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मंथन

by
Nov 7, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Nov 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूपमीडिया को उसका चेहरा दिखाना ही होगाइस 15 जून को प्रात:काल गुजरात पुलिस ने मुम्बई-अमदाबाद राजमार्ग पर अमदाबाद के निकट एक नीली इंडिका कार में चार आतंकवादियों को एक मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया। इनमें एक 18-20 साल की युवती भी थी। ये चारों मुस्लिम आतंकवादी कौन थे? उनका इरादा क्या था? लक्ष्य कौन था? इस पर पाञ्चजन्य के पिछले अंक (4 जुलाई) में काफी विस्तृत खोजपूर्ण सामग्री प्रकाशित हुई है। साथ ही तटस्थ एवं प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक “हिन्दू” ने 26,27 व 28 जून को रक्षा विशेषज्ञ प्रवीण स्वामी की एक लम्बी तथ्यात्मक रपट तीन किश्तों में प्रकाशित की है। यह रपट भारत सरकार के गुप्तचर ब्यूरो द्वारा संकलित सामग्री एवं दस्तावेजों पर आधारित है। इस रपट में बताया गया है कि जिहादी तत्वों का गुप्त संजाल पूरे देश में बिछा हुआ है। गुजरात, जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के आतंकवादी तार आपस में जुड़े हुए हैं। गुजरात का कोई मुस्लिम वकील गुजराती मुस्लिम युवकों को कश्मीर में आतंकवाद का प्रशिक्षण दिलाने की पूरी व्यवस्था करता है, कोई गुजराती “ट्रांसपोर्टर” आतंकवादी गिरोहों के मुखौटे के रूप में काम करता है। प्रवीण स्वामी की खोज बताती है कि मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों पर गुप्तचर ब्यूरो की नजर छह महीने से लगी हुई थी। प्रवीण स्वामी की इस रपट की पुष्टि 27 जून को श्रीनगर में एक प्रेस सम्मेलन बुलाकर जम्मू-कश्मीर राज्य के पुलिस महानिदेशक गोपाल शर्मा ने की। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि पिछले छह महीने से तीन आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोइबा, हिज्बुल मुजाहिदीन और अल उमर मुजाहिदीन आपस में मिलकर पूरे भारत में “मुम्बई स्टाक एक्सचेंज” जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक और प्रशासनिक संस्थानों तथा महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों पर आक्रमण का षडंत्र रचने में लगे हुए थे। उन्होंने अलग-अलग प्रकार की गतिविधियों के लिए अलग-अलग दल गठित किए थे, जिनको हसन, उस्मान और रहमान जैसे नाम दिए गए थे। इनमें फिदायीन (आत्मघाती) दस्ता सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इन सब जिहादी संगठनों एवं दस्तों का सूत्र संचालन पाकिस्तान से होता है। गुप्तचर ब्यूरो ने लम्बी जांच-पड़ताल और चौकसी के बाद बड़ी चतुराई से एक दल के 20 आतंकवादियों को गिरफ्तार करने में सफलता पायी। उनके दो पाकिस्तानी सरगना शाहिद अहमद उर्फ जुलू एवं जाहिद हफीज उर्फ नदीम पुलिस कैद से भागने की कोशिश करते समय मारे गए। और इस प्रकार एक खतरनाक आतंकवादी गिरोह का सफाया करने में जम्मू-कश्मीर पुलिस सफल हुई। पुलिस महानिदेशक गोपाल शर्मा ने सबसे महत्वपूर्ण जानकारी यह दी कि आतंकवाद का यह ताना-बाना पूरे देश में फैला हुआ है। और 15 जून को गुजरात पुलिस द्वारा मारे गए आतंकवादियों में से एक जम्मू-कश्मीर से वहां गया था। वैसे ये तीनों जिहादी संगठन “कश्मीर बचाओ आन्दोलन” के झंडे को सामने रखकर काम करते हैं किन्तु उनका कार्यक्षेत्र पूरा भारत है और पूरे भारत में उनके संगठन का जाल बिछा हुआ है। पाठकों को शायद स्मरण हो कि कई महीने पहले यह तथ्य सामने आया था कि अमदाबाद के अक्षरधाम मंदिर पर आतंकवादी हमले का षडंत्र भी कश्मीर में ही रचा गया था और एक कश्मीरी आतंकवादी को इस सम्बंध में गिरफ्तार भी किया गया था।