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मंथन

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May 12, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 May 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूप

मुस्लिम पृथकतावाद से त्रस्त विश्व

थाईलैण्ड भगवान बुद्ध के प्रेम और करुणा के मंत्र और अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ आज भी पूरे विश्व में शान्त क्षेत्र के नाते जाना जाता है। किन्तु अब वह अशान्त क्षेत्र बन गया है। इस अशान्ति का कारण है कि मुस्लिमबहुल मलेशिया से सटे हुए उसके तीन दक्षिणी जिले-पट्टानी, याला और नारथीवात् मुस्लिमबहुल बन गए हैं। मुस्लिम देश से सटे मुस्लिमबहुल क्षेत्र भला किसी गैरमुस्लिम बहुसंख्या के साथ कैसे रह सकते हैं? इस्लामी विचारधारा की मांग है कि वे दारुल हरब से बाहर निकल कर दारुल इस्लाम की स्थापना करें। इसलिए थाईलैंड के मुसलमानों ने अपने शान्तिप्रिय बौद्ध बन्धुओं से रिश्ता तोड़कर अपने लिए स्वतंत्र होमलैंड का आंदोलन शुरू कर दिया है। यह आन्दोलन पट्टानी यूनाईटेड लिबरेशन आर्गनाइजेशन (यूलो) के झंडे तले 1978 से चला आ रहा है। बौद्ध बहुसंख्या यह समझ नहीं पा रही है कि उनसे कौन सा अपराध हुआ है जिसके कारण उनके मुस्लिम भाई मातृभूमि के विभाजन पर तुल आए हैं और पृथकतावाद के रास्ते पर जा रहे हैं। शायद उन्हें पता नहीं कि यह पृथकतावाद इस्लामी विचारधारा का अभिन्न अंग है। भारत के एक समाजवादी मुस्लिम चिन्तक हमीद दलवाई ने बहुत पहले स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जिस क्षेत्र में मुसलमान बहुसंख्यक बन जाते हैं वहां वे स्वतंत्र राज्य का नारा लगाते हैं और जहां वे अल्पसंख्यक होते हैं वहां विशेषाधिकारों की मांग करते हैं। भारत इसका साक्षी है। 1947 का देश-विभाजन और अब कश्मीर में आतंकवाद पहली रणनीति के उदाहरण हैं, तो शेष भारत में विशेषाधिकारों एवं आरक्षण आदि की मांग दूसरी रणनीति के।

थाईलैण्ड के बौद्ध बहुमत ने अपनी 18 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या को पृथकतावाद के रास्ते से हटाकर राष्ट्रीय अखंडता और एकता की रक्षा के लिए एकजुट करने का भरसक प्रयास किया। किन्तु इस्लामी विचारधारा भूगोल को नहीं, केवल मजहब के भ्रातृत्व को आधार मानती है। इसलिए उस विचारधारा में देशभक्ति और अन्य मतावलम्बियों के प्रति बराबरी व भ्रातृत्व के कोई स्थान नहीं हैं। थाईलैण्ड में धीरे-धीरे पृथकतावादी आंदोलन उग्र व हिंसक होता गया। अन्तत: राष्ट्रीय अखण्डता की रक्षा के लिए बौद्ध शासकों को कड़ा रुख अपनाना पड़ा। जनवरी, 2004 में उन्होंने पृथकतावादी तीन जिलों में “मार्शल ला” लागू कर दिया। तब से अब तक आतंकवादी गतिविधियों के कारण लगभग 500 नागरिक मारे जा चुके हैं। अप्रैल मास में पृथकतावादियों और सुरक्षाबलों में जमकर संघर्ष हुआ, जिसमें 108 मुस्लिम पृथकतावादी मारे गए। पृथकतावादी हिंसक कार्रवाई करके मस्जिदों में छिप जाते हैं। एक बार मस्जिद में छिपे 30 पृथकतावादियों को पकड़ने की कोशिश में सुरक्षा बलों को मस्जिद को ही धवस्त करना पड़ा।

बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष का नया दौर

बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष का ताजा दौर एक महीना पहले 25 अक्तूबर को शुरू हुआ, जब बैंकाक से 1100 किलोमीटर दक्षिण में स्थित नारथीवात् प्रांत में हजारों मुसलमानों की उग्र भीड़ ने पुलिस स्टेशन पर हमला करके गिरफ्तार विद्रोहियों को छुड़ाने की कोशिश की। सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षार्थ गोली चलाई जिसमें 6 प्रदर्शनकारी तत्काल मारे गए। पुलिस बलों ने प्रदर्शनकारियों को चारों ओर से घेर लिया। लगभग 1,300 प्रदर्शनकारियों को वाहनों में भरकर सैनिक शिविर ले जाया गया। वाहन कम थे, प्रदर्शनकारी ज्यादा। वाहनों के भीतर दम घुट जाने से लगभग 80 प्रदर्शनकारियों की मृत्यु हो गई, जिससे क्रुद्ध होकर मुस्लिम नेतृत्व प्रतिहिंसा की भाषा बोल रहा है। नारथीवात् की मुस्लिम काउंसिल के अध्यक्ष अब्दुल रहमान अब्दुल समद ने धमकी दी है कि “अब कहर बरपा होगा”। “यूलो” की वेबसाईट पर धमकी प्रसारित की गई है कि जैसे तुमने पट्टानी की राजधानी को जलाया है वैसे ही हम थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक को भस्म कर डालेंगे। थाईलैण्ड के प्रधानमंत्री थाकसिन शिनवात्रा को हत्यारा घोषित कर दिया गया है। किन्तु थाकसिन का कहना है कि हम अपनी राष्ट्रीय अखण्डता के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे। केवल मजहब के आधार पर देश को तोड़ने का अधिकार किसी को भी नहीं दिया जा सकता। थाकसिन ने थाईलैण्ड में मुस्लिम पृथकतावाद को वैश्विक आतंकवाद का हिस्सा घोषित किया है और वे विश्व जनमत से अपील कर रहे हैं कि वह थाईलैण्ड की अखंडता की रक्षा के लिए आगे आएं।

राष्ट्रीय अखण्डता की रक्षा का यह संकट केवल थाईलैण्ड तक ही सीमित नहीं है। दक्षिण-पूर्व का दूसरा देश फिलीपीन भी अपने दक्षिणी क्षेत्र मिनादाओ में मुस्लिम पृथकतावाद का दंश झेल रहा है। मुस्लिम आतंकवाद अब तक हजारों जानें लील चुका है। विदेशियों के अपहरण की घटनाएं सामान्य हो गई हैं। अबु सैय्याफ नामक आतंकवादी संगठन फिलीपीन की शान्ति का शत्रु बन गया है। वहां मोरो इस्लामिक लिबरेशन फ्रंट 1978 से पृथकतावादी आंदोलन चला रहा है। अन्तत: फिलीपीन के शासकों ने मुस्लिम देश मलेशिया की मध्यस्थता स्वीकार कर ली है। अक्तूबर से मलेशिया का एक दल, जिसमें 60 मलेशियाई और 10 पड़ोसी मुस्लिम राज्य ब्रानेई के प्रतिनिधि हैं, मुस्लिमबहुल क्षेत्र में काम कर रहे हैं। क्या काम? यह अभी स्पष्ट नहीं। मलेशिया के उप प्रधानमंत्री नजीब रज्जाक स्वयं वहां जा रहे हैं। क्या महातिर मुहम्मद के रंगमंच से हटने के बाद अब मलेशिया दक्षिण-पूर्व एशिया में मुस्लिम समाजों का नेता बन गया है?

