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मुस्लिम कट्टरता के विरुद्ध लामबंद यूरोप

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Jan 5, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jan 2005 00:00:00

मुजफ्फर हुसैनकेम्प डेविड समझौते के पश्चात इस्रायल और अमरीका आतंकवाद को समाप्त करने के लिए इस्लामी पुस्तकों में परिवर्तन करना अनिवार्य मान रहे हैं और इस ओर कोशिशें भी शुरू हो चुकी हैं। इसी वजह से मुस्लिम राष्ट्रों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में क्रांतिकारी परिवर्तन स्वयं उन देशों की सरकारों द्वारा किए जा रहे हैं। मदरसों में पढ़ाई के बहाने जिस आतंकवाद और जिहाद की शिक्षा दी जाती है, उस पर अंकुश लगाने का आन्दोलन जारी है। कुरान के समानान्तर “अलफुरकान” नामक पुस्तक को कुरान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कुवैत जैसे देशों ने तो अपने मदरसों में इसे पढ़ाना भी शुरू कर दिया है। तीन डालर मूल्य की यह पुस्तक बाजार में धड़ल्ले से बिक रही है। लेकिन अब यूरोप के देश मस्जिदों पर भी धावा बोल रहे हैं। उनका मानना है कि मस्जिदों का स्वतंत्र अस्तित्व आतंकवादियों को बल देता है, इसलिए मस्जिदों पर सरकारी नियंत्रण बहुत जरूरी है। फ्रांस में 2003 में अल्जीरियाई वंशज वलेल अबूबकर ने शासकीय प्रेरणा के आधार पर मुस्लिम काउंसिल नामक संगठन की स्थापना की है। काउंसिल में उदारवादी मुसलमानों को सदस्य बनाया जाए, इस पर सरकार का मानना है कि जब उसमें स्थायित्व आ जाएगा तब उसके प्रतिनिधियों को संसद में मनोनीत कर दिया जाएगा। वलेल अबूबकर फ्रांस की एक मस्जिद के इमाम भी हैं। सरकार का मानना है कि एशिया से आने वाले इमाम अपने साथ कट्टरता और आतंकवाद लेकर आते हैं। इसलिए फ्रांस में जन्मे और यहीं की संस्कृति में पले-बढ़े मुसलमान जब मस्जिदों के इमाम बनेंगे तो उनके लिए फिर इस्लाम का कट्टरवादी स्वरूप समस्या नहीं रहेगा, क्योंकि उनके द्वारा इस्लाम को यूरोपीय संस्कृति में ढाल दिया जाएगा। उसके लिए फ्रांस के मुस्लिमों को फ्रांसीसी संस्कृति में शामिल होने को बाध्य करना पड़ेगा। इन इमामों का प्रशिक्षण फ्रांस में ही हो और वे फ्रांसीसी भाषा में नमाज के पश्चात अपनी मजहबी तकरीर दें, इसकी व्यवस्था करनी होगी। सरकार मुस्लिम काउंसिल द्वारा भविष्य के इमामों को तैयार करा रही है। जब उनकी पर्याप्त संख्या हो जाएगी तब वे बाहर के इमामों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा देंगे। इमाम के लिए फ्रांस की नागरिकता पहली आवश्यकता होगी। फ्रांस की सरकार का मानना है कि इस्लाम उनके यहां प्रतिबंधित नहीं होगा, लेकिन वह अरबी संस्कृति में ढला इस्लाम नहीं होगा।अमरीकी पत्रिका “न्यूज वीक” की रपट के अनुसार स्विट्जरलैंड से डेनमार्क तक यूरोप में अब यह महसूस किया जाने लगा है कि वहां के मुसलमानों को उसी देश की संस्कृति अपनानी होगी और उन देशों की स्थानीय भाषा में ही अपना कामकाज करना होगा। उनके लिए अपने देश के मुसलमानों को अरबी संस्कृति से दूर करके स्वदेशी भावना में विकसित करना ही आतंकवाद से दूर रहने का एकमात्र विकल्प है। स्कूलों में मुस्लिम जिस प्रकार अरबी शैली अपनाते हैं, उससे बालकों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। समानता का भाव नहीं रहता, सर को ढंकने के नाम पर स्कार्फ बांधना उनके लिए आवश्यक हो सकता है, लेकिन उस देश की सरकार के लिए कदापि नहीं।