नरभक्षी आतंकवादये सभी घटनाएं, समाचार और खोजपूर्ण रपटें बहुत डराने वाली हैं। इसका अर्थ है कि पूरा देश आतंकवाद के ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है जो कभी भी, कहीं भी अनायास फट सकता है। और सैकड़ों-हजारों निर्दोष, असावधान, भोले भारतवासियों को अपनी ज्वालाओं में भस्म कर सकता है, बिल्कुल 27 फरवरी, 2002 के गोधरा नरमेध के नमूने पर। निर्दोषों का खून पीने वाला यह नरभक्षी आतंकवाद पूरे राष्ट्र का शत्रु नहीं है? उसके विरुद्ध संघर्ष करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य और संकल्प नहीं होना चाहिए? क्या सभी राजनीतिक दलों को नेतृत्व, कार्यक्रम और वैचारिक शब्दावली के भेदों के बावजूद आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में कन्धे से कन्धा भिड़ाकर नहीं खड़ा होना चाहिए? किन्तु भारतीय राजनीति का चरित्र एवं स्वर इस समय इतना गिर चुका है कि आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्र को सचेत करने, एकजुट करने और संकल्पबद्ध करने के बजाय हमारे राजनीतिज्ञ आतंकवाद की विभीषिका की आग पर अपनी व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा एवं दलीय स्वार्थों की रोटी सेंकने में लगे हुए हैं। भाजपा की राजनीतिक शक्ति की वृद्धि को अपने दलीय एवं व्यक्तिगत स्वार्थों की राह का रोड़ा समझकर वे भाजपा की नाक काटने के लिए वे आतंकवादी घटनाओं की निन्दा करने के बजाय हिन्दू समाज को अपराधी घोषित कर देते हैं। आखिर, गोधरा नरमेध की वास्तविक कहानी पर प्रश्नचिन्ह लगाकर वे क्या प्राप्त करना चाहते हैं? वकील बुद्धि से बाल की खाल निकालकर वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं? क्या यह कि अयोध्या से वापस लौट रहे रामसेवकों से भरी हुई साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 कोच में आग साम्प्रदायिक हिंसा के लिए लम्बे समय से कुख्यात फालिया सिगनल के निवासियों ने नहीं, स्वयं रामसेवकों ने लगा दी। उन्होंने ही अपने 59 स्वजनों का नरमेध रचाया और वह भी केवल इसलिए कि गोधरा के नरमेध को बहाना बनाकर वे पूरे गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसा का दावानल सुलगा सकें, ताकि आगामी विधानसभा चुनावों में सफलता उनके चरण चूमे। कितना घिनौना सोच है। ऐसे घिनौने सोच को जन्म देने वाली मानसिकता को समझना बहुत आवश्यक है। ऐसे मस्तिष्क चुनावों को जीतने के लिए क्या कुछ नहीं करते होंगे, इसका अनुमान लगाना हमारे जैसों के लिए बहुत कठिन है। रेलमंत्री बनते ही लालू यादव ने पहली घोषणा गोधरा की फाइल खोलने की की। शहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दीन जैसे अपराधी तत्वों के कंधों पर सवार लालू यादव की मानसिकता और राजनीति का यह जीता-जागता प्रमाण है। अपने मुस्लिम वोट बैंक को बनाए रखने के लिए भाजपा और संघ परिवार को पानी पी-पीकर गालियां देना ही उनकी एकमात्र राजनीतिक विचारधारा है। आतंकवादियों की वकालत करना उनकी राजनीतिक मजबूरी बन चुकी है। इसीलिए 15 जून की घटना में पुलिस के कथन पर प्रश्नचिन्ह लगाना उनके लिए आवश्यक था। शर्म की बात तो यह है कि गुजरात का कांग्रेसी नेतृत्व भी गुजरात में दंगों के इतिहास और उनमें कांग्रेस की भूमिका को भूलकर केवल भाजपाद्वेष से प्रेरित होकर अपनी प्रत्येक प्रतिक्रिया का निर्धारण करता है। अन्यथा, क्या कारण है कि गुजरात के कांग्रेसी नेता अमरसिंह चौधरी जो विधानसभा में विपक्ष के नेता भी हैं, सब तथ्यों के सामने होने पर भी घटना के दूसरे दिन ही संवाददाता सम्मेलन बुलाकर इस मुठभेड़ को फर्जी घोषित कर देते। नरेन्द्र मोदी के प्रति उनके द्वेषभाव को देखकर लगता है कि यदि कोई आतंकवादी नरेन्द्र मोदी की हत्या कर दे तो ये घी के दिए जलाएंगे, सड़कों पर लड्डू बांटेंगे।