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पुस्तक समीक्षा<p style=font-weight:bold;text-align:

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Nov 7, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Nov 2004 00:00:00

पुस्तक समीक्षा

नई पीढ़ी तक रामकथा

पुस्तक का नाम यथार्थ रामायण

सम्पादन व संक्षेपण कर्ता डा. सीतेश आलोक

पृष्ठ संख्या 500

मूल्य 500 रु.

प्रकाशक मेधा बुक्स, एक्स-2, नवीन

शाहदरा, दिल्ली-110032

रामायण और महाभारत की कथाएं सदियों से साहित्यकारों को अपने-अपने ढंग से आकर्षित करती रही हैं, क्योंकि ये दो कथाएं भारतीय संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के मूलाधार हैं। इसलिए जागरूक और दूरद्रष्टा साहित्यकार इन कथाओं को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में सार्थकता का अनुभव करता है। कोई इन्हें नए संदर्भों से जोड़कर आधुनिक मुहावरे और आधुनिक बोध के साथ व्याख्यायित करता है; तो कोई इनसे जुड़ी भिन्न-भिन्न कथाओं पर शोध कर अपनी टिप्पणियों और विचारों के साथ इन्हें नए सिरे से प्रस्तुत करता है; और इन कथाओं को सम्पादित कर संक्षिप्त और सरल रूप में हमारे सामने लाता है ताकि सार-रूप में ही सही, इन कथाओं से परिचित अवश्य हो सकें। ऐसे सभी प्रयासों का अपना-अपना वैशिष्ट और महत्व है।

डा. सीतेश आलोक ने महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित “रामायण” का सम्पादन-संक्षेपण कर इसे “यथार्थ रामायण” के रूप में प्रस्तुत किया है। सीमित पृष्ठों के भीतर उन्होंने इस महाकाव्य को बड़े ही सरल, सहज और रोचक ढंग से समेटा है। इतनी विस्तृत कथा को इतने कम शब्दों में रखना वह भी मूल कथानक को बिना छेड़े वास्तव में श्रम्ा-साध्य और असाधारण कार्य है। इससे पहले भी डा. सीतेश का ऐसा महत्वपूर्ण कार्य हमारे सामने आया है- “रामचरितमानस” के संक्षिप्त रूप “मानस-मंगल” की शक्ल में।

इस ग्रंथ के संक्षेपण-सम्पादन की आवश्यकता पर डा. सीतेश का कहना है- “ऐसा नहीं है कि हिन्दी में रामायण के संक्षिप्त संस्करण उपलब्ध नहीं हैं… अनेक हैं, किन्तु उन सब में मूलत: वाल्मीकि की रामकथा को अपनी भाषा में कहने का प्रयास है। ऐसी शैली में महत्व रामकथा को ही प्राप्त होता है… और वाल्मीकि रामायण की ऐतिहासिकता एवं धार्मिक-सामाजिक प्रासांगिकता परोक्ष में चली जाती है। …इस संक्षेपण में मूल रूप से मेरा प्रयास रहा है कि ग्रंथ की प्रामाणिकता और उसके मनोरथ को क्षति पहुंचाए बिना, केवल वे ही अंश हटाए जाएं जो कहीं पुनरावृति तो कहीं अनावश्यक विस्तार द्वारा रामायण को उसका वृहत् आकार प्रदान करते हैं। … इस प्रकार वाल्मीकि रामायण के मूल कथानक एवं उपक्रम में कोई अन्तर नहीं आया है।

पुस्तक पढ़ते समय उपरोक्त सभी बातें खरी उतरती लगती हैं। लेखक ने पूरी कथा का इस कौशल के साथ सम्पादन किया है कि कहीं भी कथा टूटती सी नहीं लगती। कहीं-कहीं तो उन्होंने प्रसंगों को इस प्रकार जोड़ा है कि कथा और भी अधिक रोचक और प्रभावी बन पड़ी है। ऐसा उन्होंने कथा में आईं अनावश्यक पुनरावृत्ति और अन्तर कथाओं को हटाकर किया है। कथा में उन्होंने इस प्रकार से “समरसता” पैदा की है कि पूरी पुस्तक को आप एक रोचक उपन्यास की तरह पढ़ सकते हैं।

लेखक चूंकि स्वयं एक प्रतिष्ठित कवि एवं कथाकार हैं, अत: उनका लेखकीय कौशल भी इन अनुवादों में स्पष्ट झलकता है। इस प्रकार के सम्पादन, संक्षेपण का मूल उद्देश्य रामायण की कथा को आम लोगों तक खासकर नई पीढ़ी तक पहुंचाना है, जो अपनी रोजमर्रा की व्यस्तताओं और भागदौड़ के कारण बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ने का न तो समय निकाल पाते हैं और न ही साहस जुटा पाते हैं।

ऐसी स्तरीय पुस्तकें भारत के पाठकों तक ही सीमित न रहकर प्रवासी भारतीयों तक भी पहुंच पाएं तो इनकी सार्थकता और बढ़ेगी। अपनी धरोहर को सहेजकर रखने वाले ऐसे प्रयास अभिनंदनीय तो हैं ही, प्रचारित-प्रसारित करने योग्य भी हैं। कम मूल्य के “पेपर-बैक” संस्करण निकालकर प्रकाशक व वितरक इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं।

-नरेश शांडिल्य

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