यूरोप में मस्जिदों पर लगाम लगाने की मुहिमनीदरलैण्ड में इस्लामी कट्टरवाद के विरुद्ध प्रदर्शननवम्बर, 2004 में नीदरलैण्ड के एक लेखक का मोरक्को वंशज पुरातनवादी मुसलमान ने कत्ल कर दिया था। उक्त घटना के बाद मुसलमानों पर नीदरलैण्ड के मूल निवासियों के हमले बढ़ते जा रहे हैं। पिछले चार माह में इस प्रकार की 174 घटनाएं घटी हैं। स्विट्जरलैंड के बिशप सहित डेनामार्क के मंत्रिमंडल ने यह घोषणा की है कि इसी स्थिति में वे विदेश से आने वाले मौलानाओं और इमामों को न तो वहां की नागरिकता देंगे और न ही उनको मजहब के प्रचार-प्रसार का कार्य करने देंगे। यूरोप के हर देश ने अपने पंथ को संविधान में स्पष्ट कर दिया है। लगभग सभी देश ईसाई हैं।लेकिन काउंसिल ऑफ मुस्लिम्स जैसे संगठनों का यह कहना है कि फ्रेंच, डच, जर्मन, ब्रिटिश मुस्लिम-जिनकी पांच-छह पीढ़ियां उन देशों में हो गई हैं, वे इस योग्य नहीं हैं कि इमाम बन सकें अथवा मदरसे में किसी भी प्रकार की तालीम दे सकें। उनका अरबी उच्चारण और कुरान पढ़ने तथा पढ़ाने का तरीका भी ठीक नहीं होता। इसलिए यूरोपीय देश अपने यहां जन्मे मुस्लिमों को कोई मजहबी काम नहीं करने देते। रमजान में नमाज पढ़ाने वाले की सख्त आवश्यकता होती है इसलिए एक – डेढ़ माह के लिए वे किसी भी एशियाई देश के मुल्ला को बुला लेते हैं। शुक्रवार की नमाज के पश्चात अब उर्दू अथवा अरबी में तकरीर नहीं दी जा सकेगी। जिस देश में वे रहते हैं, उसकी मूल भाषा में उन्हें यह सब करना होगा। मुल्लाओं के अल्प समय के लिए आगमन पर भी सख्त पाबंदी लगा दी गई है। यूरोपीय देशों की सरकारों का यह अनुभव है कि अल्प अवधि के लिए वहां आने वाले मौलाना अपने पांव पसार लेते हैं। वे येन-केन-प्रकारेण वहां किसी मस्जिद के स्थाई इमाम बन जाते हैं इसलिए इस प्रणाली को वे हमेशा के लिए समाप्त कर रहे हैं। यूरोप के देशों ने अब इस्लामी साहित्य उसी देश की भाषा में छापने का निर्णय लिया है। यदि कुरान का जर्मनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, इतालवी, पुर्तगाली, फ्रंेच अथवा जो भी उस देश की भाषा है में अनुवाद नहीं है तो वे मदरसे में उसे पढ़ाने नहीं देंगे।जर्मनी में तुर्क वंशज मुसलमानों के 4,300 बच्चे मदरसों में पढ़ते हैं। उन्हें तुर्क भाषा में ही इस्लाम का ज्ञान दिया जाता है। लेकिन अब वहां की सरकार ने इन मदरसों से कहा है कि वे अपनी पुस्तकों का अनुवाद जर्मन भाषा में करें और भविष्य में दी जाने वाली मजहबी शिक्षा केवल जर्मन भाषा में ही दें। स्पेन के गृह मंत्री ने मस्जिदों के लिए कानून-कायदों की घोषणा कर दी है। स्पेन में यह भी नियम कड़ाई से लागू किया जा रहा है कि नमाज की आवाज मस्जिदों के बाहर तक नहीं आनी चाहिए। मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि सामान्य दिनों में बहुत कम लोग नमाज पढ़ने के लिए आते हैं। यूरोप की मस्जिदों को सरकारी सम्पत्ति के अन्तर्गत लाया जा रहा है। नई मस्जिद बनाने की आज्ञा नहीं दी जाती। वहां की सरकार किसी भी प्रकार मस्जिदें और मौलानाओं पर शिकंजा कसना चाहती है। यूरोप के देशों में मतान्तरण के विरुद्ध कड़ा कानून है। फिर भी वहां चोरी छिपे मौलाना, इमाम और मुफ्ती यह काम करते रहते हैं। साफ है कि, आतंकवाद और जिहाद से मुक्ति के लिए यूरोप के देश साझा तरीके से कमर कस रहे हैं। वहां से यदि अब मुसलमानों का पलायन शुरू हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।NEWS

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