मुस्लिम कट्टरवाद और असहिष्णुता की चिंगारियां यूरोपीय संघ के सदस्य राष्ट्रों की उदार चेतना को भी प्रज्ज्वलित करने लगी हैं। नन्हा-सा देश हालैण्ड उदारवाद और खुलेपन की मिसाल माना जाता था। उसके दरवाजे सबके लिए खुले हुए थे। खुले विचार मंथन को वहां पूरी छूट थी। ईसाई देश होते हुए भी वहां बाईबिल और ईसा मसीह की निर्मम आलोचना की जा सकती थी। किन्तु इस दो नवम्बर को हालैण्ड की राजधानी एमस्टरडम के लोग सन्न रह गए जब उन्होंने देखा कि देश के विख्यात चित्रकार विंसेट वान गाग के प्रपौत्र और श्रेष्ठ फिल्म निर्माता थियो वान गाग का क्षत-विक्षत लहूलुहान शव सड़क पर पड़ा हुआ है। उसे गोलियां मारी गई थीं, छुरे से उसकी गर्दन को काटा गया था। उसके शरीर में एक छुरा घोंपकर संदेश लिखा गया था “यह जिहाद है।” गाग का अपराध यह बताया गया कि उसने “सबमिशन” नामक एक फिल्म बनायी थी जिसमें मुस्लिम औरतों के उत्पीड़न को रेखांकित किया गया था और उस उत्पीड़न के समर्थन में कुरान की कुछ आयतों को भी प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म के लिए संवाद लिखे थे अयान हिरसी अली नामक एक सोमालियाई मुसलमान ने, जिसे अपने उदार विचारों के कारण सोमालिया से भागकर हालैण्ड में शरण लेनी पड़ी थी। इस्लामी विचारधारा में असहिष्णुता एवं कट्टरवाद की प्रवृत्तियों की जड़ें बहुत गहरी पाकर उसने इस्लाम को छोड़ने का साहस दिखलाया। वह एक बार हालैण्ड की संसद के लिए भी चुनी गयी। पर अब वह अपनी जान बचाने के लिए छिपती फिर रही है, क्योंकि इस्लाम अंदर आने की इजाजत तो देता है पर बाहर जाने की नहीं। इस्लाम से बाहर जाना कुफ्र है और उसकी सजा मृत्युदण्ड है। भय के इस वातावरण में कौन मुसलमान इस्लाम की आलोचना करने का साहस कर सकता है? सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन के उदाहरण हमारे सामने हैं।

मतान्धता को हवा

स्वाभाविक ही, हर मुस्लिम आक्रामकता एवं जिहादी मानसिकता की प्रतिक्रिया हालैण्ड के उदार मन पर बहुत तीव्र हुई है। अब हालैण्डवासी मुस्लिम आव्रजकों को, जिनकी जनसंख्या 10 प्रतिशत पहुंच गई है, अपने देश में सहन करने को तैयार नहीं हैं, डच टेलीविजन के सर्वेक्षण के अनुसार पहले झटके में ही 47 प्रतिशत डच मुसलमानों के प्रति सहिष्णुता बरतने को तैयार नहीं हैं।., क्योंकि 10 लाख मुसलमान अब उनकी उदार संस्कृति के लिए खतरा बन गए हैं। वे अब मस्जिदों और कुरान की शिक्षा देने वाले मदरसों को अपनी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा मानने लगे हैं। थियो वान गाग की नृशंस हत्या के दृश्य से उत्तेजित डच लोगों की भीड़ ने मदरसों और मस्जिदों पर हमला बोल दिया है। दु:ख की बात यह है कि मुस्लिम नेतृत्व अपने अनुयायियों को सहिष्णुता और आत्मालोचन की शिक्षा देने की बजाय उनकी मतान्धता को हवा दे रहा है। डच सांसद गीर्ट वाइल्डर्स ने मुस्लिम आव्रजन को रोकने और मुस्लिम आव्रजकों को देश से निकालने का आह्वान दिया तो इन्टरनेट वीडियो पर बताया जा रहा है कि गीर्ट के मुस्लिम हत्यारे को 70 कुंवारी कन्याएं इनाम में दी जाएंगी। एक मुस्लिम लेखक शादा इस्लाम ने स्टेट्समैन (19 नवम्बर) में मुसलमानों के प्रति नौकरियों में भेदभाव को ही उनके असंतोष का कारण बताया। क्या मुस्लिम महिलाओं के उत्पीड़न की बात करना भी भेदभाव कहा जाएगा? क्या इस्लाम की कमियों की चर्चा करने वालों को जीने का कोई अधिकार नहीं है?

मुस्लिम असहिष्णुता का एक और उदाहरण है। बेल्जियम की एक समाजवादी सीनेटर मिमौंट बौसक्ला। बौसक्ला का जन्म मोरक्को के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था, किन्तु इस्लाम की नारी विरोधी विचारधारा उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। पहले उन्होंने इस्लाम के भीतर ही सुधारवादी आवाज उठायी। किन्तु जब वे इस्लामी मतान्धता के परदे को नहीं भेद पायीं तो स्वयं उस परदे से बाहर निकल आईं। उन्होंने इस्लाम से सम्बंध विच्छेद कर लिया और बेल्जियम चली आयीं। इस्लाम की मुखर आलोचक बन गईं। उन्हेंं काफिर घोषित कर दिया गया है। जान से मारने की धमकी दी गई। वे पुलिस सुरक्षा के घेरे में जी रही हैं। बौसक्ला ने बेल्जियम की मुस्लिम संस्थाओं को थियो वान गाग की हत्या की निंदा करने की अपील की, किन्तु उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। सभी मुस्लिम संस्थाओं की शिखर संस्था मुस्लिम मुश्वरात ने चुप्पी साध ली।

