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देवेन्द्र स्वरूपकर्मयोग शास्त्र है भगवद्गीताश्रीमद् भगवद्गीता प्राचीन भारतीय ज्ञानधारा का शिरोमणि ग्रन्थ है। आदिशंकराचार्य ने इस महान ग्रंथ को प्रस्थानत्रयी में स्थान दिया। उन्होंने प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत वेदान्त सूत्र, एकादश उपनिषद् (ईशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य व बृहदरण्यक) एवं गीता को सम्मिलित किया और इन सभी पर भाष्य लिखे। शंकराचार्य जी के बाद कोई संप्रदाय प्रवर्तक, आचार्य या दार्शनिक भारत में नहीं हुआ जिसने अपने मत का प्रतिपादन करने के लिए गीता का आश्रय न लिया हो। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क, भास्कर, वल्लभ, श्रीधर स्वामी, आनन्द गिरि, संत ज्ञानेश्वर आदि अनेक मध्यकालीन आचार्यों ने भगवद्गीता की अपने-अपने ढंग से व्याख्या की। आधुनिक काल में लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, ऐनी बेसेन्ट ने भी गीता का आश्रय लिया और उसकी व्याख्या की। लोकमान्य तिलक ने गीता रहस्य अर्थात् कर्मयोग शास्त्र नामक विशाल ग्रंथ लिखा, तो गांधी जी ने उसे अनासक्ति योग जैसा नाम दिया। उन्नीसवीं शताब्दी में काशीनाथ त्र्यम्बक तेलंग ने उसका अनुवाद किया तो बीसवीं शताब्दी में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने भी यह काम किया। रामकृष्ण मिशन, स्वामी चिन्मयानन्द, विदेशों में हरे कृष्ण आन्दोलन के प्रणेता प्रभुपाद भक्तिवेदान्त आदि ने भी गीता के अपने-अपने भाष्य प्रस्तुत किए हैं। स्वाध्याय प्रवर्तक श्री पांडुरंग शास्त्री आठवले और अभी हाल में स्वामी अर्गलानन्द ने भी गीता पर भाष्य प्रस्तुत किए हैं। अंग्रेजी और विभिन्न भारतीय भाषाओं में गीता पर अनेक ग्रंथ प्रतिवर्ष प्रकाशित हो रहे हैं। भारत के बाहर विदेशी विद्वानों का ध्यान भी गीता ने आकर्षित किया है। अठारहवीं शती में ब्रिटिश गवर्नर जनरल गीता से अत्यधिक प्रभावित था। उनकी प्रेरणा से चाल्र्स विल्किंस ने अंग्रेजी भाषा में गीता का अनुवाद प्रकाशित किया था। इस अनुवाद को पढ़कर जर्मनभाषी प्रश्या राज्य का मंत्री विल्हेमवान हम्बोल्ड भाव- विभोर हो गया था। उसने जर्मन विद्वानों को संस्कृत वाङ्मय के रत्नों को बटोरने की प्रेरणा दी थी।गीता की महत्ताहमारे स्वातंत्र्य आंदोलन में भगवद्गीता की अत्यन्त प्रेरक भूमिका रही। अनेक क्रांतिकारी गीता को हाथ में लेकर हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ जाते थे। मांडले जेल में लिखा गया लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य देशभक्तों के लिए स्वाध्याय ग्रंथ बन गया। सन्त विनोबा भावे कहा करते थे, “गीता मेरी मां है”। आज भी देश में लाखों, करोड़ों लोग गीता का नित्य स्वाध्याय करते हैं और उसे एक धर्म ग्रंथ के रूप में पूजते हैं, अनेक नगरों में गीता मन्दिरों की स्थापना हुई है। प्रतिवर्ष विभिन्न भाषाओं में गीता पर विवेचनात्मक ग्रंथ प्रकाशित हो रहे हैं। यदि गीता के भाष्यों, टीकाओं, अनुवादों और विवेचनात्मक लेखों व पुस्तकों की सूची बनायी जाए तो हजारों पृष्ठों का विशाल ग्रंथ बन जाएगा।