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कही-अनकही माक्र्सवादी जीन्स की फितरत

by
Feb 11, 2003, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Feb 2003 00:00:00

द दीनानाथ मिश्रअपने जन्मकाल से ही माक्र्सवादी खूनी संघर्ष में विश्वास करते रहे हैं। खून का रंग लाल है, माक्र्सवादी पार्टी के झंडे का रंग भी लाल है। अभी पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू मौत के मुंह से निकलकर बाल-बाल बच गए। कहानी ताजातरीन है, मगर पुरानी भी है। रूस, चीन सहित दर्जनों देशों में उन्होंने खूनी क्रांति की। करोड़ों लोगों का दुनिया से विदाई का समारोह किया। साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी में माक्र्सवादी पार्टी के गर्भ से नक्सलवाद पैदा हुआ। खूनी क्रांति का सपना लेकर वह आगे बढ़ने लगे। संयोग से विश्वविद्यालयों में माक्र्स का भेड़ियाधसान फैशन था। खूनी क्रांति होती रही। बौद्धिक समर्थन मिलता रहा। बड़े किसान मरते रहे। संयोग से कांग्रेस जीत गई। उसके मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे इस खूनी क्रांति के उत्सव को बर्दाश्त न कर सके। सो पुलिस ने खून का जवाब खून से देना चालू किया। नक्सलियों की पूरी फौज भाग खड़ी हुई। बिहार से लेकर आंध्र तक फैल गई। बहुत से मीडिया प्रदेशों में घुसपैठ करने में सफल हुए। वहां वह कलम के क्रांतिकारी गुरिल्ला पत्रकार बन गए। समाज में फैली गरीबी और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का उन्होंने भरपूर राजनीतिक शोषण किया।आंध्र के तेलंगाना क्षेत्र की गरीबी मशहूर है। तेलगांना में पचास के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने खूनी क्रांति का बिगुल बजा दिया था। खून-खराबा शुरू हो गया। लेकिन सरकार ने आजादी के उषाकाल में ही उसे दबा दिया। अस्सी के दशक के शुरू में जब भागे हुए नक्सली वहां पहुंचे तो उन्हें ठौर मिल गई। तेलंगाना के पराजित योद्धाओं ने उनका साथ दिया। आज के पीपुल्स वार ग्रुप के क्रांतिकारी उन्हीं के वंशज हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वाले तो उनके सगे चाचा लगते हैं। बिहार में गए नक्सलवादियों की कई नस्लों ने अपनी पार्टियां बना लीं। इन माक्र्सवादी खानदानों को कहीं माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के नाम से जाना जाता है तो कहीं पीपुल्स वार के नाम से। मगर हैं सबके सब एक ही माक्र्सवादी थैली के चट्टे-बट्टे।किसी ने अपने नाम के आगे मार्कसिस्ट और लेनिनिस्ट लगा रखा है तो किसी ने माओवादी। सबके सब आतंक में आस्था रखते हैं। जनहत्या आंदोलन भी चलाते हैं। अपने प्रभाव क्षेत्र में उन्हीं गरीबों से टैक्स वसूल करते हैं, उनकी कंगाली में आटा गीला करते हैं। आई.एस.आई. और सिमी के साथ उनका हथियारों के आदान-प्रदान का रिश्ता है। ये इनके सगे हथियार भाई हैं। जब पुलिस का दबाव बढ़ता है तो ये भूमिगत हो जाते हैं। सभी तरह के आतंकवादियों की एक फितरत समान है। वह किसी भी घर में जाकर मान न मान मैं तेरा मेहमान, बन जाते हैं: ऐसे मेहमान आज जम्मू-कश्मीर में भी पाए जाते हैं।पंजाब आंदोलन के समय पंजाब में भी पाए जाते थे। जब हाथ में ए.के.-56 हो तो किसकी मजाल है कि वह मेहमान न बनाए? मुझे ऐसी एक मेहमान-कथा बिहार के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने बताई थी। सूरज डूबते ही ऐसा एक क्रांतिकारी गिरोह एक गरीब वंचित के घर पहुंच गया। फरमान जारी किया कि दो-तीन मुर्गियां काटकर खाना बनाओ। कांपते हुए उन्होंने खाना बनाया। खाने के साथ पीना भी हुआ। पीने के बाद सोने की बारी आई। इन्हें साथ सोने के लिए भी किसी की जरूरत थी। ऐसी स्थिति में सब समझते हैं कि इनकार और मौत में फासला नहीं होगा। खून का घूंट पीकर उनकी यह मांग भी पूरी की गई। पंजाब के आतंकवादी दौर की ऐसी हजारों घटनाएं पुलिस की फाइलों में दर्ज हैं। जम्मू-कश्मीर में भी ऐसा होता है। नेपाल के माओवादी भी इसके लिए मशहूर हैं। बल्कि वहां तो वह जबरन गरीब घरों की नाबालिग लड़कियों का अपहरण कर उन्हें हथियारों का प्रशिक्षण देते हैं और दोहरा शोषण करते हैं। लिट्टे का भी यही चलन है।अलबत्ता यह जरूर मानना पड़ेगा कि माक्र्सवादी पार्टी ऐसा नहीं करती। वह केवल सौ-पचास लोगों को मार डालती है। तृणमूल कांग्रेस के नेता कुछ घटनाएं बलात्कार-शिक्षा देने की भी बताते हैं। ये माक्र्स के खानदानी जीन्स का असर है। चीन के स्वर्गीय माक्र्सवादी नेता माओ ने कई वर्षों तक सांस्कृतिक क्रांति की थी। उसमें बीसियों लाख लोग मार दिए गए थे। सो ममता बनर्जी को हजार-दो हजार लोगों के मार डाले जाने का गिला- शिकवा नहीं करना चाहिए। और न ही संघ को दो-चार सौ कार्यकर्ताओं की हत्या को जुल्म समझना चाहिए। यह तो माक्र्सवादी जीन्स की फितरत है। द11

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