पूर्वोत्तर की हालत कश्मीर से भी बदतर है
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पूर्वोत्तर की हालत कश्मीर से भी बदतर है

by
Jul 12, 2003, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Jul 2003 00:00:00

-स्वामी चिन्मयानंद,केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री

भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों की अपनी विशेषताएं, और अपनी चुनौतियां हैं। घुसपैठियों और उग्रवादी गतिविधियों से त्रस्त पूर्वोत्तर के मन को टटोलने, उनकी समस्याओं के समाधान और उन्हें यह अहसास कराने के लिए कि दिल्ली को आपकी चिन्ता है, आपकी समस्याओं का हल खोज रही है, आपकी चुनौतियों को समझ रही है, केन्द्र सरकार में पूर्वोत्तर मामलों का पृथक मंत्रालय और गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद को पूर्वोत्तर राज्यों के संसदीय मामलों का प्रभारी बनाया गया है। पूर्वोत्तर राज्यों की समस्याओं, चुनौतियों और इस दिशा में केन्द्र सरकार के प्रयासों के बारे मंे पाञ्चजन्य ने स्वामी चिन्मयानंद से बातचीत की जिसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत है-

द विनीता गुप्ता

थ् पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति और अलगाववाद की भावना पनपने का क्या कारण है?

दृ पहला कारण यह है कि उन क्षेत्रों की बरसों तक उपेक्षा की जाती रही। केन्द्र सरकार ने वहां की प्राकृतिक सम्पदा का, वहां के मानव संसाधन का सही प्रयोग नहीं किया, न वहां के निवासियों की शिक्षा की ओर ध्यान दिया गया, न उनकी अन्य न्यूनतम आवश्यकताओं की ओर। सड़क, पानी, दवा, अनाज, स्वास्थ्य सबकी उपेक्षा की गई। और वहां के लिए जो भी कानून – व्यवस्थाएं बनायी गयीं, वे दिल्ली को ध्यान में रखकर बनाई गईं। वहां की संस्कृति को ध्यान में नहीं रखा गया। वहां कबीलाई संस्कृति है, एक कबीले से दूसरे कबीले का आपस में कोई सम्बंध नहीं है। उन कबीलों के बीच सम्बंध स्थापित हो, इसके लिए न संवाद के साधन स्थापित हुए न आवागमन के। लेकिन वे आज भी राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े हुए हैं, इसका प्रमाण है कि वहां का आम आदमी हिन्दी जानता है लेकिन अंग्रेजी नहीं जानता। वहां अंग्रेजी सिर्फ पढ़े-लिखे लोग बोलते हैं। लेकिन वहां अंग्रेजी माध्यम के स्कूल चलते हैं, हिन्दी माध्यम के स्कूल नहीं चलते।

थ् इसका कारण

दृ वहां अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जाते हैं। और जो सरकारी स्कूल चलाए जाते थे, जिनमें हिन्दी पढ़ाई जाती थी, उनका राज्य सरकारों ने प्रबन्धन ठीक से नहीं किया। आज स्कूलों के शिक्षक घर बैठे हैं। अब चांगलांग और तिरप को ही लीजिए। वहां आपरेशन हैरिकैन चलाने के लिए सरकारी स्कूलों में पुलिस को ठहरा दिया गया था। स्कूल बंद कर दिए गए। सरकारी अस्पताल बंद हो गए। केवल मिशनरी स्कूल ही वहां चलते हैं। इस कारण वहां कुछ ऐसी स्थितियां बनीं जिनका लाभ दूसरों ने उठाया। आज भी वहां की जनजातियों में स्वाभिमान की आकांक्षा है। वे अपना विकास चाहते हैं। पढ़ना-लिखना चाहते हैं, परिश्रमी हैं, लेकिन जिन मौलिक संसाधनों की वहां आवश्यकता है, वे आज भी उपलब्ध नहीं हैं। वे प्राकृतिक सम्पदा से समृद्ध राज्य हैं, सिर्फ अरुणाचल से 40,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो सकता है, जो पूरे भारत की बिजली की जरूरत को पूरा कर सकती है। लेकिन आज भी वहां 200 मेगावाट से ज्यादा बिजली पैदा नहीं की जाती। वहां के लोगों के बीच जाकर काम करने और उनकी जरूरतों को समझने की कोशिश आज तक नहीं हुई।

थ् आपकी सरकार उन क्षेत्रों के लिए क्या कर रही है?