मारे गए आतंकवादियों में से इशरत जहां रजा नामक युवती मुम्बई के ठाणे क्षेत्र में एक मुस्लिम बस्ती मुंब्रा की निवासी थी। मुंब्रा की 6 लाख की आबादी में से 85 प्रतिशत जनसंख्या मुस्लिम है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अबू आजमी, पूर्व कांग्रेसी मंत्री हुसैन दलवाई एवं जमाते इस्लामी के नेताओं ने पहले दिन से ही इशरत को आतंकवादी गतिविधियों से दूर एक सीधी-सादी, मासूम, पढ़ाकू, घरेलू छात्रा के रूप में चित्रित करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने पुलिस को एक निर्दोष बालिका का हत्यारा घोषित कर दिया। सी.बी.आई. द्वारा जांच की मांग उठानी शुरू कर दी। इशरत के परिवार की गरीबी को खूब उछाला गया। अबू आजमी और जमाते इस्लामी के नेता इशरत की मां शमीमा को लेकर अमदाबाद गए। इशरत का शव मुंब्रा लाया गया जहां हजारों मुसलमानों की भीड़ के सामने उसे दफनाया गया। इशरत को शहादत का ताज पहनाया गया। मुस्लिम भावनाओं के इस ज्वार से प्रभावित होकर आगामी विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के उद्देश्य से शरद पवार के दाहिने हाथ और महाराष्ट्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष वसंत देवखरे ने नाटकीय प्रदर्शन के साथ एक लाख रुपए का चेक इशरत के शोक-सन्तप्त और जीविकारहित परिवार की सहायता हेतु उसकी मां शमीमा को भेंट कर दिया। बाद में शायद मुस्लिम नेताओं के दबाव पर शमीमा ने वह चेक वापस कर दिया।मीडिया का धर्मभारत के राजनीतिक दलों एवं नेताओं से तो इससे बेहतर प्रतिक्रिया की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। किन्तु लोक जागरण और लोक शिक्षण की मुख्य जिम्मेदारी तो मीडिया की है। यह मीडिया का पेशागत धर्म है कि वह अपनी सतर्क आंखों से सतह के नीचे पल रहे राष्ट्रविरोधी तत्वों, षडंत्रों और गतिविधियों की पूरी जानकारी रखे, अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में व्यस्त जनता को उनके प्रति आगाह करे, जनता में आतंकवाद से लड़ने का हौंसला व संकल्प जगाए। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मीडिया का एक प्रभावशाली वर्ग अपने इस राष्ट्रीय एवं पेशागत कत्र्तव्य को भूल गया है, वह स्वयं भी राजनीतिक रागद्वेष का बन्दी बन गया है और देश में चल रही सत्ता-राजनीति में स्वयं भी एक पक्ष बन बैठा है। अन्यथा, क्या कारण है कि मीडिया का यह वर्ग हमेशा आतंकवादियों की पीठ पर और राष्ट्र के सुरक्षा बलों के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। शायद अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का लोकतन्त्रीय अधिकार का कार्य हमारे मीडिया की दृष्टि में हर जगह पुलिस को कठघरे में खड़ा करना भर रह गया है। पुलिस को गाली देने में ही वह अपनी बहादुरी समझता है। वैसे ऐसे अनेक उदाहरण हंै कि जब कभी मीडिया को मजहबी जुनून का सामना करना पड़ता है। मुस्लिम कट्टरवादियों ने उसके कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किए हैं, पत्थर बरसाए हैं तब यही “बहादुर” मीडिया उनके सामने “मुर्गा” बनकर माफी मांगता दिखाई दिया है, बंगलूर में इंडियन एक्सप्रेस स्वयं ऐसा लज्जाजनक दृश्य प्रस्तुत कर चुका है।मीडिया का पूर्वाग्रह और द्वेषभाव कितना गहरा है, इसका उदाहरण 16 जून को टाइम्स आफ इंडिया में देखा जा सकता है। 