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पिंजर के निर्देशक डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी कहते हैं-

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Sep 11, 2003, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 Sep 2003 00:00:00

सामंजस्य की तलाश है

पिंजर

गत 23 अक्तूबर को पिंजर फिल्म के विशेष प्रदर्शन पर डा. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने पाञ्चजन्य से विशेष बातचीत में फिल्म की कथावस्तु और निर्माण सम्बंधी विषयों की चर्चा की। उल्लेखनीय है कि हाल ही में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में पिंजर को उद्घाटन फिल्म के रूप में प्रदर्शित किया गया था। डा. द्विवेदी से बातचीत के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं –

द आलोक गोस्वामी

पिंजर अमृता प्रीतम का उपन्यास है। बंटवारे की पृष्ठभूमि में साम्प्रदायिक तनाव और उसमें से उपजी एक महिला की व्यथा में वह क्या बात थी, जिसके कारण आपने इस उपन्यास पर फिल्म बनाने का निर्णय किया?

दृआज ऐसा माहौल बना दिखता है जिसमें माना जाने लगा है कि इस देश में हिन्दू और मुसलमानों के एक साथ रहने का कोई भविष्य नहीं है। इसके लिए ऐतिहासिक तथ्य भी दिए जाते हैं। पर इस देश की विशेषता यही रही है कि हमेशा विरोध की भूमि में सदा सामंजस्य ढूंढा गया है। इस देश की चाहे धरती हो या स्त्री, इन्होंने हमेशा दूसरों को स्वीकार किया है। कहने का अर्थ यही है कि जहां संभावनाएं नहीं दिखतीं, वहां भी इस देश ने संभावनाओं को ढूंढा है, सामंजस्य तलाशा है। पिंजर की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि कई परिस्थितियों में जब कुछ बातें असंभव लगती हैं तब भी उसमें से कई बातें संभव कर दिखाई हैं। फिल्म में पूरो का वह निर्णय, (कि वह अपने पति रशीद के साथ ही रहेगी) एक भारतीय स्त्री ही कर सकती है। इसमें धर्म, पंथ, सम्प्रदाय कहीं आड़े नहीं आते।

आपके द्वारा निर्मित चाणक्य धारावाहिक या यह फिल्म भी कालखण्ड विशेष पर आधारित रही है। क्या आपको कालखण्ड विशेष पर धारावाहिक या फिल्म बनाने में विशेष रुचि है?

दृ कालखण्ड पर फिल्म बनाने से चुनौती बढ़ जाती है। मुझे चुनौती स्वीकार करते हुए काम करना अच्छा लगता है, संतुष्टि मिलती है। अगर मैं 1993 या 2003 के समय की कोई फिल्म बनाऊंगा तो आपको उस काल विशेष की विशेषता उसमें दिखेगी।

यहां विशेषता से क्या अर्थ है?

यही कि उस समय जो भी सामाजिक स्थिति रही हो, सामाजिक मूल्य रहे हों, राजनीतिक आंदोलन हुए हों या धार्मिक अभियान अथवा संघर्ष आदि जो भी विशेष घटित हुआ हो, वह मेरी फिल्म में झलकेगा। समाज की आशाएं, आकांक्षाएं, प्रेरणा, अभिलाषाएं या उसका संघर्ष, ये कहीं न कहीं उस धारावाहिक या फिल्म में झलकने चाहिए तब जाकर कालखण्ड का पूरा स्वरूप सामने आता है। मुझे यह सब करने में आनंद आता है।

थ् पिंजर के माध्यम से कोई उदाहरण दें।

दृफिल्म के पहले भाग में दिखाया गया है कि बंटवारे को लेकर लोगों में क्या चर्चाएं चल रही हैं, हिन्दू और मुस्लिम समाज में क्या सोच चल रही है, आम लोगों की क्या राय है, आदि। इन सब बातों के बावजूद दिखता है कि लोगों के मन में तनाव है, शंकाएं हैं।

मेरा मानना है कि हमारी अधिकांश फिल्मों में समाज और देश नहीं होता। वे कुछ घटनाओं के आसपास बनाई जाती हैं। मुझे इससे शिकायत नहीं है। लेकिन मैं जो फिल्में बनाता हूं उनमें, मुझे लगता है कि देश और समाज होना चाहिए।

थ् आज समाज में जिस तरह का तनावपूर्ण माहौल बनता दिखता है, उसमें आपके अनुसार क्या इस तरह का संदेश देने वाली और फिल्में भी बननी चाहिए?

दृएक नहीं, कई फिल्में बननी चाहिए। लेकिन यह शिव-धनुष कौन उठाएगा? क्योंकि संभावना रहती है कि कहीं इस तरह के प्रयोग असफल न हो जाएं। और एक प्रयोग असफल हो जाए तो फिर से एक और प्रयोग के लिए पैसा नहीं मिलता।

थ् हमारी फिल्मों में एक पैमाना है कि फिल्म या तो व्यावसायिक है या कला। पिंजर को किस श्रेणी में रखते हैं?

दृ मैं पिंजर को इन दोनों श्रेणियों के बीच में देखता हूं।

थ् भविष्य की क्या योजना है?

दृ सआदत हसन मंटो की कुछ कहानियों पर विचार चल रहा है। एक राजस्थानी कहानी भी दिमाग में है। महीनेभर में बता दूंगा कि क्या कर रहा हूं, पर निश्वित तौर पर जल्दी ही कुछ नया शुरू करूंगा।

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