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द कमला गुप्ता
आखों में ठहर गए,
वंचना के क्षण,
नर्म आवरण में छिपे थे,
बिच्छू से दंश।
हीरामन बिक गया,
कांप गए बूढ़े पीपल,
नंगी टहनी से उलझ रहे,
सूखे पत्रों के अंश।
दर्पित दृष्टि कील जड़ी,
आचरण हुए पोखर जल,
संभाषण अग्निधार हुए,
घर-घर कौरव वंश।
विद्रूपित चेहरे हंस रहे,
सूरज के बांध मुखौटे,
खामोश उजालों पर रोता,
घायल मानस का हंस।
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