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डा. देवेन्द्र आर्यजब भंवर के नाम लिख दी जिन्दगीफिर भला तूफान से कैसा गिला?हर लहर मझधार बनती है बने,ज्वार-भाटों में कहां, कैसे रूकूं?मैं चला हूं पार का विश्वास लेफिर कहां सम्भव किनारों पर चुकूं।सर उठाकर जब चली है जिन्दगीफिर भला उस मौत से कैसा गिला?हर कदम पर दंश के अम्बार हैंपर मुखौटों पर हंसी निष्पाप-सी,मैं यहां चन्दन लिए बैठा रहाआप तक पहुंचें न लपटें शाप-सी।इस इबादत में झुकी है जिन्दगीफिर मिली हैवानियत से क्या गिला?घोंसले में चार तिनके ही बुनेपर बुने हैं साथ रहकर ताप दुख,आंधियों ने बहुत नापे हौसलेपर न टूटा टूटकर विश्वास-सुख।पर्वतों-सी जब उठी है जिन्दगीफिर पतन-उत्थान से कैसा गिला?25
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