के.जी.बी. का पैसा
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के.जी.बी. का पैसा

by
Feb 10, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Feb 2005 00:00:00

बेबुनियाद आरोपों की जांच कैसीअभिषेक सिंघवी, प्रवक्ता, कांग्रेसपुस्तक द मित्रोखिन आर्काइव – 2का आवरणके.जी.बी. के जिस खुलासे अथवा रहस्योद्घाटन की चर्चा चल रही है और यह कि श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन के दौरान किस तरह इस संस्था ने भारत में जड़ें जमाईं, इस पूरे प्रकरण के संदर्भ में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि ये सभी आरोप बेबुनियाद और झूठ का पुलिंदा हैं।यह सब मजाकिया कहानी की तरह है जिसमें किसी तरह का कोई भी आरोप नहीं बनता है। इसके कारण हैं। पहला, इस पूरे संदर्भ में सिवाय एक ललित नारायण मिश्रा के, किसी का भी नाम नहीं है कि किसने, कब, क्या किया। न ही कोई तारीख है कि यह सब कब हुआ। आरोप निर्धारित होने के लिए ये दो बातें जरूरी हैं। उसके बाद उस आरोप के सिद्ध होने, न होने की बात आती है। यह पूरा वर्णन आरोप की शक्ल में है ही नहीं।किसी पार्टी के चुनाव के लिए कहीं से पैसा आने की बात आरोप नहीं हो सकती। अगर मैं कहूं कि 10.6 मिलियन रूबल भाजपा नेताओं के चुनाव प्रचार में खर्च करने को दिए गए तो यह किसी तरह का आरोप नहीं बनता। “खुलासे” में आया है कि भारत के 10 अखबार के.जी.बी. की जेब में थे। क्या किसी भी अखबार ने इसका खण्डन किया? नहीं, क्योंकि यह किसी तरह का आरोप नहीं होता। कोई कहे कि इन अखबारों में खबरें प्रायोजित कीं तो इस पर कोई विश्वास कैसे करेगा? न कोई नाम, न कोई तारीख। दिल्ली के किसी अखबार ने इस बेबुनियाद आरोप का खण्डन नहीं किया है। ये सब बातें एक व्यक्ति द्वारा चोरी से छायाप्रति किए गए कागजों की हैं। यह उसने 1992 में रूस से भागने से पहले किया था। ये बातें जिस किताब में लिखी बताई जा रही हैं, उसके लेखक की मृत्यु हो चुकी है। 35 साल पहले की चर्चा है। उस समय का कोई व्यक्ति जीवित नहीं है इन बातों का खण्डन करने के लिए। जहां तक कम्युनिस्ट नेता प्रमोद दासगुप्ता को पैसे दिए जाने की बात है, तो उस संदर्भ में इतना ही कहता हूं कि प्रमोद दासगुप्ता ऐसे व्यक्ति थे जो बहुत गरीब थे और छोटे से घर में रहते थे। उनका कोई परिवार नहीं था। उनके बारे में कहते हैं कि उनका दुश्मन भी नहीं मान सकता कि किसी से उन्होंने एक पैसा भी लिया होगा। अब कोई कहे कि किसी ने फलां आदमी को पैसा दिया तो इसके पीछे कोई तर्क होना चाहिए। मैं तर्क के आधार पर इस सबका खण्डन करता हूं। ये सब बातें बेबुनियाद हैं। विरोधी दलों की जांच कराने की मांग बेमानी है। जब आरोप ही नहीं है तो जांच क्यों कराएं।(वार्ताधारित)NEWS

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