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जनरल की "पप्पी-झप्पियों" पर पाकिस्तान के जमाते इस्लामी (मौदूदी) नेता हैदर फारुक मौदूदी ने कहा-

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Jan 5, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jan 2005 00:00:00

जो 96 प्रतिशत वोट से आने वाले पूर्वी पाकिस्तान को नहीं संभाल सके, वो कश्मीर क्या खाक संभालेंगे?हैदर फारुक मौदूदीहैदर फारुक मौदूदी पाकिस्तान के एड्ढ प्रसिद्ध इस्लामिक राजनीतिक नेता और विद्वान हैं। उनके पिता मरहूम मौलाना मौदूदी अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के सर्वमान्य इस्लामी विद्वान और जमायते इस्लामी के संस्थापक थे। हैदर फारुक बेबाक, बिंदास और हिम्मत के साथ अपनी बात करने के लिए जाने जाते हैं। वे कहते हैं, मुझे किसी फौजी हुक्मरान से कभी डर नहीं लगा। जाना तो हरेक को एक दिन है। फौजी नाराज हो जाएंगे तो ज्यादा से ज्यादा दो दिन पहले ही रुखसत हो जाएंगे। पाञ्चजन्य के सम्पादक तरुणविजय ने उनसे लाहौर में विभिन्न मुद्दों पर बेबाक बातचीत की, जिसके मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं।पाकिस्तान के सदर जनरल परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा ने शांति और मोहब्बत की बड़ी सारी बातें माहौल में फैलाई हैं। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?वैसे तो असली बात तब खुलेगी जब पता चलेगा कि जनरल साहब दिल्ली में क्या करके आए हैं। कारगिल के बाद वे वहां क्या करके आए हैं, इसका अंदाजा बाद में ही होगा। पाकिस्तान की फौज अगर हिन्दुस्थान के साथ अमन की बात सोचने लगे तो अमन कायम हो सकता है, क्योंकि अगर गैर फौजी सियासी लीडर बातें करते तो अब तक फौज उनका तख्ता पलट चुकी होती। इस पूरे माहौल को बनाने में अमरीका भी अपना रोल अदा कर रहा है। वह भी किसी मकसद के साथ ऐसी बातें कर रहा है। और अमरीका जनरल परवेज मुशर्रफ को बहुत सोच-समझकर ही सदर की कुर्सी पर लाया है।जनरल मुशर्रफ कश्मीर के बारे में पूरा ध्यान लगाते रहे। कश्मीर को मुख्य मुद्दा बनाकर वे कहां तक जा पाएंगे?इस बारे में तो मैं शुरु से एक ही बात करता आया हूं कि जो पाकिस्तानी हुक्मरान 96 फीसदी वोट के साथ पाकिस्तान से जुड़ने वाले मगरबी (पूर्वी पाकिस्तान) को अपने साथ नहीं रख सके तो ऐसे पाकिस्तानी हुक्मरान क्या खाक कश्मीर को अपने साथ रखेंगे। ऐसी हालत में पाकिस्तान के हुक्मरान की क्या कीमत रह गई, वे किस मुंह से कश्मीर की बात करते हैं?पाकिस्तान में फौजी हूकुमत में इस तरह की बेबाक बात करते हुए आपको डर नहीं लगता?मुझे किस बात का डर लगेगा। इस 60 साल के बुड्ढे को एक दिन तो जाना ही है। दो दिन पहले चला जाऊंगा, बस इतना ही होगा (अगर फौजी हुक्मरानों ने कोई कार्रवाई की तो)।आप कुछ अपने बारे में बताएं और पाकिस्तान की सियासत से आप कैसे जुड़े?मैं बहुत ही जाहिल आदमी हूं और ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं। अपने वालिद के इंतकाल के बाद थोड़ा-बहुत सियासत में भी हिस्सा ले रहा हूं। जमायते इस्लामी मौलाना मौदूदी के नाम से जमायते इस्लामी का एक संगठन मैंने बना रखा है। उसी के जरिए सियासी काम करता हूं। लेकिन चूंकि पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम है इसलिए असली सियासत तो फौजी की कर सकते हैं या वो लोग कर सकते हैं जो फौज के साथ शामिल हो जाएं।आप जमायते इस्लामी के जिस परचम को थामे हुए हैं उसका जनता पर कितना असर है? आपके काम में क्या फौजी रुकावट भी डालते हैं?पाकिस्तान में फौज उसी को सियासत करने देती है जो फौज के साथ हो, बाकी के लिए यहां कोई जगह नहीं है। मैंने पहले भी कहा है कि हमारे यहां सिर्फ एक पद है जो सारे मामले तय करता है। बाकी किसी को कोई हक नहीं है, न अवाम को न पार्लियामेंट को। मुशर्रफ साहब जिस दिन चाहेंगे हिन्दुस्थान से सारे मामले तय कर लेंगे। उन्हें कोई रोकने वाला नहीं है। नहीं चाहेंगे तो नहीं करेंगे, सिर्फ बातें करते रहेंगे।पाकिस्तान में इस्लामी हुकूमत है और फौज के भी सर्वेसर्वा मुशर्रफ साहब हैं। फिर अमन के लिए सबको साथ चलने में क्या दिक्कत है?