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करदाता के कंधों पर कब तक चलेंगीये सरकारी कम्पनियां?विनिवेश के मुद्दे पर तमाम तरह के सवाल विनिवेश मंत

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Jul 4, 2002, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jul 2002 00:00:00

करदाता के कंधों पर कब तक चलेंगीये सरकारी कम्पनियां?विनिवेश के मुद्दे पर तमाम तरह के सवाल विनिवेश मंत्रालय के निर्णयों पर उठाए जा रहे हैं। कर्मचारी-हितों को नजरअंदाज किए जाने के आरोप लगाए जा रहे हैं, विदेशी दबावों की बात कही जा रही है, निजी क्षेत्र को लाभ पहुंचाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की बात कही गई। विनिवेश को सरकार द्वारा आनन-फानन में उठाया कदम बताया गया है। क्या जवाब है विनिवेश मंत्रालय के पास इन प्रश्नों का, यही जानने के लिए पाञ्चजन्य की प्रतिनिधि विनीता गुप्ता ने विनिवेश मंत्रालय के सचिव श्री प्रदीप बैजल से बात की। यहां प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के सम्पादित अंश-थ् विनिवेश मंत्रालय द्वारा सिर्फ घाटे में चलने वाली कम्पनियां ही नहीं, बल्कि लाभ देने वाली कम्पनियों का भी विनिवेश किया गया है। आखिर विनिवेश का पैमाना क्या है?दृ छह साल पहले सरकार ने 72 कम्पनियों की सूची विनिवेश आयोग को सौंपी थी, जिनका विनिवेश किया जाना था। इनमें से आयोग ने 58 कम्पनियों के बारे में रपट दी। उन्हीं अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए हमने प्रथम चरण में कुछ कम्पनियों के विनिवेश का निर्णय लिया। लेकिन कुछ कम्पनियां हमने बिना आयोग की सिफारिश के बेचीं, जैसे विदेश संचार निगम लि., जबकि वह लाभ दे रही थी। हमने क्यों बेची? यह प्रश्न किसी के भी मन में आना स्वाभाविक है। एक कारण यह कि 1 अप्रैल,2002 से यह क्षेत्र खुल रहा था और हमारा अनुभव है कि एक बार एकाधिकार खत्म होकर जब प्रतिस्पद्र्धा होती है, तो सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां उस स्पद्र्धा में ठहर नहीं पातीं।दूसरी बात यह कि विदेश सं.नि.लि. हमें जो लाभांश दे रही थी, जितने शेयर हमने बेचे उसमें पिछले 8 साल का हमारा औसत लाभ 10 करोड़ रुपया था। और यह कम्पनी बेचने पर हमें मिले 3,689 करोड़ रुपए। प्रतिवर्ष इसके ब्याज से हमें 368 करोड़ रुपए मिलेंगे। जबकि पहले मिल रहा था सिर्फ 10 करोड़ रुपया, तो हम करदाता को इतना दर्द क्यों दें?विनिवेश करते समय हमारा ध्यान कम्पनी की आर्थिक स्थिति की तरफ रहता है। लगातार घाटे वाली कम्पनियां चलाकर सरकार करदाता पर बोझ डाले, यह कहां का न्याय है? और फिर सरकार व्यापारी नहीं है। बहुत पुरानी कहावत है, जब राज्य व्यापारी तो प्रजा भिखारी। राजा जब कोई कम्पनी चलाता है तो राजा की तरह चलाता है। व्यापारी की तरह नहीं चलाता। उसका ध्यान इस ओर रहता है कि इस कम्पनी के चलने से जनता को क्या लाभ होगा। हो सकता है राजा का ध्येय कम्पनी के माध्यम से जनता को लाभ देना हो। उसका दृष्टिकोण सरकार की तरह होगा, मंत्री की तरह होगा, व्यापारी की तरह नहीं। वह अच्छे लक्ष्य के लिए व्यापारिक दृष्टि से गलत निर्णय दे सकता है। फिर सम्बंधित मंत्रालय के नौकरशाह और अन्य अधिकारी भी सरकार के गैरव्यावसायिक दृष्टिकोण का पूरा लाभ उठाते हैं। और जब कम्पनी व्यापारिक ढंग से नहीं चलती तो घाटा होता है और उसकी भरपाई देश के करदाता की जेब से होती है।थ् इस तरह कम्पनियां बंद करने या उन्हें निजी हाथों में सौंपने से मालिक अपने ढंग से काम लेगा। वह श्रम कानूनों का उल्लंघन भी कर सकता है। कर्मचारियों को अपना भविष्य अधर में लटका नजर आ रहा है। क्या आपने इस पहलू पर कभी ध्यान दिया है?दृ अक्सर इस बात का भय व्यक्त किया जाता है कि कम्पनियों के निजीकरण से कर्मचारियों को नुकसान होगा। हाल में विनिवेशित कम्पनियों ने इस डर को निराधार सिद्ध कर दिया है। वैसे भी इस संदर्भ में एक तथ्य ध्यान देने योग्य है कि इस देश में कुल कार्यबल लगभग साढ़े तीन करोड़ है जिनमें से 20 लाख कार्यबल सार्वजनिक उपक्रमों में लगा है। पिछले दस वर्षों के दौरान बिना किसी निजीकरण या अनुकूल विनिवेश के बिना ही इस कार्यबल में कमी आई और वह 20 लाख से घटकर 17 लाख रह गया। मान लीजिए आपके कहे अनुसार इससे श्रमिकों का शोषण बढ़ेगा, तो क्या आपको सिर्फ 17 लाख लोगों की ही चिंता है बाकी करोड़ों के साथ क्या हो रहा है। मान लीजिए सार्वजनिक उपक्रम चलाकर हमने उन्हें बचा लिया तो मालूम है देश को उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। पिछले साल 23,000 करोड़ रुपए थी सिर्फ 17 लाख लोगों के लिए।