प्रश्न यह है कि गीता में ऐसा क्या है कि उसे भारतीय मनीषा की सर्वश्रेष्ठ कृति का स्थान प्राप्त हो गया है। वैसे तो वह एकलक्ष श्लोकी महाभारत ग्रंथ के भीष्म पर्व का अंग है। गीता प्रेस संस्करण में 25-42 और भंडारकर इन्स्टीटूट, पुणे के संस्करण में 23-40 अध्यायों में गीता विद्यमान है। महाभारत में ही कुछ स्थानों पर उसका हरिगीता नाम से उल्लेख हुआ है। (शान्ति पर्व अ. 346.10, अ. 348.8 व 53)। किस समय, किसने उसे महाभारत से अलग कर एक स्वतंत्र ग्रंथ का रूप दिया इसका कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता। आदिशंकराचार्य द्वारा भाष्य रचे जाने पर गीता जिस तरह प्रमाण ग्रंथ के रूप में पूजित हुई है, क्या वही स्थिति उसे इसके पूर्व भी प्राप्त थी, इसका निर्णय कर पाना कठिन है। शंकराचार्य के पूर्व का कोई भी भाष्य हम तक नहीं पहुंचा है। लोकमान्य तिलक गीता रहस्य में लिखते हैं कि शंकराचार्य भाष्य में अध्याय 3 के उपोद्घात से प्रतीत होता है कि शंकराचार्य जी के सामने कुछ पुरानी टीकाएं विद्यमान थीं, जिनका खंडन करने के लिए शंकराचार्य जी को नया भाष्य लिखना पड़ा। किन्तु शंकराचार्य जी किसी टीकाकार का नामोल्लेख नहीं करते। शंकराचार्य जी के बाद कोई दार्शनिक बहस नहीं हुई जिसमें गीता को प्रमाण न माना गया हो, किन्तु शंकराचार्य जी के पूर्व वैदिकों, बौद्धों, जैनों, सांख्यों, नैयायिकों, मीमांसकों एवं वैश्विकों के बीच जो सैकड़ों वर्ष लम्बा शास्त्रार्थ चला, उसमें गीता जैसे श्रेष्ठ प्रमाण ग्रंथ का उल्लेख क्यों नहीं मिलता, यह उलझन में डालने वाला प्रश्न है। गीता द्वारा प्रतिपादित तत्वज्ञान का आरंभ बिन्दु कहां है, इसका निर्णय कैसे हो? गीता के चौथे अध्याय में कृष्ण जी कहते हैं कि पूर्व काल में यह योग मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु से कहा। मनु ने इक्ष्वाकु को बताया। यूं पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से प्राप्त इस ज्ञान को राजर्षियों ने जाना पर कालान्तर में यह योग लुप्त हो गया। और अब उस पुराने योग को ही तुम्हें पुन: बता रहा हूं। यदि इन तीन श्लोकों को अक्षरश: स्वीकार करें तो गीतोक्त ज्ञान का आरम्भ अनेक मन्वन्तरों अर्थात् करोड़ों वर्ष पूर्व चला जाता है। किन्तु यही गुरु-शिष्य परम्परा शान्ति पर्व अ. 347 श्लोक 51-52 में नारायणीय धर्म के लिए दी गई है। अत: काल निर्णय के झंझट में न पड़ते हुए इस समय उपलब्ध गीता के अन्तर्साक्ष्य के आधार पर यह समझने का प्रयास करें कि भारत की लम्बी ज्ञान यात्रा के किस चरण को गीता प्रतिबिम्बित करती है।जिस महापुरुष ने जब भी गीता को महाभारत से बाहर निकालकर एक स्वतंत्र ग्रंथ का रूप दिया, उन्होंने प्रत्येक अध्याय के अंत में एक परिचयात्मक वाक्य और उस अध्याय में प्रतिपादित विषय का उल्लेख किया है। वह परिचयात्मक वाक्य है-“श्रीमद् भगवद् गीतासूप निषत्सु ब्राह्म विधायां योग शास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे…”अर्थात्, “श्री भगवान के गाये हुए उपनिषद् में ब्राह्म विद्या के अन्तर्गत योग शास्त्र विषयक कृष्ण-अर्जुन संवाद का… विषय”, जैसे प्रथम अध्याय का विषय है “अर्जुन विषाद, दूसरे अध्याय का सांख्य योग, तीसरे का कर्म योग और चौथे का ज्ञान-कर्म संन्यास योग आदि-आदि। परम्परा गीता को उपनिषदों के सार के रूप में देखती आयी है, इस भाव का निम्नलिखित श्लोक भी प्रचलित है-सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता, दुग्धं गीतामृतं महत्।।अर्थात् सब उपनिषद् गायों को दुह कर गोपाल नन्दन यानी श्रीकृष्ण जी ने गीतामृतरूपी जो दूध निकाला उसका पान अर्जुन रूपी बछड़े ने किया।प्रत्येक वेदसंहिता के अंतिम भाग को उपनिषद् कहा जाता है। मन्त्र भाग, ब्राह्मण भाग और आरण्यक के बाद उपनिषद् हैं इसलिए उपनिषदों को वेदान्त या ब्राह्मविद्या भी कहा गया है। उपनिषद् त्रयीविद्या से ब्राह्मविद्या की ओर हमारी ज्ञान यात्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं।