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नरेन्द्र कोहलीभक्त और भगवान”जिन्हें लेकर इतना आनंद है, शायद वे अब चल देंगे।” नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द का संन्यासपूर्व नाम) ने धीरे से कहा।”कैसी बातें करते हो तुम!” गिरीश झपटकर बोला, “मुख से निकालने से पहले शब्दों पर कुछ विचार तो कर लिया करो।””मैंने डाक्टरी ग्रंथ पढ़कर और अपने डाक्टर मित्रों से पूछकर जान लिया है कि ऐसा कंठ-रोग क्रमश: कैंसर में परिणत हो जाता है।” नरेन्द्र बोला, “आज रक्त आने की बात सुनकर ऐसा अनुमान होता है कि यह रोग भी कैंसर ही होगा। इस रोग की औषधि नहीं है।””मेरा मन नहीं मानता।” गिरीश बोला, “क्यों राम बाबू?””नरेन्द्र सत्य कह रहा है।” राम ने उत्तर दिया, “मैं साहसपूर्वक कह नहीं सका, नरेन्द्र ने कह दिया।””क्या उन्हें कलकत्ता ले आना संभव नहीं है?””हां! यह उचित रहेगा।” महेन्द्र गुप्त ने तत्काल समर्थन कर दिया।”और न केवल डाक्टरी इलाज, वरन होम्योपैथिक चिकित्सा भी कराई जाए” नरेन्द्र बोला।”पर कलकत्ता में लाकर उन्हें रखेंगे कहां?” देवेन्द्र ने पूछा।”एक मकान किराये पर ले लेंगे।” राम ने उत्तर दिया।”पर वे कलकत्ता आ जाएंगे?” नरेन्द्र ने जिज्ञासा की।”क्यों, वे अपना उपचार करवाना नहीं चाहेंगे क्या?” राम ने कहा, “और कलकत्ता उनके लिए कोई नया स्थान तो है नहीं। फिर हम सब लोग कलकत्ता में हैं।”मौन छा गया, जैसे सब लोग अपने-अपने मन में इस नई स्थिति संबंधी अनेक समस्याओं का समाधान कर रहे हों।”श्रीमां ने बताया था,” योगीन्द्र मोहिनी ने रुंधे कंठ से कहा, “ठाकुर ने उनसे बहुत पहले कहा था कि, “जब मैं किसी के भी हाथ का खाऊंगा, कलकत्ता में रात बिताऊंगा और खाद्य, अग्रभाग किसी को देकर बाकी अंश स्वयं ग्रहण करूंगा, तब जानना कि शरीर छोड़ने में अब अधिक विलंब नहीं है।””नरेन्द्र को जब अजीर्ण रोग हो गया था और वह बहुत दिनों तक दक्षिणेश्वर नहीं आया था।” शरत् ने कहा, “यह तब की ही बात है।””तुम अजीर्ण के कारण दक्षिणेश्वर नहीं गए थे?” गिरीश ने नरेन्द्र से जैसे स्पष्टीकरण मांगा।”मैंने सोचा कि दक्षिणेश्वर में पथ्य की असुविधा होगी- इसलिए नहीं गया था।” नरेन्द्र ने पुष्टि की, “ठाकुर ने प्रात: ही बुलवा लिया। तब श्रीमां ने उनके लिए भोजन तैयार करवाकर भिजवाया था। ठाकुर ने अपने लिए पका हुआ भात तथा तरकारी का रसा स्वयं न खाकर पहले मुझे दिया। मैंने खा लिया तो बचा हुआ अंश ठाकुर ने स्वयं ग्रहण किया।””इस पर श्रीमां ने आपत्ति की।” शरत् बोला, “उनसे कहा कि वे बचा हुआ अंश न खाएं, वे उनके लिए पुन: रसोई बना देंगी। पर ठाकुर ने चिंता नहीं की। बोले, “नरेन्द्र को अग्रभाग देने से मन में संकोच का अनुभव नहीं हो रहा था, इससे कोई दोष न होगा।” किन्तु श्रीमां को उनकी बहुत चिंता रही।””श्रीमां ने उन्हें स्मरण नहीं कराया कि उन्होंने ऐसा कहा था?” गिरीश ने पूछा।”स्मरण तो उसे कराया जाए, जिसे कुछ विस्मृत हुआ हो।” शरत् बोला, “ठाकुर को कुछ भी विस्मृत नहीं होता।””मुझे भी बताया गया है कि बहुत पहले एक बार ठाकुर ने कहा था”, महेन्द्र गुप्त ने कहा, “कि बहुत-से लोग जब मुझे ईश्वर के समान मानेंगे, श्रद्धा-भक्ति करेंगे, तभी इस शरीर का अंतर्धान होगा।””हां! कहा था ठाकुर ने यह सब।” गिरीश कुछ खीजकर बोला, “तो हम कुछ न करें? हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें?””एक-दूसरे पर खीजने और आपस में झगड़ने की कोई बात नहीं है।” नरेन्द्र बोला, “हम सब जानते हैं कि हम ठाकुर से कितना प्रेम करते हैं और हम उनके लिए सब कुछ करना चाहते हैं।” क्रमश:(पाक्षिक स्तम्भ)26
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