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मंथन

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Jul 11, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 Jul 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूपसुदर्शन जी को कम्युनिस्ट उत्तरतथ्य एक नहीं, केवल गालियांराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन के विजयादशमी भाषण पर कम्युनिस्ट नेताओं की बौखलाहट स्वाभाविक है। सोवियत संघ का विघटन हो गया, पूर्वी यूरोपीय देशों में कम्युनिज्म का नामोनिशान तक नहीं बचा, माओवादी चीन भी माओ को त्यागकर पश्चिम के रास्ते पर दौड़ पड़ा, कम्युनिज्म की विचारधारा को पूरे विश्व ने अस्वीकार कर दिया। लेकिन भारतीय कम्युनिस्टों ने कुछ नहीं सीखा। उन्होंने आत्मालोचन करने तक की कोई आवश्यकता नहीं समझी। कम्युनिस्ट विचारधारा की असफलता और पतन की कोई कारण-मीमांसा उनके चिन्तन-लेखन में कभी प्रकट नहीं हुई। विघटनकारी और पृथकतावादी शक्तियों के कंधों पर सवार होकर सत्ता के कुछ टुकड़े पाना ही उनकी एकमात्र प्रेरणा रह गई। भारतीय राष्ट्रवाद को गालियां देना ही उनकी विचारधारा बन गई। उनके पास डींग मारने को केवल एक बात रह गई कि हम लगातार 27 साल से प. बंगाल में शासन कर रहे हैं। हमने पं.बंगाल को स्वर्ग बना दिया है, इसीलिए बंगाल की जनता हमें बार-बार चुनती है। हम चुनाव जीतते हैं, यह हमारी वैचारिक श्रेष्ठता का जीता-जागता प्रमाण है।सुदर्शन जी ने अपने भाषण में अकाट्य तथ्य और आंकड़े प्रस्तुत करके यह प्रमाणित कर दिया कि कम्युनिस्टों के 27 वर्ष लम्बे शासनकाल में प. बंगाल आगे बढ़ने के बजाय पीछे हटा है और घोर आर्थिक दुरावस्था को प्राप्त हुआ है। यदि इसके बाद भी वाममोर्चा वहां चुनाव जीत रहा है तो उसका कारण उनकी लोकप्रियता में नहीं, कहीं और ढूंढना होगा। सुदर्शन जी ने कम्युनिस्टों के झूठे प्रचार के गुब्बारे में छेद कर दिया। हम आशा करते थे कि आंकड़े गढ़ने में माहिर कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी सुदर्शन जी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों और आंकड़ों की काट में अपने आंकड़े प्रस्तुत करेंगे। किन्तु वे सदा की भांति गालियों पर उतर आये। राष्ट्रीय दल की मान्यता को बचाने के लिए छटपटा रही दस सांसदों वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तुरन्त वक्तव्य जारी कर दिया कि “सुदर्शन को न इतिहास का ज्ञान है, न अर्थशास्त्र का, न राजनीति का। वाममोर्चे पर सुदर्शन का हमला महाराष्ट्र के चुनावों में पराजय की हताशा का परिचायक है।” पहली बात तो यह कि संघ चुनाव राजनीति का हिस्सा नहीं है, और यदि भाकपा की बात मान भी लें तो महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों में कम्युनिस्ट दलों ने कौन-सा तीर मारा है कि सुदर्शन जी की हताशा कम्युनिस्टों पर टूट पड़ी। महाराष्ट्र में भाकपा ने 15 प्रत्याशी खड़े किए थे, सब हार गए। उनके बड़े भाई माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 प्रत्याशी उतारे थे, उनमें से केवल वही तीन सीट जीत पाए जो बहुत गिड़गिड़ा कर उन्होंने कांग्रेस से भीख में पायी थीं। इन तीन सीटों पर कांग्रेस और राकांपा ने अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे। भीख में प्राप्त इन सीटों को माकपा ने अपनी विजय के रूप में प्रचारित करना चाहा। जब राकांपा और कांग्रेस के बीच मुख्यमंत्री पद के लिए रस्साकसी चली और दोनों दलों के संख्याबल का हिसाब लगने लगा तो कांग्रेस ने माकपा की तीनों सीटों को अपने हिसाब में जोड़कर राकांपा के 71 के विरुद्ध अपनी संख्या को 74 सिद्ध करना चाहा। तब माकपा ने दोनों दलों के साथ सौदेबाजी करने के लोभ में अपने को तटस्थ घोषित कर दिया और कहा कि हमारा कांग्रेस के साथ कोई चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं था।