तत्वज्ञान का सारउपनिषदों के अध्ययन से विदित होता है कि त्रयी विद्या के अन्तर्गत ऋक, यजु: और साम वेदों का समावेश होता था। ऋक का सम्बंध पृथ्वी और अग्नि से, यजु: का सम्बन्ध अन्तरिक्ष और वायु से, साम का सम्बंध द्यौ और इन्द्र या सूर्य से बताया गया है। त्रयी विद्या सृष्टि चक्र को चलाने वाले देव तत्वों का ज्ञान प्रगट करती है। उसका ज्ञान आधि दैविक कहा गया है। त्रयी विद्या यज्ञ प्रधान थी, इन्द्र तत्व सर्वोच्च था। स्वर्गलोक की प्राप्ति ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य था। लम्बे समय तक हमारी ज्ञान यात्रा त्रयी विद्या पर ही अटकी हुई थी। कठोपनिषद् और केनोपनिषद् यज्ञ प्रधान त्रयी विद्या से ब्राह्म विद्या की श्रेष्ठता का स्पष्ट प्रतिपादन करते हैं।गीता में भी अनेक स्थानों पर त्रयी विद्या की सीमाओं को स्पष्ट किया गया है। अध्याय 2 में गीता कहती है कि”वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:। (42)कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्म फलप्रदाम्।क्रियाविशेष बहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।। (43)अर्थात्, “वेदवाद में रत लोग मानते हैं कि दूसरा मत है ही नहीं। वे कामनाओं से भरे हैं, स्वर्गकामी हैं, वे पुनर्जन्म के लिए कर्म का फल चाहते हैं। ऐश्वर्य भोग के लोभ में तरह-तरह की यज्ञ क्रियाओं में लगे रहते हैं।”गीता का स्पष्ट आदेश है कि वेद त्रिगुणात्मक हैं जबकि अर्जुन तुम्हें तीनों गुणों से परे जाना चाहिए। (245)गुणातीत होने का अर्थ है ब्राह्मज्ञानी होना। और जिसने ब्राह्मज्ञान पा लिया उसके लिए वेदों का प्रयोजन उस कुंए से अधिक नहीं रह जाता जो चारों ओर जल की बाढ़ से घिरा हो। (2.46)अध्याय 4 में गीता वर्षा द्वारा अन्नोत्पादन की प्रक्रिया में यज्ञ के योगदान का विवेचन करती है। पर गीता कई स्थानों पर यज्ञ को भौतिक स्तर से आध्यात्मिक धरातल पर ले जाने का प्रयास करती है।अध्याय 9 में तो गीता त्रयी विद्या के स्वरूप और सीमाओं का और भी स्पष्ट शब्दों में वर्णन करती है। वह कहती है”त्रैविद्यामां सोमपा:पूतपापा, यज्ञैरिष्टवा स्वर्गति प्रार्थयन्ते।ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान।।” (9.20)ते तं भुक्तवा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति।एवं त्रयी धर्ममनुप्रपन्नागतागतं कामकामा लभन्ते (9.21)अर्थात् त्रयी विद्या के ज्ञाता, सोमपायी पाप मुक्त व्यक्ति स्वर्ग की इच्छा से यज्ञ कराते हैं। वे पुण्यार्जन करके इन्द्रलोक में, स्वर्ग में देवोचित भोगों को भोगते हैं। पर विशाल स्वर्ग लोक में पुण्य चुक जाने पर पुन: मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार त्रयी धर्म के अनुयायी कामनाओं के वशीभूत होकर आवागमन के चक्र मे फंसे रहते हैं। सोलहवें अध्याय में पुन: गीता दैवी और आसुरी संपद का अन्तर बनाते हुए उस समय यज्ञों के विधिहीन, श्रद्धाशून्य, अहंकार के प्रदर्शन का माध्यम कहकर आसुरी संपद की श्रेणी में रखती है। ऐसे और भी अनेक सन्दर्भ गीता में विद्यमान हैं, जिनका स्थानाभाव के कारण हम उल्लेख नहीं कर रहे हैं।इसलिए गीता साधक को त्रयी विद्या से आगे बढ़ा कर ब्राह्मविद्या की ओर ले जाती है और उसके लिए सांख्य और योग का समन्वय करती है। गीता के शब्दों में सांख्य संन्यास मार्गी बुद्धियोग है तो निष्काम कर्मयोग। गीता की दृष्टि में सांख्य और योग को अलग मानने वाले लोग मूर्ख हैं, पण्डित नहीं। दोनों एक ही लक्ष्य पर पहुंचाते हैं, किन्तु गीता का कहना है कि देहधारियों के लिए पूर्ण कर्म संन्यास असंभव है क्योंकि कर्म के बिना शरीर यात्रा हो ही नहीं सकती। फिर देह धारण करने के बाद मनुष्य की त्रिगुणात्मक प्रवृत्ति उसे कर्मपथ पर धकेलेगी ही इसलिए प्रत्येक को अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्म करना ही चाहिए। उसका स्वभावजन्य कर्म उसका धर्म है। उस धर्म का नि:संग भाव से, कुशलता से निर्वाह ही योग है। (योग: कर्मसु कौशलम् (2.50) एवं समत्वं योग उच्यते। (2.48)) गुण और कर्म के आधार पर ही समाज में चार वर्णों का विभाजन किया गया है। 