीददारी की लम्बी सूची लेकर आए- केरल के मसाले, कर्नाटक की काफी, आंध्र प्रदेश का तम्बाकू, असम की चाय, पंजाब की होजरी और लगभग सभी प्रान्तों से खाद्यान्न। लेकिन यह सब खरीदने के लिए उनकी एक विचित्र शर्त भी थी, जो उनके घोषित पूंजीवाद विरोधी रुख के विपरीत थी, कि ये सब चीजें वे निजी क्षेत्र से ही खरीदेंगे।ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्या यह महज कोरा बयान था, समाजवाद के उस अत्यंत स्वर्णिमकाल में भी, क्या निजी क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा प्रभावी था? या फिर सोवियत संघ की मंशा थी कि पैसा सही लोगों के पास ही पहुंचे? अगर अफवाहों पर विश्वास करें तो उस समय कुछ आश्चर्यजनक नाम हवा में उछले थे जब, उदाहरण के लिए, सोवियत संघ को चावल बेचा गया था। कुछ लोग धीरेन्द्र ब्राहृचारी का नाम लेते हैं। नेहरू-गांधी परिवार से जुड़ा यह फर्राटेदार योग शिक्षक सम्भवत: ऐसे ही एक सौदे का मध्यस्थ था। ऐसे आरोप वृद्ध कम्युनिस्ट अरुणा आसफ अली पर भी लगे थे। “वैधानिक निर्यात” के माध्यम से किसी व्यक्ति या संगठन को दलाली की बड़ी रकम देना एक बढ़िया तरीका रहा है। अपने में वैधानिक और पूरी तरह लाभ देने वाला। (शायद भारत ही अकेला ऐसा देश था जो निश्चित रूप से सोवियत व्यापार की रौ में बहुत ज्यादा बह गया था।)मुझे इस बात की बिल्कुल जानकारी नहीं है कि भारत के साथ इस व्यापार के जरिए सोवियत संघ को कोई सैन्य या राजनीतिक फायदा पहुंचा था कि नहीं। यद्यपि कुछ निर्णय ऐसे हुए जिस कारण लोग जानते थे कि भारत के साथ अच्छा सलूक नहीं हो रहा था। उदाहरण के लिए, रुबल (रूसी मुद्रा) का मूल्य बहुत रखा गया था, जिसका वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं था। इसका मतलब यह था कि भारतीय वस्तुएं जब रूस को बेची जाती थीं तो उनकी कीमत बहुत कम रखी जाती थी। रूसी कामरेडों ने इसका फायदा उठाकर अमरीकी डालर, जर्मन माक्र्स, स्विस फ्रैंक जमकर कमाए। उदाहरण के लिए, उन्होंने भारत की चाय कम कीमत पर खरीद कर वास्तविक बाजार मूल्य पर बेची। परिणामत: हमें तो कमजोर रूबल मिलता रहा और वे अमरीकी डालर कमा लेते थे, जो हमारे होने चाहिए थे। वस्तुत: भारत सोवियत संघ को हर वस्तु पर छूट दे रहा था।केवल व्यापार ही ऐसा औजार नहीं था जिससे “मित्र बनाए जाते थे और लोगों को प्रभावित किया गया था।” एक समय था जब सोवियत शिक्षा पद्धति को विश्व के लिए आदर्श कहकर प्रचारित किया जाता था (यद्यपि ये कभी भी हार्वर्ड, स्टेनफोर्ड या आक्सफोर्ड जैसी इज्जत नहीं कमा पाई)। हमारे सोवियत कामरेड मास्को से लेकर सोफिया तक रूसी शिक्षण संस्थानों में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देने में समर्थ थे। इस मदद से विदेश में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के भारतीय अभिभावक उनके बहुत शुक्रगुजार हुए होंगे।अभिषेक सिंघवी ने कहा है कि मित्रोखिन आर्काइव के आरोप तब तक सिद्ध नहीं हो सकते जब तक कि मास्को इससे जुड़े सारे दस्तावेज जारी न करे। हम रूसी सरकार को ऐसा करने के लिए नहीं कह सकते। लेकिन एक आसान रास्ता है, हम अपने अभिलेख ही क्यों न जांचें कि किन-किन वामपंथी रुझान वालों के बच्चे सोवियत कालेजों में गए? वे कौन लोग थे जिन्होंने भारतीय वस्तुओं को असली कीमत से कम दामों में सोवियत संघ को उपल्बध कराया? क्या भारत सरकार इस पर कुछ प्रकाश डालेगी?(22 सितम्बर, 2005)NEWS

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