गंभीर चिन्ता

मुस्लिम मतान्धता में से उपजी असहिष्णुता एवं पृथकतावाद सभी यूरोपीय देशों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है। इस समय यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में मुसलमानों की जनसंख्या डेढ़ करोड़ पहुंच चुकी है। यदि इतनी विशाल जनसंख्या मजहबी कट्टरता के वशीभूत होकर अपने गैरमुस्लिम देशवासियों के प्रति सद्भाव और एकात्मता का जीवन अपनाने को तैयार नहीं होती और मजहबी विस्तारवाद के रास्ते पर बढ़ती जाती है तो उदारवादी चेतना का क्या होगा? पिछले दिनों जर्मनी की एक मस्जिद से किसी मौलवी द्वारा व्यक्त दिए गए तीव्र जर्मन-विरोधी भाषण को जेड.डी.एस. नामक टेलीविजन ने फिल्मा लिया। मौलवी ने कहा, “ये जर्मन, ये नास्तिक, ये यूरोपीय लोग अपनी बगल के बालों की सफाई नहीं करते, उनका पसीना बालों में जमा होता रहता है, उनके शरीर से बदबू आती है। इन काफिरों की जगह सिर्फ दोजख में है। ऐसे सभी लोकतंत्रों और लोकतंत्रवादियों की मुर्दाबाद”। इस वीडियो के प्रसारण के बाद मुस्लिम नेता माफी मांगते फिर रहे हैं। पर जर्मनी के राष्ट्रवादियों का कहना है कि मुस्लिम आव्रजकों को जर्मन भाषा और जर्मन संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उनकी मस्जिदों और मदरसों में जर्मन भाषा के माध्यम से भाषण व पढ़ाई होनी चाहिए। भाषा की दीवार बर्दाश्त नहीं की जाएगी। पिछले दिनों अभी 20,000 जर्मनों ने इस्लामी कट्टरवाद के विरुद्ध जुलूस निकाला।

ब्रिटेन की स्थिति तो और भी भयावह है। वहां भी कुछ जगह मुस्लिम जनसंख्या बहुत अधिक है और भारत की तरह वहां भी संगठित मुस्लिम वोट बैंक चुनावों में निर्णायक बन गया है। मुस्लिम वोटों के लालच ने सभी दलों के भीतर मतभेद पैदा कर दिए हैं। फिर भी ब्रिटिश सरकार सन् 2008 से राष्ट्रीय परिचय-पत्र प्रणाली शुरू करने का विधेयक ला रही है। आतंकवाद विरोधी कानूनों को कड़ा करने के बारे में सोच रही है।

उधर, अमरीका के 7-8 लाख मुस्लिम मतदाताओं में से 93 प्रतिशत ने बुश को हटाने के लिए जान कैरी को वोट दिया। जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया वहां के ईसाई मानस पर हुई और उसने एकजुट होकर बुश को पिछले चार दशकों में सर्वाधिक समर्थन देकर जिता दिया। बुश की इस भारी जीत से वहां का मुस्लिम नेतृत्व बहुत चिन्तित है। भारतीय जमाते इस्लामी के मुखपत्र “रेडियांस” (14 नवम्बर) के अनुसार मुस्लिम नेतृत्व ने अगले चुनाव की रणनीति अभी से बनाना शुरू कर दी है। और इस रणनीति का मुख्य लक्ष्य है- केवल मुस्लिम मतों पर निर्भर न रहकर अन्य असंतुष्ट तत्वों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाना। यह रणनीति भारत में कितनी फलदायी है, इसे वे भली-भांति जानते हैं। मुस्लिम समाज को मतान्धता से मुक्त कराने का एक ही उपाय है कि इस्लामी विचारधारा के तीन स्रोतों-कुरान, हदीस और पैगम्बर मोहम्मद के जीवन पर खुला विचार हो, पर इसे इस्लाम में कुफ्र माना जाता है।

(26 नवम्बर, 2004)

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