झूठ और विश्वासघातउनके इस झूठ से तिलमिलाकर मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सब रहस्य प्रकट कर दिए कि किस प्रकार सीताराम येचुरी की याचना पर उन्होंने अपनी स्वयं की शोलापुर (दक्षिण) सीट माकपा के लिए छोड़ दी थी। इतना ही नहीं कांग्रेस ने माकपा को आर्थिक एवं सामग्री की भी सहायता दी थी। माकपा को भीख में दिए गए तीन स्थानों को कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों की अंतिम सूची में सम्मिलित नहीं किया था। कांग्रेस ने यह भी खुलासा कर दिया कि महाराष्ट्र माकपा के सचिव ने 31 अगस्त को सीताराम येचुरी को पत्र लिखा, जिसे सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की अनुशंसा के साथ 4 सितम्बर को महाराष्ट्र चुनावों की कांग्रेस प्रभारी मार्गरेट अल्वा को भेजा गया। यह चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं तो और क्या है? कांग्रेस भाकपा को भी 1 स्थान देने को तैयार थी, पर वह ज्यादा स्थान चाहती थी और सब जगह हार गई।इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि भिक्षावृत्ति, झूठ और विश्वासघात ही भारतीय कम्युनिस्टों का वास्तविक चरित्र है। दूसरे दलों से भीख मांग कर वे कुछ स्थान पा जाते हैं और उसे अपनी विचारधारा की विजय बताते हैं। दूसरों के कंधों पर बैठकर अपनी शक्ति की डींगें हांकते हैं। राष्ट्रीय राजनीति में उनका वजूद ही क्या है? पिछले लोकसभा चुनावों में भाकपा को केवल 1.4 प्रतिशत, माकपा को 5.69 प्रतिशत, आर.एस.पी. को 0.44 और फारवर्ड ब्लाक को 0.35 प्रतिशत मत मिले। पर सुदर्शन जी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के उत्तर में प. बंगाल माकपा के सचिव अनिल विश्वास डींग हांकते हैं कि हम बंगाल में लगातार चुनाव जीत रहे हैं इसलिए सुदर्शन द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर कौन विश्वास करेगा। सीताराम येचुरी और प्रकाश कांरत भी यही तर्क दोहराते हैं। सुदर्शन जी द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को चुनौती देने के बजाय वे मुस्लिम अल्पसंख्यकवाद को भड़काने की वही पुरानी रणनीति अपनाते हैं कि सुदर्शन ने उर्दू का जिक्र करके मुस्लिम समाज पर हमला किया है, संघ अपने जन्मकाल से ही कम्युनिस्टों का विरोध करता रहा है, क्योंकि कम्युनिस्ट ही संघ की साम्प्रदायिकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। सीताराम येचुरी ने कहा कि संघ पूरे हिन्दू समाज का ठेकेदार नहीं है। प्रकाश करात ने यूनीवार्ता से भेंटवार्ता में यहां तक कह डाला कि सुदर्शन को अपना भाषा ज्ञान बढ़ाना चाहिए और उन्हें संविधान की किताब खरीद कर पढ़नी चाहिए। लगता है कम्युनिस्टों के शब्दकोश में गालियों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। और वे गालियां भी यूरोपीय इतिहास से उधार ली हुईं। 1998 में भाजपा के केन्द्र में सत्तारूढ़ होने पर ज्योति बसु ने आडवाणी जी और अटल जी को असभ्य व बर्बर तक कह डाला था।