18वें अध्याय में गीता चारों वर्णों के कर्मों का निरूपण कराती है।कर्म का मार्गकिन्तु गीता के अंतर्साक्ष्य से प्रगट होता है कि उस युग में समाज में कुल धर्म और जाति धर्म महत्वपूर्ण बन चुका था। पितरों का पिंडदान पुण्य माना जाता था, वर्ण संकरता के पाप का भय था। (2, 40-43) समाज में ब्राह्मण और क्षत्रियों की स्थिति ऊंची थी। वैश्य और शूद्रों को पाप योनि माना जाता था और उनके लिए मुक्ति के द्वार बंद थे। इसीलिए गीता ने उनके लिए निष्काम भक्ति का मार्ग खोला था। गीताकार समाज में व्याप्त सामाजिक भेदभाव और विषमता से त्रस्त है। अत: वह पदे-पदे आत्मवत् सर्वभूतेषु और सर्वभूतर्हित का मंत्र जाप कराता है। “सबको मुझमें और मुझको सब में” देखने का आग्रह करता है। आत्मज्ञान की एक ही कसौटी गीता बताती है कि”विद्याविनयसम्पन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।शुनि चैव श्वपाके च पण्डित: समदर्शिन:।। (5.18)जो विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण में, गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल को एक दृष्टि से देखता है, वही पण्डित है।गीता का कर्म पर आग्रह है। वह कर्म को आध्यात्मिक अधिष्ठान देना चाहती है। इसके लिए निष्काम कर्म और भक्ति मार्ग का प्रतिपादन कराती है। वह वर्ण व्यवस्था को अनिवार्य मानती है और शास्त्र द्वारा निर्धारित कर्म को करने का आदेश देती है (16.23-24)। पर वह यह नहीं बताती कि शास्त्र द्वारा प्रतिपादित जाति और कुल धर्म क्या हैं? यह क्षेत्र स्मृतियों का है। भारतीय परंपरा श्रुति और स्मृति को साथ-साथ लेकर चलती है। श्रुति अर्थात् सृष्टि विद्या या वेद ज्ञान। स्मृति धारा ने वेद को ही अपना स्रोत स्वीकार किया है। स्मृति वाङ्मय की रचनाकाल अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग के समय से कैसे हो सकता है? क्योंकि मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त के आचार्य कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में मानव शास्त्र परंपरा का पांच बार उल्लेख करते हैं और जहां आवश्यक है वहां मानव शास्त्र द्वारा प्रतिपादित मत से अपनी भिन्नता का उल्लेख करते हैं। पुष्यमित्र शुंग से सैकड़ों साल पुराने बौद्ध धर्म में कहा गया हैवेदो धर्ममूलम् तद्विदां च स्मृतिशीले (1.12)गौतम धर्म सूत्र मनु नामक स्मृति का भी उल्लेख करता है। वर्तमान मनु स्मृति भी गौतम धर्म सूत्र के शब्द दोहराती है-वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् (2.6)स्मृति परम्परा की प्राचीनता को स्वीकार करते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वर्तमान स्मृति ग्रंथ अपने मूल रूप में हम तक पहुंचे हैं और उनमें प्रक्षेप नहीं है। यह भी सत्य है कि समाज जीवन पर अब स्मृतियों का प्रभाव समाप्तप्राय: है। एकात्म समरस समाज जीवन के निर्माण की ओर हमें गीता बढ़ा सकती है। अत: गीता का पारायण हर घर में होना चाहिए। भले ही गीता का रचनाकाल कुछ भी हो। हां, गीता का एक सन्दर्भ महत्वपूर्ण है। दसवें अध्याय के 13वें श्लोक में जिन “असित देवल” का नाम मिलता है क्या वे वही ऋषि हैं जो प्रथम शताब्दी ईस्वीं के अश्वघोष के अनुसार भगवान बुद्ध के जन्म के समय उपस्थित थे? (24-12-2004)NEWS
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