मुशर्रफ साहब को खुद मालूम है कि वे चुने हुए हुक्मरान नहीं हैं। उन्होंने तो फौजी ताकत से हुकूमत पर कब्जा किया हुआ है। उनके सामने कोई बोल नहीं सकता है। जो उनके सामने फौज में बोलता है उनको रिटायर कर देते हैं या जेल में धकेल देते हैं। जो सियासतदान (राजनेता) उनके मनमाफिक नहीं बोलता है उसको वो तरह-तरह के मामलों में फंसा देते हैं। बेनजीर भुट्टो वगैरह को भी मुल्क में कुछ करने नहीं दिया जाता। सिर्फ एक आदमी है-परवेज मुशर्रफ, जो यह तय करता है कि मुल्क में किसे आने दिया जाएगा, किसे नहीं। नवाज शरीफ साहब के वालिद साहब (पिता जी) गुजर गए थे, उस मौके पर भी नवाज शरीफ साहब को यहां आने नहीं दिया गया।आपको लगता है कि परवेज मुशर्रफ साहब को पाकिस्तानी जनता का समर्थन हासिल है?किसी भी फौजी हुक्मरान को अवाम का समर्थन हासिल नहीं होता इसलिए वे अपनी वर्दी उतारने और सिविल ड्रेस पहनने के लिए तैयार नहीं होते। जनरल मुशर्रफ ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं ताकि वे अमरीका को यह बता सकें कि अगर मैं यहां से हिलता हूं तो फिर यहां कोई अमरीकी वफादार मिलेगा नहीं। देखिए, जब अयूब खान ने 1958 में पाकिस्तान में फौजी मार्शल ला लगाया था तो उससे पहले अमरीका ने पाकिस्तान में अपने जहाजों के लिए अड्डा मांगा था। उस समय फिरोज खां नून वजीरे आजम थे, उन्होंने मनाकर दिया और कहा कि हमारी पार्लियामेंट उसको मंजूर नहीं करेगी। तब अयूब खान साहब ने अमरीका से कहा कि आप हमें हुक्मरान बनने दें, सियासी ताकत हमारे हाथ में आ जाएगी तो हम आपको अड्डा दे देंगे। अमरीका ने उनका साथ दिया और अयूब खान साहब ने तख्ता पलट कर फौजी मार्शल ला लागू कर दिया तथा अमरीका को हवाई जहाजों के लिए अड्डा दे दिया। जहां से वे रूस की जासूसी के लिए यू-2 विमान उड़ाते रहे। लेकिन बाद में “65 की लड़ाई में अयूब खान साहब को अमरीका से जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हुई। उसके बाद जब वे तुर्की गए तो वहां उन्होंने कहा कि अमरीका भरोसेमंद दोस्त नहीं है। हमें अपने सारे अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखने चाहिए और चीन से भी बातचीत करनी चाहिए। तुर्की ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अयूब खान तुर्की से ईरान गए और वहां शाह ईरान को यह बात बताई। शाह ईरान ने उनकी बात का समर्थन नहीं किया और कहा, ऐसा बिल्कुल मत करना। उन्होंने यह बात अमरीकी राजदूत को भी बता दी। ईरान से अयूब खान सउदी अरब में जेद्दा गए, जहां शाह फैसल से यह बात की। उन्होंने भी अयूब खान को ऐसा करने से रोका और अमरीका के साथ ही रहने की सलाह दी। अभी अयूब खान साहब वापस पाकिस्तान लौटे भी नहीं थे कि अमरीकी राजदूत ने यहां मीटिंगें कर लीं। कई जमातों को पैसे फरमान कर दिए गए और “अयूब कुत्ता, हाय-हाय” के नारे लगवा दिए गए। याहिया खान तो पहले से ही तैयार बैठे थे। बस उन्होंने सत्ता संभाल ली।अब तो अमरीका पाकिस्तानी जमीन पर जम गया है?वो तो हमेशा से ही यहां जमा रहा है। उसी के कहने से यहां की सियासत चलती रही। उसी की ले बलाएं, उसी को दे दुआएं। अभी भी पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान इस उम्मीद में हैं कि अमरीका और बरतानिया (ब्रिटेन) कश्मीर मसले पर मध्यस्थता का रोल अदा करेंगे। पर मैंने हमेशा इसकी मुखालफत की है और कहा है कि अमरीका, बरतानिया और यू.एन.ओ. को इस मामले में डालना गलत है। क्योंकि बरतानिया ही था, जिसने हिन्दुस्थान को तोड़ा वरना हमारा और हमारे मरहूम वालिद मौलाना मौदूदी साहब का भी यह कहना था कि हम हिन्दुस्थान में अक्लियत (अल्पसंख्यक) नहीं हैं, हम दूसरी बड़ी अक्सरियत (बहुसंख्यक) हैं। वहां कोई फैसला हमारी मंजूरी के बिना नहीं हो सकता। हिन्दुस्थान में हर जगह हमारी तामीर की हुई र्इंट लगी हुई है और हमें अल्पसंख्यक का दर्जा बिल्कुल कबूल नहीं। जो मामले हम खुद तय कर सकते हैं उसको कोई दूसरा कैसे तय कर सकता है।(अगले अंक में पढ़ें- इस साक्षात्कार की अगली कड़ी- हिन्दुस्थान के बंटवारे से मुसलमानों को क्या मिला? वे तबाह हुए या आबाद हुए। पाकिस्तान बंटेगा या बढ़ेगा? भारत और पाकिस्तान में अमन के लिए कौन सा रास्ता ठीक है?)NEWS

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