|
वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”
अमरचंद बांठिया
एक ईमानदार देशभक्त
उस जमाने में ग्वालियर राज्य के नरेश जयाजी राव सिंधिया के राजकोष में इतनी अकूत धनराशि थी, वह इतना अधिक हीरे-जवाहरात से भरा था कि तब सिंधिया “मोती वाले राजा” के नाम से विख्यात थे। उनके खजाने का नाम था “गंगा जली”, जिसके कोषाध्यक्ष थे, अमरचंद बांठिया। ये बीकानेर (राजस्थान) के ओसवाल परिवार के श्वेताम्बर जैन मतावलम्बी खुशालचंद बांठिया के पौत्र और अमीरचंद बांठिया के पुत्र थे। इनके पूर्वज बीकानेर से व्यापार करने के लिए ग्वालियर आते थे। 12वीं शताब्दी में इस परिवार के ही एक पूर्वज हुए थे जगदेव पंवार, जिनके पौत्र माधव देव ने आचार्य सूरी से जैन पंथ में दीक्षित होकर ओसवाल वर्ग में आ गए। गरीबों को आए दिन खुले हाथों धन बांटते रहने के कारण माधव देव अपनी दानशीलता से बांठिया (जो खूब बांटता हो) कहे जाने लगे। और यही अकूत धन बांट देने की परम्परा को एक दिन सिंधिया राजकोष के कोषाध्यक्ष अमरचंद बांठिया ने अपने प्राणों की परवाह न करके भी निभाई।
वह समय था सन् 1857 की क्रांति का। हुआ यह कि उस क्रांति के क्रम में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने सेना सहित जब मोर्चे फतह करते हुए ग्वालियर पर धावा बोला तो वहां के राजा जयाजीराव सिंधिया ग्वालियर छोड़कर आगरा चले गए। उस समय उस अपार धन भण्डार से यदि अमरचंद बांठिया का मन करता तो मनमाने हीरे-जवाहरात और स्वर्ण मुद्राएं निकालकर स्वयं अच्छे-खासे धनाढ्य बन जाते, परन्तु ईमानदार होने के कारण उस खजाने (गंगाजली) से एक सिक्का तक उन्होंने नहीं लिया। सन् 1857 के जून महीने में रानी झांसी की सेना ने अंग्रेजों के शिकंजे से ग्वालियर को मुक्त कराया और वहां स्वतंत्रता का ध्वज फहरा दिया। घोर धनाभाव के कारण जब क्रांतिकारी सेना के राव साहब ने अमरचंद बांठिया से क्रांतिकारी सेना को वेतन देने के लिए धनराशि मांगी तो अमरचंद बांठिया ने 2 जून को अपने भविष्य के संकट की चिन्ता न करके खजाने (गंगाजली) की चाभी क्रांतिकारी नेता राव साहब को सौंप दी। स्वयं बांठिया जी ने उस राजकोष से तमाम हीरे-जवाहरात और नकद धन राव साहब को दे दिया। इससे क्रांतिकारी सेना को उसके 5 महीने से बकाया चल रहे वेतन का तुरन्त भुगतान किया गया। इस क्रांति में ग्वालियर की सेना ने भी रानी लक्ष्मीबाई सेना का साथ दिया। राव साहब को तोपों की सलामी दी गई। परन्तु पुन: ग्वालियर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने अमरचंद बांठिया को कैद कर 22 जून को लश्कर में नीम के पुराने पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी। इस शहीद के वंशज आज भी कानपुर में रहते हैं।
17
टिप्पणियाँ