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टी.वी.आर. शेनाय

by
Feb 1, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Feb 2005 00:00:00

यह बिहार है या लालू की बपौतीबात 1977 की है। इंदिरा सरकार ने आम चुनावों की घोषणा की और तभी विपक्षी दलों ने दिल्ली में एक संयुक्त रैली करने का निर्णय लिया। जेल से ताजा-ताजा छूटे नेताओं द्वारा सम्बोधित की गई वह रैली बेहद सफल रही थी। यह तो तब हुआ जब कांग्रेस के लाख जतन के बावजूद लोग अपने-अपने घरों से निकलकर रैली में पहुंचे थे। उस समय के सूचना व प्रसारण मंत्री ने तो दूरदर्शन को रैली के ही समय में चर्चित फिल्म “बाबी” दिखाने तक के आदेश दिए थे ताकि लोग अपने घरों में ही जमे रहें। उस समय तो मुझे भी अंदाजा नहीं हुआ था लेकिन लगता है कि वही एक ऐसी लोकप्रिय रैली थी जिसमें शामिल होने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उसके बाद जितनी भी रैलियों में मुझे जाने का मौका मिला वे सब सरकारी तंत्र के दुरुपयोग के बूते सफल होती दिखीं। (यहां तक कि वी.पी. सिंह को भी इस बात से फायदा ही पहुंचा था कि हरियाणा- जो तीन तरफ से दिल्ली को घेरे है- में राजीव गांधी के विरुद्ध आंदोलन के उन दिनों में वी.पी.सिंह के मित्र देवीलाल का शासन था।)क्या हमारे नेताओं की चहेती “विशाल” रैलियां सरकारी तंत्र के बिना असल में सफल हो सकती हैं? यह मानना थोड़ा मुश्किल है कि आम नागरिक अपनी जिंदगी को अस्तव्यस्त करके किसी राजनीतिक सभा के लिए निकल पड़ते हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण उस तरह की जनभावना पैदा करने वाले शायद अंतिम व्यक्ति थे। इसलिए यह बड़ा त्रासद है कि लोकनायक का ही एक शिष्य मेरे सवाल का जवाब दे। जैसे ही चुनाव आयोग ने पटना में राजद रैली के लिए सभी विशेष प्रबंध रोक देने का रेलवे को निर्देश जारी किया, लालू यादव ने अपना प्रस्तावित महारैला रद्द कर दिया।मुझे नहीं लगता कि चुनाव आयोग द्वारा चुनावी घूसखोरी के आरोप में रेलमंत्री के विरुद्ध एफ.आई.आर. दर्ज करने से वे कोई खास विचलित हुए होंगे। उन्होंने पहले भी इससे ज्यादा गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप झेले हैं। (हालांकि पहले कभी भी ऐसा मामला नहीं आया था जिसमें सबूत टेलीविजन पर दिखाए गए थे!) लेकिन जब चुनाव आयोग ने ठान लिया तो महारैला रद्द हो गया। (पटना की दीवारें भी अब ज्यादा साफ दिख रही हैं, क्योंकि चुनाव आयोग के अधिकारियों के पहंुचने से पहले ही दीवारों से, सरकारी इमारतों से रातोंरात राजद के पोस्टर हटाने का लालू ने आदेश जारी कर दिया था।)यह कोई पहली बार नहीं है जब लालू यादव और चुनाव आयोग सीधे टकराव की मुद्रा में हैं। उनके संघर्ष की कहानी 1995 में शुरू हुई थी। उन दिनों बेबाक टी.एन.शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त हुआ करते थे और आयोग ने कह दिया था कि बोगस मतदान रोकने का रामबाण तरीका मतदाता पहचान पत्र ही है। चुनाव आयोग ने बड़ा सख्त रुख अपनाया कि अगर किसी राज्य में पहचान पत्र नहीं बांटे गए तो वहां कोई चुनाव नहीं कराया जाएगा।आज की तरह उस समय भी बिहार कुशासन और चुनावी धांधलियों का पर्याय बना हुआ था। चुनाव आयोग के इस आदेश से हाशिए पर पहुंचे लालू यादव को मजबूरन मानना पड़ा कि यह काम समय रहते पूरा नहीं किया जा सकता। शेषन ठहरे शेषन, नहीं माने। 1996 की गर्मियों में आम चुनाव होने तय थे, इस स्थिति में देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य- यह झारखण्ड बनने से पहले की बात है-के अलग पड़ जाने की परिस्थिति पैदा होने लगी। तब मामला सर्वोच्च न्यायालय में भेजा गया।सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार को शंका का लाभ देने का फैसला लिया और चुनाव आयोग को बिहार को भी शामिल करके तय चुनाव कार्यक्रम पर अमल किए जाने का निर्देश दे दिया। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन इस कार्रवाई में सर्वोच्च न्यायालय से थोड़ी सी चूक हो गई- वह बिहार सरकार से फोटो पहचान पत्र बांटने की अंतिम तिथि के बारे में कोई वादा नहीं ले पाया। इस खींचतान के बाद 9 साल गुजर गए, क्या किसी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी बिहार में वह काम पूरा नहीं हुआ है? न ही इस बात का कोई संकेत है कि राजद रत्तीभर भी इसकी चिंता कर रहा है। मुझे लगता है कि इसी “सफलता” के कारण लालू यादव इतने बेफिक्र हैं कि वे जब चाहें चुनाव आयोग के काम में रोड़े अटकाने के लिए कानूनी प्रक्रिया को घुमा सकते हैं।कई बार लगता है कि यह ताजा संघर्ष भी उसी रास्ते पर बढ़ रहा है। चुनाव आयोग चाहे जितना हाथ-पैर पटक ले, पर लगता नहीं कि वे लालू यादव को पटरी पर ठहरा पाएगा। यह विश्वास ही शायद राजद के हौंसले बढ़ाता है और राजद के लोग अपने बचाव में कहते हैं- “ऊ तो एक रुपैया भी नहीं न लिए थे, देबे ही तो किए थे। अब इसे घूसवा तो न कहिएगा।” मैं इसे सर्वोच्च न्यायालय- तय है कि यह मामला वहीं पहुंचेगा- पर ही छोड़ता हूं, वही इसे सुलझाए। इस बात का संकेत साफ है कि लालू यादव एंड कम्पनी एक और कार्यकाल जीतेगी। लेकिन यह प्रकरण एक तथ्य तो रेखांकित करता ही है कि भारतीय राजनीति का यह हंसोड़ व्यक्ति मतदाताओं में अपने प्रभाव को लेकर थोड़ा असुरक्षित महसूस कर रहा है। क्या अपनी सभाओं में “भारी भीड़” के लिए उन्हें वास्तव में पैसा बांटने और रेलवे को विशेष रेलगाड़ियां चलाने का निर्देश देने की जरूरत आन पड़ी है? अगर हां, तो उनके द्वारा खुद को “बिहार के कर्ता-धर्ता” कहने के बारे में क्या संकेत जाता है?” लोकनायक की सभाएं उस समय की सरकार के लाख षड्यंत्रों के बाद भी बहुत सफल रहती थीं। उनके शिष्य, लगता है, उसी सरकारी तंत्र की मदद के बिना अपनी सफलता दर्ज नहीं करा सकते। (22.12.2004)NEWS

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