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लोकसभा चुनाव-2004केरल में किस्मत की कुंजी!एक समय था, जब कहा जाता था कि उत्तर प्रदेश तय करता है कि भारत में शासन कौन करेगा। आज, वहीं के मतदाता इस कदर बंटे हुए हैं कि उत्तर प्रदेश एक बड़े प्रान्त की बजाय तीन-चार छोटे राज्यों का समूह जैसा दिखता है। ऐसे में अगर चुनावों में निर्णयात्मक स्वर उत्तर प्रदेश से नहीं उठता दिखता तो कहां से उठ रहा है?मुझे लगता है कि दक्षिण भारत ही तय करेगा कि किसी (गठबंधन) को बहुमत मिलेगा या नहीं। महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश ने तो अपने दिल की बात बोल दी है। उन्होंने जो कहा, उसकी अफवाह मात्र ने ही बीते तीन सालों में बाजार को सबसे तगड़ा झटका लगा दिया। अगर आंध्र प्रदेश ने चंद्रबाबू नायडू को नकार दिया है तो बदतर अभी सामने आया ही नहीं है। क्योंकि चंद्रबाबू नायडू को नकारने का अर्थ है कि 14वीं लोकसभा में कोई भी दल बहुमत की उम्मीदें नहीं लगा सकता। उन दलों से “बाहरी समर्थन” की आस लगाई जाएगी जो आर्थिक उदारीकरण को नकारते हैं।आश्चर्य की बात है कि 26 अप्रैल को चुनाव बाद के सर्वेक्षणों के परिणाम सामने आने के बाद भी भाजपा मुख्यालय में कुछ खिलते चेहरे देखे जा सकते थे। वहां कुछ ऐसे आशावादी लोग थे जो खुशी-खुशी यह जता रहे थे कि सर्वेक्षणकर्ता सही तस्वीर नहीं पकड़ पाए। (वे लगातार एक ही बात कर रहे थे- “बीते दिसम्बर में राजस्थान और छत्तीसगढ़ की बाबत याद है न?”) वे अधिकांश खुशनुमा चेहरे कर्नाटक और केरल खेमों से थे। यह बताने की जरूरत नहीं है कि कर्नाटक के भाजपा वालों को खुश क्यों होना चाहिए, लेकिन केरल वालों के चेहरों पर मुस्कान देखकर मैं हतप्रभ था।अगर आप भाजपा से जुड़े हैं और केरल के निवासी भी हैं तो आपको स्थायी आशावादी ही होना चाहिए! एक चौथाई सदी में किसी भी चुनाव में भाजपा ने वहां जीत दर्ज नहीं की है। वस्तुत: भाजपा ने केरल में हमेशा 10 प्रतिशत से भी कम वोट पाए हैं। इस राज्य में भाजपा में शामिल होने के लिए ऊंचे दर्जे का धुर आशावादी होना पहली आवश्यकता है!केरल भाजपा द्वारा उत्साह मनाए जाने का ताजातरीन कारण सोनिया गांधी द्वारा केरल में “श्रमिक दिवस” मनाने के अपने कार्यक्रम में तब्दीली करना है। भाजपा बड़े उत्साह से दावा करती है कि यह कांग्रेस अध्यक्ष की भयभीत मनोदशा का सूचक है। ऐसा कैसे? क्योंकि 4 अप्रैल को लालकृष्ण आडवाणी राज्य के दौरे पर होंगे और इसी कारण सोनिया गांधी ने 6 मई को अपना कार्यक्रम रखने का कथित निर्णय लिया है ताकि मतदाताओं द्वारा उनके वचन सबसे आखिर में सुन लिए जाएं।पहले कोई कांग्रेसी किसी भाजपा नेता के केरल प्रवास को इतना महत्व नहीं देता था। केरल के भाजपा वालों का कहना है कि यह धुर दक्षिण में भाजपा की बढ़ती ताकत का सम्मान है कि सोनिया गांधी को खुद अपने कार्यक्रमों में परिवर्तन करना पड़ा है। केरल में ऐसी छोटी-मोटी जीत ही वहां भाजपा के उत्साह को पाथेय प्रदान कर रही है! कुछ मतदान सर्वेक्षणों का संकेत है कि केरल में भाजपा का मत प्रतिशत बढ़कर 12 तक जा सकता है। यह बढ़त भाजपा को तो कोई सीट नहीं दिला सकती लेकिन यह आंकड़ा कम से कम पार्टी को सेंध लगाने लायक ताकत तो दे ही सकता है। आखिर केरल ऐसा राज्य है जहां जीत का अंतर एक प्रतिशत तक भी गिर जाता है।12 प्रतिशत का अर्थ होता है कि प्रत्येक आठ मतदाताओं में से एक, यानी केरल के संदर्भ में महत्वपूर्ण कारक। मुझे नहीं लगता कि कांग्रेस और माकपा को छोड़कर कोई और इतने बड़े आंकड़े का दावा कर सकता है। अगर भाजपा, कांग्रेस के वोट काट पाती है तो उसका अर्थ होगा वामपंथियों की सीटों में बढ़ोत्तरी। इससे लोकसभा में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि माक्र्सवादियों ने पहले ही कांग्रेसी प्रधानमंत्री के प्रति अपनी प्राथमिकता जाहिर कर दी है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह एक अपशकुन होगा।वामपंथी खेमे में भी उखाड़-पछाड़ है। माक्र्सवादियों को खतरा है कि वाम खेमे की ओर से समर्थन या उनको समर्थन देने के विचार मात्र से कई कांग्रेसी बौखला सकते हैं और हताशा में भाजपा की ओर जा सकते हैं। (क्या प. बंगाल में यही नहीं हुआ था और फिर तृणमूल कांग्रेस का गठन हुआ?)मुझे इन सब ख्याली पुलावों और अंदेशों को लेकर संशय है। भाजपा के लिए केरल अभी अछूता है, पर भविष्य में यहां बढ़ा जा सकता है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि आंध्र प्रदेश में जिस तरह के नुकसान का आकलन किया जा रहा है उसकी भरपाई केरल में हो सकती है। बहरहाल, ऐसे में जब लोकसभा में एक सांसद तक संतुलन डिगा सकता हो, भाजपा यदि केरल में एक सीट जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दे तो उसे दोष देना उचित नहीं।(28.04.04)7
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