दृ प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अभी पूर्वोत्तर विकास मंत्रालय बनाया है, उसके द्वारा वहां की जरूरतों को महसूस करने के साथ-साथ उसी दिशा में प्रयत्न किया जा रहा है। केन्द्र ने व्यवस्था की है कि प्रत्येक मंत्रालय को अपने कुल बजट का 10 प्रतिशत पूर्वोत्तर राज्यों के लिए खर्च करना है। यदि उस 10 प्रतिशत का पूरा उपयोग नहीं हो पाता तो वह राशि खत्म नहीं होगी। वह राशि अलग कोष में संचित रहेगी। यह सब पिछले चार वर्षों में हुआ है। शांति प्रक्रिया के परिणाम सामने आने लगे हैं।

थ् शांति प्रयास सफल हों, इसके लिए आप क्या कर रहे हैं?

दृ सबसे पहले वहां उग्रवाद को समाप्त करेंगे, फिर विकास कार्य। प्रधानमंत्री ने कोहिमा, इटानगर और सभी पूर्वोत्तर राज्यों की राजधानियों तक चार लेन की सड़क निर्माण बनाने की बात कही है। इसके अलावा सीमा सड़क संगठन अलग से कार्य कर रहा है। सीमा क्षेत्र विकास कोष अलग बनाया गया है। अभी तक वहां के लोग चीन का टेलीविजन देखते हैं, भारत के चैनल इतने प्रभावी नहीं हैं कि वहां पहुंच सकें। उसके लिए भी हम पहल कर रहे हैं। वहां उच्च फ्रीक्वेंसी वाले केन्द्र स्थापित कर रहे हैं। लेकिन कई बाधाएं हैं।

थ् किस तरह की बाधाएं

दृ बाधाएं हैं, लेकिन आगे शायद न रहें, क्योंकि वहां के राजनीतिक दलों से बातचीत करके रास्ता निकाला जा रहा है। वहां पिछड़ेपन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं पिछले 50 साल से वहां चली आ रही सरकारें और राजनीतिक दल जिन्होंने वहां की स्थिति की गंभीरता को महसूस नहीं किया। और वहां उग्रवाद को रोकने के लिए सिर्फ सेना को ही समाधान माना। वे मानते रहे उग्रवाद का जवाब सेना है, आतंक का जवाब आतंक है। जहर को जहर ही मार सकता है। इसी सोच के कारण वहां के लोगों ने उग्रवाद का रास्ता चुनना बेहतर समझा। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है वहां के लोगों को शिक्षित करना, उन्हें रोजगार देना, उन्हें आत्मनिर्भर बनाना। और उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए जरूरी है कि उनके मन में देश के प्रति देशभक्ति की भावना पैदा करें।

थ् पूर्वोत्तर राज्यों में नक्सली हिंसा बढ़ी है, इसे रोकने के लिए क्या कर रहे हैं?

दृ वहां की उपेक्षा के कारण अराजकता, असंतोष दिखा जिसका लाभ राष्ट्रविरोधी तत्वों ने उठाया। यदि हम उनको राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें यह वि·श्वास दिलाना होगा कि दिल्ली आपके प्रति संवेदनशील है, दिल्ली के दिल में आपके लिए जगह है। यदि यह अहसास उन्हें करा देंगे तो उसका लाभ दिखाई देगा।

थ्पूर्वोत्तर राज्यों में चर्च और ईसाई मिशनरियों का बहुत अधिक प्रभाव है। इस चुनौती का सामना आप किस प्रकार करेंगे?

