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द डा. देवेन्द्र आर्यइस भंवर के नाम लिख दी जिन्दगी भर की चुनौती,मैं किनारों तक इसी मन-नाव को लेकर चलूंगा।पंथ बीहड़, पर कहां तक मंजिलों को बांध लेंगे,पांव में अंधड़ बंधा तो ये कहां तक साध लेंगे?आपदा है सामने तो मैं हिमालय सा अड़ा हूं,यूं जगत की प्यास गंगा लिए पथ में खड़ा हूं।डगमगाते पांव को वि·श्वास की लिख दें चुनौतीपतझड़ों के गांव तक मन-गंध को लेकर चलूंगा।सोचता हूं क्या बड़ी परछाइयां सच को ढकेंगी?बाजुओं की शक्ति क्या निर्दोष क्रन्दन को सुनेंगी?इन छलकते आंसुओं को आग बनना है, बनें तोइस तिमिर के पार उगती भोर की आहट सुनें तो।इस घुटन को, बेबसी को रक्त की लिख दें चुनौती,मैं नए युग-धर्म तक इतिहास को लेकर चलूंगा।आत्महन्ता वे सभी अनुबंध जो दबकर किए हैं,इस अमन की देहरी पर घूंट सौ विष के पिए हैं।आस्था के पैर इस मरु-रेत में कितना दहेंगे?और कितनी बार मरकर वक्त को बेबस जिएंगे?तुम नहीं तो आज मेरे शस्त्र की लिख दें चुनौतीराम के शर, मैं सुदर्शन का दहन लेकर चलूंगा।23
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