अनागतं य: कुरुते स शोभते, स शोच्यते यो न करोत्यनागतम्
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अनागतं य: कुरुते स शोभते, स शोच्यते यो न करोत्यनागतम्

by
Mar 8, 2003, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Mar 2003 00:00:00

जो अप्रिय भावी स्थिति का पूर्व-प्रतिकार कर लेता है, वह शोभित होता है। जो ऐसा नहीं करता है, वह बाद में शोक करता है।

-विष्णु शर्मा (पंचतंत्र, 3/225)

क्या-क्या भुलाएंगे?

शांति की तलाश में यह सरकार कितने कारगिल भुलाएगी? भारत सरकार ने कारगिल दिवस न मनाने या हल्का मनाने का फैसला लिया है- ऐसे समाचार छपे हैं। कारगिल में हमारे 600 से अधिक जवान शहीद हुए और उनकी शहादत ने हमें विजयोत्सव मनाने का अवसर दिया। विजयोत्सव भी मनाया जाए और शान्ति वार्ता भी जारी रखी जाए तो इसमें क्या टकराव हो सकता है? पर सरकार में बैठे लोगों ने तय किया कि कारगिल विजय दिवस मनाएंगे तो उसके उल्लास का पाकिस्तान पर अच्छा असर नहीं पड़ेगा। यानी जनरल परवेज का मन और उदास हो जाएगा। ठीक है। यह भी करके देख लीजिए। हिन्दू परम्परा की एक त्रासदी यह रही है कि वह अपने घाव भुलाती जाती है और चोट खाती जाती है। विदेशी मुसलमानों के हमलों में 10 करोड़ से ज्यादा हिन्दू मारे गए। हमने भुलाने की कोशिश की, क्योंकि हमें मुसलमानों से दोस्ती की इच्छा थी। मुसलमानों ने देश का बंटवारा मांगा और 1947 में 10 लाख से अधिक हिन्दू स्त्री-पुरुष, बच्चों का वहशियाना ढंग से नरसंहार हुआ। हमने वह भी भुला दिया और महात्मा गांधी ने पाकिस्तान को 50 करोड़ से अधिक का कर्ज देने के लिए आमरण अनशन किया। हमने जब यह कर्ज दे दिया तो पाकिस्तान ने चोरों की तरह से इस्लामी बहादुरी दिखाते हुए हमारा दो तिहाई कश्मीर हड़प लिया और हिन्दू बहन-बेटियों को पैशाचिकता के साथ अपमानित किया। भला हो हिन्दू जवां मर्दों का, उन्होंने वह भी भुला दिया और भारत की पाठ्य-पुस्तकों में मुसलमान दरिन्दों द्वारा हिन्दुओं पर ढाए अत्याचार की कोई कहानी पढ़ाई नहीं गयी। फिर हम गुलाब, गेंदे और चमेली के फूल लेकर बस में लाहौर गए। परवेज मुशर्रफ ने हमारी पीठ में खंजर घोंपा और बताया कि वे किसके वारिस हैं। हमने फिर उस जनरल को आगरा बुलाया और पांच सितारा होटल में ठहराया। जनरल ने हमारे कुछ सम्पादकों से आगरा में ही अपनी बूट पॉलिश करवायी और इस्लामाबाद जाते ही असलियत दिखा दी। हमने वह भी कबूल किया। हर रोज एक कारगिल हो रहा है। हमने यह भी भुलाने की नीति अपनायी। रक्षा मंत्रालय के तीन ही काम रह गए लगते हैं- शेर जवानों की अर्थियों को कंधा देना, हमलावर संगठनों के नाम व पते पी.आई.बी. से जारी करवाना और शहीद जवानों के परिवारजनों को साल, दो साल या तीन साल बाद शहादत के बदले चेक भिजवाना।

चीन और हम भोले भण्डारी

चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश में वास्तविक नियंत्रण रेखा पार कर आए। हमारे नागरिकों से कहा कि यह चीन का प्रदेश है, वे यहां से चले जाएं। यह उस समय हुआ जब भारत के प्रधानमंत्री बीजिंग में भारत-चीन मैत्री का महत्व बता रहे थे। अच्छा तो यह होता कि चीन द्वारा किए गए सीमातिक्रमण के बारे में भारत सरकार स्वयं सबसे पहले बयान जारी करती और चीन की इस हरकत की भत्र्सना करती। कोई भी ऐसी दोस्ती जो देश की भूमि के साथ समझौता करने के बाद हासिल हो, किसी को भी स्वीकार्य नहीं हो सकती। हमारी दोस्ती की चाह ईमानदारी भरी होती है लेकिन चीन और पाकिस्तान पर कितना भरोसा किया जाए, हम समझ नहीं पाते। पं. नेहरू ने भी पंचशील की बात करके सन् 1962 का धोखा खाया था। हम आशा करते हैं कि इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। सिक्किम पर सिर्फ चीन की मान्यता की हवाई बातें हुई हैं और अरुणाचल हो गया। अरुणाचल के मुख्यमंत्री तक को चीन सरकार वीसा देने से मना कर देती है। वह कहती है कि अरुणाचल तो चीन का अंग है, इसलिए वहां के नागरिकों को वीसा लेने की आवश्यकता नहीं। विदेश मंत्रालय यह भी जानता है कि भारत के किसी भी वरिष्ठ नेता की चीन यात्रा के दौरान चीन ऐसी ही कोई हरकत करता है। पिछली बार राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन की चीन यात्रा के समय चीन के सैनिक लद्दाख स्थित पेगोंग त्से झील में घुस आए थे। हम हर बार जो भूलने की कोशिश करते हैं, हर बार चीन वही याद दिलाने की कोशिश करता है। आखिर यहां से हम पहुंचेंगे कहां?

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