पर सुदर्शन जी के भाषण से वे लोग उत्साहित हुए हैं, जो बंगाल के यथार्थ से परिचित हैं और वर्षों से कम्युनिस्ट आतंकवाद का शिकार रहे हैं। बंगाल के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित दैनिक “स्टेट्समैन” ने 24 अक्तूबर को सम्पादकीय लेख में गदगद भाव से लिखा, “किसी को तो यह कहना ही चाहिए था। प. बंगाल की वास्तविकता को सामने लाना ही था।” फिर स्टेट्समैन टाटा सर्विसेज लि. द्वारा संकलित वार्षिक ग्रंथ “स्टेटिस्टिकल आउट लाईन आफ इंडिया 2003-2004 (भारत की आंकड़ात्मक रूपरेखा)” से अनेक आंकड़ों को उद्धृत करके सिद्ध करता है कि कम्युनिस्ट शासनकाल में किस प्रकार बंगाल की अधोगति हुई है। कम्युनिस्ट कहेंगे कि “स्टेट्समैन” तो हमारा पुराना शत्रु है इसलिए उसके आंकड़ों को हम क्यों मानें। तो क्या आप वाममोर्चा के अंग आर.एस.पी. के मुखपत्र “गणवार्ता” में प्रकाशित प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ अजीत नारायण बसु, जो आपकी अपनी सरकार के योजना आयोग के सदस्य भी हैं, द्वारा प्रकाशित उस लेख को भी झुठला सकेंगे? श्री बसु ने इस लेख में आंकड़े देकर प्रमाणित किया है कि प. बंगाल में भूमि सुधारों का प्रचार बिल्कुल झूठा है। इन सुधारों से गरीब किसानों और खेतिहर मजदूरों को कोई लाभ नहीं हुआ है बल्कि बड़े किसानों का ही पोषण हुआ है। श्री बसु ने लिखा है कि “बंगाल में 35.38 प्रतिशत किसान परिवारों के पास केवल 3.29 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि है, जबकि 13.50 प्रतिशत धनी कृषक परिवारों के पास 58.56 प्रतिशत भूमि है। बंगाल में खेतिहर मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है।”सच्चाई बर्दाश्त नहींअब आप कहेंगे कि “गणवार्ता” हमारा नहीं, आर.एस.पी. का पत्र है। पर आपके ही पूर्व सांसद हरधन राय को आप क्या कहेंगे, जिन्होंने माकपा पर आरोप लगाया है कि वह आसनसोल और दुर्गापुर के बीच कोयला माफिया के साथ गठजोड़ करके गरीब खदान मजदूरों का आर्थिक शोषण कर रही है और उनके बल व धन से ताकतवर बन रही है। पर पार्टी नहीं चेती और हरधन राय ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। पार्टी के महासचिव अनिल विश्वास ने लपककर उनका त्यागपत्र यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि वे दो दशकों से पार्टी विरोधी गतिविधियों में लगे थे। अन्तरात्मा की आवाज पर पार्टी छोड़ने वाले हरधन राय अकेले नहीं हैं। पूर्व सांसद राधिका रंजन को इसलिए पार्टी छोड़नी पड़ी क्योंकि उन्होंने कम्युनिस्ट सांसदों द्वारा सांसद निधि के दुरुपयोग का पर्दाफाश करने का अपराध किया था। उसके पूर्व सैफुद्दीन चौधरी और विनय कृष्ण चौधरी जैसे प्रमुख लोगों को पार्टी छोड़नी पड़ी थी, क्योंकि विनयकृष्ण चौधरी ने भी कृषि सुधारों का मिथक तोड़ने की कोशिश की थी।27 वर्ष लम्बे कम्युनिस्ट शासन के फलस्वरूप बंगाल इस समय जिस भारी वित्तीय संकट से गुजर रहा है। इसका अनुमान राष्ट्रीय सहारा (14 अक्तूबर) में प्रकाशित उस समाचार से लगाया जा सकता है कि बंगाल की सड़कों की खस्ता हालत को ठीक करने के लिए पिछले तीन साल से सड़क मरम्मत के लिए निर्धारित 150 करोड़ रुपए की राशि अब तक नहीं दी गई है। अन्तत: उच्च न्यायालय को आदेश देना पड़ा है कि अक्तूबर के अंत तक सड़कें ठीक हो जानी चाहिए। पर पैसा है कहां? इसलिए लोक निर्माण मंत्री अमर चौधरी और वित्त मंत्री डा. असीम दास गुप्ता में ठन गई है। अमर चौधरी का कहना है कि ठेकेदारों का पिछला भुगतान न होने के कारण उन्होंने काम करना बंद कर दिया है। इस वित्तीय संकट से बाहर निकलने के लिए मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य विदेशी पूंजी निवेश की गुहार लगा रहे हैं तो इसके ठीक विपरीत दिल्ली में बैठे कम्युनिस्ट नेता विदेशी निवेश के विरुद्ध अखबारी युद्ध लड़ रहे हैं।