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मान बढ़ा, विश्वास जगासमय की गति कितनी तेज है। देखते ही देखते वर्ष 2003 भी गुजर गया। वै·श्विक परिदृश्य की दृष्टि से यह वर्ष काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा। विश्व पटल पर जहां अमरीका की दादागीरी दिखी, सद्दाम हुसैन का शासन समाप्त हुआ, वहीं आतंकवादियों का कहर भी जारी रहा। रूस में इस सदी की सबसे भीषण रेल दुर्घटना हुई, भूटान ने एक सच्चे पड़ोसी का धर्म निभाते हुए भारतविरोधी आतंकवादियों के विरुद्ध अभियान चलाया, वहीं भारत ने अपने झंझावातों से जूझते हुए भी कई क्षेत्रों में खासी प्रगति की। यह प्रगति आन्तरिक भी है और बाह्र भी। देशभर में सड़कों का जाल बुना जा रहा है, कश्मीर घाटी तक रेलगाड़ी ले जाने के लिए पटरियां बिछाई जा रही हैं, हमारी विकास दर चीन के बाद दुनिया में दूसरे क्रमांक पर है, हमारे शिक्षाविद् पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा दिखा रहे हैं, हमारी विदेश नीति की धाक जमी है, हमारे सूचना प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ नव-सर्जनाएं कर रहे हैं, लोग हमें केवल सुन नहीं रहे हैं, बल्कि आशाभरी निगाहों से देख भी रहे हैं। इस कारण एक साधारण भारतीय भी वि·श्वास से सराबोर है। पर इस वि·श्वास का क्या कारण है? हमारी पूछ दुनिया में क्यों बढ़ रही है? वर्ष 2003 की मुख्य उपलब्धियां क्या रहीं? इन प्रश्नों पर पाञ्चजन्य ने देश के विभिन्न क्षेत्रों के कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की। इन विशेषज्ञों ने क्या कहा, उसका ब्यौरा यहां प्रस्तुत है- प्रस्तुति : अरुण कुमार सिंह7
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