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अनिल सौमित्र
बारह वर्ष पश्चात् उज्जैन पुन: विश्व के आकर्षण का केन्द्र बना है। तीन करोड़ श्रद्धालुओं और 10 लाख साधु-संतों के आने की संभावना है। विभिन्न कालखण्डों में उज्जैन को उज्जयिनी अवन्तिका, कलक श्रृंगार, कुशस्थली, पद्मावती, कुमुद्वती, अमरावती, प्रतिकल्पा, विशाला, नवतेरीनगर व शिवपुरी आदि नामों से जाना जाता था। पुराणों में भी उज्जयिनी का वर्णन है। सभी तीर्थों में उज्जयिनी को प्रमुख माना गया है और इसी कारण यह महातीर्थ कहलाता है। इस महातीर्थ में अनेक ऐसे स्थान हैं, जिनके दर्शन करके श्रद्धालु अपने आपको धन्य मानते हैं। यहां कुछ ऐसे ही स्थानों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है-
महाकालेश्वर
उज्जैन के दर्शनीय स्थानों में महाकालेश्वर का स्थान सबसे प्रमुख है। भारतवर्ष में भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग हैं। इनमें सबसे प्रमुख स्थान महाकालेश्वर का है। इस मन्दिर का महाभारत, स्कंदपुराण, वराहपुराण, नृसिंह पुराण, शिवपुराण, भागवत, शिवलीलामृत आदि ग्रंथों में तथा कथासरित्सागर, रजतरंगिणी, कादंबरी, मेघदूत, रघुवंश आदि महाकाव्यों में अत्यन्त सुन्दर वर्णन है। अलबरूनी व फरिश्ता नाम के इतिहासकारों ने भी इस देवालय का वर्णन किया है।
अंकपात
यह वह पुण्य स्थान है, जहां सांदीपनि ऋषि का आश्रम था। यहीं श्रीकृष्ण, उनके भ्राता बलराम और सुदामा ने विद्योपार्जन कर चौदह विद्याओं तथा चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। यहीं छात्रावस्था में श्रीकृष्ण गुरुगृह की पाकशाला के लिए सिर पर रखकर लकड़ी लाते थे।
भर्तृहरि की गुफा
यह गुफा उज्जैन के उत्तर में क्षिप्रा के किनारे शहर से लगभग एक मील दूर है। भर्तृहरि सम्राट विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भ्राता थे। यहां शिल्पकला के जो नमूने प्राप्त हुए हैं, उनको देखने से पता चलता है कि प्रारम्भ में यह जैनों का विहार अथवा शैव सम्प्रदाय का शिवालय रहा होगा। बाद में उस पर नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों ने अधिकार जमा लिया होगा।
सिद्धवट
जिस प्रकार प्रयाग में अक्षयवट, नासिक में पंचवट, वृन्दावन में वंशीवट तथा गया में गयावट है, उसी प्रकार उज्जैन में यह पवित्र सिद्धवट है। यह कर्मकाण्ड के लिए प्रमुख स्थान माना जाता है। कहा जाता है कि इस वट वृक्ष को मुगल बादशाहों ने नष्ट कर उस पर लोहे की मोटी चादरें (तवे) जड़वा दी थीं। इस वट के नीचे महादेव का लिंग व गणपति की मूर्ति है।
श्री महाकाली
श्री महाकाली का मन्दिर उज्जैन शहर से बाहर एक मील की दूरी पर एक गढ़ पर बना हुआ है। इस मन्दिर के एक भाग का जीर्णोद्धार ई.स. 608 से 648 के बीच सम्राट हर्षवद्र्धन ने करवाया था। लिंगपुराण के अनुसार लंका से जब श्री रामचन्द्र अयोध्या आ रहे थे, तब विश्राम के लिए उन्होंने अवन्तिका में निवास किया था। उसी समय भगवती कालिका भ्रमण करती हुर्इं वहां आ पहुंची और उन्होंने हनुमान को पकड़ने की चेष्टा की। परन्तु हनुमान जी के अत्यंत भीषण रूप धारण करने से देवी भयभीत होकर भागीं। तब उनकी काया का एक अंश गलकर गिर गया। वह अंग जिस स्थान पर गिरा, वही स्थान आज कालिका के नाम से विख्यात है।
कालभैरव
पुराणों के अष्टभैरवों में कालभैरव प्रमुख हैं। यहां पूजन की व्यवस्था सरकार करती है। यह मन्दिर उज्जयिनी के भैरवगढ़ नामक उपनगर में स्थित है। भैरवगढ़ उज्जयिनी से तीन मील दूर क्षिप्रा नदी के तट पर बसा हुआ है।
क्षीरसागर
सप्तसागरों में क्षीरसागर तीसरा सागर है और गोगेश्वर की टेकरी के निकट स्थित है। यहां शेषशाई भगवान की प्रतिमा है। ऐसी दन्तकथा प्रचलित है कि जब श्रीकृष्ण भगवान सांदीपनि ऋषि के आश्रम में आए थे, तब उन्होंने यहां दुग्धपान किया था।
वेधशाला
यह वेधशाला उज्जैन के दक्षिण में है। इसे अधिकांश लोग यंत्र महल के नाम से जानते हैं। पुरातन काल में उज्जैन ज्योतिषविद्या का प्रमुख केन्द्र था और यह विषुवत् रेखा का केन्द्र भी है। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने सन् 1730 में यहां वेधशाला बनवाई थी।
अगस्तेश्वर
अगस्तेश्वर का मन्दिर हरसिद्धि के पीछे ही है। यह मन्दिर इतना प्राचीन है कि इसके निर्माण के सम्बंध में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अनुमान यह है कि यह जूने महाकाल के मन्दिर के समान अत्यंत प्राचीन मंदिर है।
चौबीसखम्भा दरवाजा
महकालेश्वर से उज्जैन की ओर जाने के रास्ते पर एक विशाल द्वार का अवशेष दिखाई देता है। इसे विक्रमादित्य के प्रासाद का द्वार भी कहते हैं। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह महाकालवन में प्रवेश करने का द्वार रहा होगा। इसे भोज के प्रासाद का अवशेष होना भी माना जाता है। ऐसा अनुमान है कि इस द्वार के दोनों पाश्र्वभागों में चौबीस खम्भे लगे हैं, इसीलिए इसे चौबीस खम्भा दरवाजा कहते हैं।
हरसिद्धि देवी
कहा जाता है कि उज्जयिनी नगर के संरक्षण के लिए चौंसठ देवियां अखण्ड पहरा देती हैं। इनको चौंसठ योगिनियां भी कहते हैं। उनमें एक हरसिद्धि देवी हैं। इस मन्दिर के गर्भगृह में सिंहासन पर एक शिलोत्कीर्ण श्रीयंत्र स्थापित है।
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