अधिनायकवादीबंगाल का पतन केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि चारित्रिक दृष्टि से भी हुआ है। माकपा सांसद ज्योतिर्मयी सिकदर के पति अवतार सिंह के होटल में जिस्मफरोश के भंडाफोड़ पर माकपा ने पर्दा डाल दिया। परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती उसके बचाव में कूद पड़े। अब सर्वोच्च न्यायालय में एक भुक्तभोगी महिला ने याचिका दायर की है कि बंगाल की पुलिस की शह पर अशिक्षित व बेसहारा महिलाओं को एक साजिश के तहत वेश्या बनाकर उनके खूबसूरत नाबालिग बच्चों को एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा संचालित संरक्षण गृहों में बलपूर्वक रखा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने बंगाल सरकार को नोटिस दे दिया है। कम्युनिस्ट छात्र संगठन एस.एफ.आई.के बंगाल सचिव अपूर्व चटर्जी ने संगठन के मुखपत्र “छात्र संगम” में कम्युनिस्ट छात्र नेताओं को फैशनपरस्ती से बाहर निकलने का उपदेश दिया है।इस सर्वतोमुखी पतन के बावजूद बंगाल में वाममोर्चा चुनाव कैसे जीत जाता है, इसके कारणों की गहराई से खोज आवश्यक है। कहीं लोकतंत्र के आवरण में अधिनायकवादी व्यवस्था तो इसका कारण नहीं है? कम्युनिस्ट शासकों की अधिनायकवादी मानसिकता का ही प्रमाण है कि सुदर्शन जी के भाषण से बौखलाकर बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और माकपा सचिव अनिल विश्वास ने धमकी दी है कि बंगाल में संघ और विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकर्ता शिविर नहीं लगने दिए जाएंगे। अनिल विश्वास ने तो यहां तक कहा है कि कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को इन दोनों संगठनों पर धावा बोलने की छूट दे दी गई है। अधिनायकवादी तंत्र नौकरशाही, न्यायपालिका यहां तक कि राज्यपाल पद पर भी अपने मनचाहे लोगों को बैठाने की कोशिश करता है। नौकरशाही को आतंकित करने का कम्युनिस्ट प्रयास हरकिशन सिंह सुरजीत के “पीपुल्स डेमोक्रेसी” वाले लेख से नंगा हो चुका है। बंगाल सरकार उन न्यायाधीशों को राज्य से बाहर भिजवा रही है जिन्होंने निष्पक्ष निर्णय देने का साहस दिखाया है। न्यायमूर्ति अमिताभ लाला को बाहर भेजा जा रहा है, क्योंकि उन्होंने वाममोर्चा संगठनों एवं सरकार द्वारा आयोजित रैलियों पर रोक लगाने का आदेश दिया था। न्यायमूर्ति अलमस्त कबीर को इसलिए हटाया जा रहा है क्योंकि उन्होंने किसी न्यायालयी आदेश का पालन न करने की सफाई देने के लिए नगर विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य की पेशी का आदेश दिया था। वाममोर्चा को प्रतिबद्ध न्यायपालिका ही नहीं, प्रतिबद्ध राज्यपाल भी चाहिए। खबर है कि वर्तमान राज्यपाल वीरेन शाह का कार्यकाल 4 दिसम्बर को समाप्त होने पर कम्युनिस्ट नेतृत्व माक्र्सवादी मुस्लिम बुद्धिजीवी मुशीरूल हसन को बंगाल का राज्यपाल नियुक्त करने की जोड़तोड़ में लग गया है। उनका गणित है कि नूरुल हसन के समान मुशीरूल हसन भी बुद्धिजीवियों और मुसलमानों को उनकी झोली में लाने में सहायक होंगे। यदि पूरे भारत पर उनका शासन हो जाता तो क्या स्थिति पैदा होती, जरा सोचिए। 29-10-200442

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