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चीन और पाकिस्तान का

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Jan 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

षड्यंत्र

…जो विफल हो गया

-के. सुब्राह्मण्यम

सार्क सम्मेलन के दौरान इस्लामाबाद में विदेश मंत्री नटवर सिंह पाकिस्तान के विदेश मंत्री खुर्शीद अहमद कसूरी के साथ

विदेश मंत्री नटवर सिंह की पाकिस्तान यात्रा और भारत-पाकिस्तान संबंधों में एक बार फिर से आई गर्मजोशी के संदर्भ में दक्षिण एशिया की भू राजनीतिक स्थिति को नए सिरे से देखना जरूरी है।

भारत, पाकिस्तान और चीन के अलावा सुदूर अमरीका इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक स्थिति में एक चौथा आयाम जोड़े हुए है। पिछले 50 वर्ष से चीन और पाकिस्तान, भारत के विरुद्ध एक तरह से परोक्ष युद्ध छेड़े हुए हैं। लेकिन अंतत: उस युद्ध में भारत विजयी हुअा है जिसमें दांव पर लगी थी भारत की बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी, बहुपांथिक लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था।

1965 में अमरीकियों ने सोचा था कि भारतीय फौज पाकिस्तानी फौज का मुकाबला नहीं कर सकेगी। “50 के दशक के मध्य पाकिस्तान और चीन ने उत्तर-पूर्वी भारत के पृथकतावादियों को समर्थन देना शुरू कर दिया था। चीन के कम्युनिस्ट भारतीय कम्युनिस्टों को नेहरू के “साम्राज्यवादी” इरादों के विरुद्ध भड़काने लगे थे। भारत के कम्युनिस्टों ने 1946 के झादानोव सिद्धान्त और कलकत्ता के एशियाई युवा सम्मेलन से प्रेरणा पाते हुए तेलंगाना और अन्य स्थानों पर आतंकवाद को हवा देनी शुरू कर दी। उनके लिए भारत की एकजुटता की बजाय कम्युनिस्ट गलियारों की स्थापना महत्वपूर्ण थी।

1965 में पाकिस्तान-भारत युद्ध में चीन ने पाकिस्तान को पूरा समर्थन दिया था। पाकिस्तान की हार के बाद चीनियों ने नक्सलवादियों के जरिए भारत को तोड़ने का षड्यंत्र रचा। इसी बीच वह पाकिस्तान को सैन्य सहयोग देने वाला प्रमुख देश बन गया। चीन की हरकतों से परिचित भारत ने “50 के दशक में तिब्बत में अलगाववाद भड़काने की अमरीकी कोशिश से अपने को दूर रखते हुए, “60 के दशक में शेख मुजीबुर्रहमान की सक्रिय मदद की और अंतत: बंगलादेश बना।

1971 में पाकिस्तान, चीन और अमरीका पूर्व सोवियत संघ और भारत की निकटताएं देखकर आश्चर्यचकित थे। तत्पश्चात बंगलादेश युद्ध और 1974 में पोकरण विस्फोट ने भारत को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभारा। इधर कश्मीर मुद्दे पर शेख अब्दुल्ला को रास्ते पर लाने के बाद मिजोरम में आतंक का रास्ता छोड़कर लालडेंगा मुख्यमंत्री बने और उत्तर-पूर्व में एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। 1976 में भुट्टो की चीन यात्रा के बाद चीन ने भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को खड़ा करने की दृष्टि से उसे परमाणु अस्त्रों से सुसज्जित करने का रास्ता अपनाया। 1980 में अफगानिस्तान युद्ध के समय चीन और पाकिस्तान दोनों अमरीका के सहयोगी बन गए। अमरीका ने चीन द्वारा पाकिस्तान को परमाणु अस्त्र दिए जाने को नजरअंदाज किया क्योंकि अफगानिस्तान में मुजाहिद्दीनों के विरुद्ध कार्रवाई में उसे पाकिस्तान का सहयोग चाहिए था।

हालांकि तंग शियाओ फंग ने अपने कार्यकाल में भारत-विरोध को उतना महत्व नहीं दिया जितना उसके पूर्ववर्तियों ने दिया था। उसने भारत-विरोधी पृथकतावादियों को चीन की ओर से दी जा रही मदद पर लगाम लगा दी। “80 के दशक में परमाणु अस्त्रों के आने से जनरल जिया खुद को बहुत ताकतवर समझने लगे और इसी बूते पर उन्होंने पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद को हवा देनी शुरू कर दी। उसके बाद 1989 में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की शुरुआत की गई। चीन ने पाकिस्तान को मिसाइलों की लम्बी-चौड़ी खेप पहुंचा दी। चीन-पाकिस्तान सांठ-गांठ इतनी मजबूत हो चली थी कि चीन ने 1990 में इस्लामाबाद को हथियारों की आपूर्ति बंद करने के अमरीकी अनुरोध को भी ठुकरा दिया।

चीन की शह पाकर पाकिस्तान ने न केवल भारत में आतंकवाद को बढ़ावा दिया बल्कि अमरीका की अनदेखी करते हुए अलकायदा और तालिबान को भी समर्थन देना शुरू कर दिया।

दस साल से भी ज्यादा समय से जम्मू-कश्मीर में जारी पाक-प्रायोजित आतंकवाद का भारत ने सफलतापूर्वक सामना किया है। कारगिल का षड्यंत्र भी पाकिस्तान को उल्टा पड़ा था। 11 सितम्बर,2001 की घटनाओं के बाद पाकिस्तान ने चाल उल्टी करते हुए अलकायदा और तालिबान से कन्नी काट ली और आतंक के विरुद्ध युद्ध अमरीका को सहयोग देने लगा।

चीन-पाकिस्तान सांठ-गांठ की पोल खोलते दो उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक, पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक ए.क्यू. खान का कोरिया को परमाणु तकनीक उपलब्ध कराने सम्बंधी रहस्योद्घाटन, जिसका कि चीन ने हमेशा की तरह खंडन किया। दो, 11 सितम्बर,2001 की आतंकवादी घटना की जांच करने वाले आयोग का कथन कि पाकिस्तानी सरकारों ने तालिबान और अलकायदा का सहयोग कुछ हद तक इसलिए किया था ताकि उसे कश्मीर में जारी आतंकवाद के लिए निरन्तर जिहादी मिलते रहें। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति Ïक्लटन की पुस्तक से यह स्पष्ट हो चुका है।

आखिरकार माओवादी कम्युनिज्म के अक्खड़पन और नेहरू के उदारवाद के प्रति तीखी दृष्टि ने नई पीढ़ी में इस समझ का रास्ता खोला है कि दफन हो चुकी विचारधाराओं में अब बदलाव जरूरी है।

पाकिस्तानी अलग-थलग हो चुके हैं। 56 साल के परोक्ष युद्ध के बाद अब ऐसी परिस्थितियां बन गई हैं कि चीन और पाकिस्तान के साथ दीर्घकालीन शांति का रास्ता खोजा जा सकता है। भारत इस स्थिति तक पंचशील और शिमला समझौते के जरिए नहीं बल्कि शक्ति और अग्नि मिसाइल परीक्षणों के जरिए पहुंचा है। उसने यह स्थिति पृथकतावाद विरोधी और आतंकवाद विरोधी अभियानों में हजारों सैनिकों के बलिदान और पांच युद्धों में हुई जान-माल की भारी क्षति के बाद हासिल की है।

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