दृ कांग्रेस सरकार ने छत्तीसगढ़ सहित अन्य राज्यों में चर्च को जिस तरह संरक्षण दिया उसके परिणाम सामने आ रहे हैं। हमें वह दिन याद करना चाहिए जब राजीव गांधी इन क्षेत्रों में आए थे और घोषणा की थी कि वहां बाइबिल के नियम लागू होंगे। राजनीतिक लाभ के लिए कांग्रेस जिस तरह चर्चों का इस्तेमाल करती रही है, वह देश में कहीं भी चुनौती बन सकता है।

थ् आपने शांति प्रक्रिया की बात की। शांति प्रक्रिया के मुख्य पहलू क्या हैं?

दृ शांति प्रक्रिया में सबसे पहली बात यह तय की गई कि वहां के उग्रवादी गुटों से कहा जाए कि पहले वे हथियार डालें फिर उनसे आगे बातचीत की जाए। उसमें जिन गुटों ने हथियार डाले हमने उनसे बातचीत की। एन.एस.सी.एन. आई.एम. गुट और के. खापलांग गुट, दोनों ने संघर्षविराम घोषित किया है। लेकिन एन.एस. सी.एन.(के.) गुट बातचीत के लिए आया नहीं। क्षेत्रीय सरकारों से भी कहा गया है कि यदि कोई गुट बातचीत की प्रक्रिया में शामिल होना चाहता है तो दो चीजें हैं, एक तो वह हथियार डाले और संविधान में आस्था रखे।

थ् पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण वहां जनसांख्यिकी परिवर्तन तेजी से हुआ है और घुसपैठियों को अभी तक सरकार रोक नहीं सकी है।

दृ त्रिपुरा और असम में बंगलादेशी घुसपैठियों का प्रभाव सबसे ज्यादा है। पिछले दस साल में असम में तो उनकी संख्या 91 प्रतिशत बढ़ी है। और इनमें समुदाय विशेष के लोगों की ही संख्या बढ़ी है जो चिंता का विषय है। लेकिन उनको निकाल बाहर करने के लिए हमारे पास प्रभावी कानून नहीं है क्योंकि 1983 में भारत सरकार ने आई.एम.डी.टी. कानून बनाया था, जिसके अनुसार घुसपैठिए की पहचान करने की जिम्मेदारी पुलिस और प्रशासन पर छोड़ दी गई। वह घुसपैठिया है या नहीं यह पुलिस को सिद्ध करना होता था। इसका परिणाम यह हुआ कि असम सरकार और अन्य राजनीतिक दलों ने पुलिस -प्रशासन का गलत फायदा उठाया। और राजनीतिक दलों ने चुनावों के समय राजनीतिक लाभ उठाने के लिए उन पर कोई रोक-टोक नहीं लगायी।

थ् आपकी सरकार केन्द्र में है आई.एम.डी.टी. कानून को रद्द करने की व्यवस्था क्यों नहीं कर रही?

दृ इसे समाप्त करने के लिए लोकसभा में एक विधेयक लाया गया, अभी विचार-विमर्श के लिए स्थायी समिति में है। विश्वास है अगले सत्र में वह विधेयक पारित हो जाए।

थ् पूर्वोत्तर राज्यों में आप किस प्रकार की चुनौतियां देख रहे हैं। कहा जा रहा है भारत का पूर्वोत्तर दूसरा कश्मीर बनता जा रहा है?

दृ वहां स्थिति कश्मीर से भी बदतर है। कश्मीर में तो सीमा पार आतंकवाद है, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद सीमा पार से नहीं आया, यह वहीं की जमीन पर उपजा है। वहां लोगों की आमदनी बंदूक से नहीं कलम से हो, इसके लिए लोगों को शिक्षित करना होगा। उन्हें आत्मनिर्भर बनाना होगा। जब वे पढ़े-लिखे नहीं होंगे, उन्हें रोजगार नहीं मिलेगा, तो स्वाभाविक रूप से वे उग्रवाद का रास्ता अपनाएंगे। इसका फायदा वे ताकतें उठाती हैं, जो उन लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने नहीं देना चाहतीं।

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