15 जून की मुठभेड़ की घटना के तथ्यों को प्रस्तुत करने के बजाय टाइम्स आफ इंडिया ने एक टिप्पणीनुमा समाचार प्रकाशित किया जिसका सारांश है कि नरेन्द्र मोदी की गद्दी को बचाने के लिए यह मुठभेड़ का नाटक रचा गया। टाइम्स आफ इंडिया जिसे टाइम्स आफ सेक्स कहना ज्यादा समीचीन होगा, ने गुजरात में पिछली सब आतंकवादी घटनाओं को भी इसी श्रेणी में रखा। अर्थात्, टाइम्स आफ सेक्स (क्षमा करें, इंडिया) की दृष्टि में गुजरात में मुस्लिम कट्टरवाद और आतंकवाद नहीं है वहां केवल पुलिस ही आतंकवादी है। एक सप्ताह के भीतर मुम्बई पुलिस, महाराष्ट्र का गुप्तचर विभाग, इशरत की डायरी, उसकी मां का खुद का बयान, इशरत और जावेद के घनिष्ठ सम्बंधों के प्रमाण, भोली-भाली, सीधी-सादी इशरत का कई-कई दिन के लिए घर से गायब रहना, उसका तीन-चार बार जावेद के साथ अमदाबाद आना, जावेद की अपराधी पृष्ठभूमि आदि सब तथ्य प्रकाश में आ जाने के बाद भी टाइम्स आफ इंडिया 24 जून के अपने संपादकीय में पुलिस की आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को “मानवाधिकार का उल्लंघन” घोषित कर देता है। अन्य सभी अखबारों ने 17 जून से ही पहले पन्ने पर इशरत की मासूमियत की छवि बनानी शुरू कर दी। उसकी मां ने कहा, “मेरा जावेद से कोई सम्बंध नहीं था, मैं जावेद को जानती भी नहीं”। पर बाद में पता चला कि जावेद कई वर्ष मुंब्रा में उनका पड़ोसी था, इशरत के दिवंगत पिता का परिचित था।आतंकवादियों की जेब में मीडियाइशरत को मासूमियत की छवि ओढ़ाकर मीडिया का कहना था कि ऐसी भोली-भाली मासूम लड़की किसी आतंकवादी गिरोह की सदस्य हो ही नहीं सकती। मानो आतंकवादी के सिर पर सींग होते हों, उसके दांत बाहर निकले होते हैं, उसके नाखून बड़े-बड़े, खूंखार चेहरा। इसके बिना कोई आतंकवादी हो ही कैसे सकता है? मीडिया ने अपने प्रचार के द्वारा इशरत को तो देवी और शहीद बना दिया और पुलिस को राक्षस व खलनायक घोषित कर दिया। भला हिन्दुस्तान टाइम्स अब टाइम्स आफ इंडिया से क्यों पीछे रहता? वह हर जगह अपने को टाइम्स से आगे दिखने पर तुला हुआ है। उसने 18 जून को पूरे सात कालम के समाचार में पुलिस मुठभेड़ को झूठ और इशरत को निर्दोष सिद्ध कर डाला। इंडियन एक्सप्रेस ने जावेद के बचाव में कई कहानियां 18 जून को प्रकाशित कर डालीं। एशियन ऐज ने 17 जून से ही इशरत का महिमामंडन आरम्भ कर दिया। कितनी विचित्र स्थिति है कि पिछले पन्द्रह दिनों की खोजबीन ने उस प्रत्येक तथ्य को प्रमाणित किया है, जिन्हें इंडियन एक्सप्रेस ने पहले दिन ही अर्थात् 16 जून को प्रकाशित किया था। फिर भी ये उन तथ्यों को झुठलाते रहे। बहुत अच्छा हो कि स्वयं को राष्ट्रीय कहने वाले इन लोकतंत्र के प्रहरियों का वास्तविक चेहरा उनके अपने दर्पण में उन्हें दिखाया जाए। अमदाबाद मुठभेड़ पर उनके समाचारों की कतरनें तिथिवार एक फलक पर चिपकाकर उन्हें और देशवासियों को दिखायी जाएं। ताकि वे जान सकें कि अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का वे किस प्रकार दुरुपयोग कर रहे हैं, किस प्रकार वे आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, और देश का मनोबल खंडित कर रहे हैं। मीडिया अपने व्यापक प्रमाण के कारण यदि लोकतंत्र का सजग सशक्त प्रहरी हो सकता है तो राजनीतिक रागद्वेष और पूर्वाग्रहों का बन्दी होकर लोकतंत्र का शत्रु भी बन सकता है। मीडिया को उसके कत्र्तव्य का बोध कराना देशभक्त नागरिकों का परम कत्र्तव्य है। मीडिया को भस्मासुर बनने से रोकना ही होगा। इसके लिए आवश्यक है कि इंडियन एक्सप्रेस जैसे पत्र द्वारा पहले पन्ने पर प्रकाशित समाचारों के चयन, प्रस्तुति, शीर्षकों आदि की गहन समीक्षा की जाए। इससे उसके संवाददाताओं के राजनीतिक एवं मजहबी रुझान को आसानी से समझा जा सकता है। कभी-कभी लगता है कि मीडिया का एक वर्ग पूरी तरह आतंकवादियों की जेब में चला गया है। उसे मुक्त कराना ही होगा। (2-7-2004)38

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