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डा. रवीन्द्र अग्रवालगांव व शहर के बीच नई दरारसंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के घोषणापत्र और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के राष्ट्र के नाम सम्बोधन में किसानों और ग्रामीण विकास के लिए “नए उपाय” करने की घोषणा से गांवों में एक आशावाद जगा था। आशा थी कि वित्तमंत्री अपने बजट में ग्रामीण विकास के लिए कोई नई राह खोलेंगे, जिससे 5-7 वर्षों से भटकी ग्रामीण विकास की गाड़ी नए रास्ते पर चल सकेगी। परन्तु गांवों को इस बजट से जितनी निराशा हाथ लगी है, उतनी किसी अन्य बजट ने नहीं। गांवों के लिए जितनी योजनाएं घोषित की गई हैं, वे पुरानी योजनाओं का ही विस्तार या परिवर्तित रूप हैं।वित्तमंत्री कृषि में निवेश की आवश्यकता तो बता रहे हैं परन्तु निवेश की यह जरूरत कृषि ऋण और निजी निवेशकों के भरोसे छोड़ दी। जिन निजी निवेशकों पर वित्त मंत्री ने विश्वास किया है, उनकी अब तक की स्थिति क्या है, यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसी स्थिति में यह घोषणा किसानों से छलावे के अलावा और कुछ नहीं है। जल निकायों की पुन:स्थापना खुद वित्तमंत्री के शब्दों में एक बड़ा स्वप्न है। इन निकायों की पुन: स्थापना केवल बजट से कुछ धन आवंटित करके नहीं की जा सकती। इसके लिए ऐसे उपाय भी करने होंगे जिससे तालाब आदि परम्परागत जल निकायों के साथ किसी प्रकार की छेड़-छाड़ न की जा सके। फिलहाल स्थिति यह है कि इन तालाबों को मिट्टी से भरकर वहां इमारतें खड़ी की जा रही हैं।वित्तमंत्री ने कृषि प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहित करने की बात कही है परन्तु इसमें नया क्या है? वित्तमंत्री ने एकल बाजार उपलब्ध कराने के नाम पर किसानों को “कारपोरेट सेक्टर” के हवाले करने के पुख्ता इंतजाम कर दिए हैं। “प्रत्यक्ष विपणन” और संविदा कृषि के नाम पर कृषि उत्पाद विपणन समितियों से सम्बंधित कानून को अनुपयोगी बताया जा रहा है। विपणन समितियों के न रहने से छोटे किसान को बाजार में अपना उत्पाद बेचने में जो कठिनाई आएगी, उसे नजरअंदाज किया जा रहा है। ऐसी ही परेशानी से असम के चाय उत्पादक छोटे किसानों को दो-चार होना पड़ रहा है। बजट से जो कुछ “नया” हुआ है वह है वित्तमंत्री से नाराज शहरी वर्ग की आंखों में अब गांव चुभने लगे हैं। अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने गांव और खेती के मुहावरे को कुछ इस तरह उछाला कि शहर के लोगों को लगा कि जैसे शहरों से उनका हिस्सा छीनकर गांवों को दिया जा रहा है। जबकि बजट प्रावधानों से स्पष्ट है कि गांवों को वास्तव में उतना भी नहीं मिला जो पिछले वर्ष मिला था। इस बजट ने गांव और शहर के बीच की खाई पाटने की बजाए एक नयी दरार पैदा कर दी है। यह दरार कैसे दूर होगी, यह चिन्ता का विषय है।14
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