थ् अभी तक जिन कम्पनियों का विनिवेश हुआ, क्या उनकी हालत में कुछ सुधार हुआ?दृ अभी तक बहुत कम कम्पनियों का विनिवेश हुआ है। लेकिन जिनका हुआ, उनके कुछ-कुछ परिणाम सामने आने लगे हैं। माडर्न फूड्स का कारोबार एक साल में दुगुना हो गया है। बाल्को की हालत निश्चित रूप से सुधरी है, क्योंकि वहां के हर कर्मचारी को वेतन के अलावा 5,000 रुपए दिए गए हैं। उनकी बाकी सुविधाएं भी बढ़ी हैं। आज तक वहां कोई छंटनी नहीं हुई है।थ् लेकिन स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के लिए कर्मचारियों को बाध्य किया जा रहा है।दृ स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए बाल्को में पहले 900 पुराने आवेदन थे अब 600 नए आवेदन और आए हैं। इन 1,500 आवेदनों पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है। और ये आवेदन स्वयं कर्मचारियों ने दिए हैं, कोई जबर्दस्ती नहीं की गई है। हो सकता है आगे चलकर कुछ लोगों की छंटनी हो, लेकिन प्रश्न यह है कि करदाता ऐसे लोगों को कब तक तनख्वाह देता रहे? फिर आर्थिक वि·श्व व्यापार संगठन और अन्य के दबावों के चलते ऐसा कब तक चलेगा?थ् यानी सरकारी कम्पनियों के विनिवेश के पीछे एक बड़ा कारण वि·श्व व्यापार संगठन के दबाव हैं?दृ वि·श्व व्यापार संगठन के अनुबंध पर हस्ताक्षर के कारण हर कम्पनी पर आर्थिक दबाव है। आप समय पर अच्छा माल बनाकर नहीं देंगे तो उसका आयात कर लिया जाएगा। इसलिए प्रतिस्पद्र्धा बढ़ी है।थ् विनिवेश करते समय कम्पनी की कुल सम्पत्ति का मूल्यांकन आप कैसे करते हैं? भारतीय पर्यटन विकास निगम के होटल इतने सस्ते में सरकार ने बेचे, बाल्को का भी पूरा मूल्य नहीं मिला, क्या यह करदाता के हितों की अनदेखी नहीं है?दृ किसी भी सम्पत्ति का दाम अंतत: बोलीदाता ही तय करता है, बेचने वाला नहीं। फिर आपने अभी होटलों को सस्ते दामों में बेचने की बात कही। आंकड़े बताते हैं कि इनमें हर साल एक-दस-पांच करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। तो कहीं न कहीं यह नुकसान रोकना ही होगा।थ् आपने इन होटलों का मूल्यांकन करने के लिए सलाहकार के रूप में लैजर्ड इण्डिया जैसी कम्पनी को चुना। सुना है रिजर्व बैंक आफ इण्डिया ने इसका नाम काली सूची में रख दिया था।दृ अगर लैजर्ड पर कोई गंभीर आरोप होता तो हम उसे निकाल भी देते। वैसे मेरे सामने यह बिन्दु अभी तक नहीं आया। वैसे किसी भी सलाहकार को चयन के लिए आवेदन से पूर्व एक प्रमाणपत्र देना पड़ता है। यदि ऐसा होता तो वह प्रमाणपत्र नहीं दे पाती। फिर थोड़ी देर को मान भी लें कि वह काली सूची में है भी तो किसी भी सम्पत्ति का मूल्यांकन कई समितियां करती हैं। ये तो केवल सलाहकार हैं, उनकी सलाह को एक मूल्यांकन समिति देखती है, उसके बाद मंत्रिमण्डलीय समिति, फिर सचिवों का केन्द्रीय दल, फिर संसदीय समिति लेकिन अंत में उसका मूल्य खरीददार ही तय करता है। कई बार जब किसी चीज की नीलामी होती है और वह नहीं बिकती, तो उसे आधे-चौथाई, औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है।थ् यानी इन होटलों को इसी तरह औने-पौने दामों में 3-4 करोड़ रुपए तक में बेचा गया, जबकि इतनी तो उनकी जमीन की कीमत भी नहीं है। इतने महत्वपूर्ण स्थानों पर बने होटलों को सस्ते में बेचने में जल्दीबाजी क्यों? सही दाम मिलने तक रुका तो जा सकता था।दृ दिल्ली में भा.प.वि.नि. के होटल किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत आने वाली जमीनों पर बने हैं। इनमें 5 से 10 प्रतिशत अवैध निर्माण हैं। अब इन्हें गिराया जाए या उन्हें नियमित कराने के पचड़े में पड़ें या बेच दें। इसलिए हमारे होटलों के दाम कम मिले। आगरा का अशोक होटल कंटोनमेंट बोर्ड की जमीन पर होने के कारण, उसकी पूरी कीमत नहीं मिल पायी। रामेश्वरम के पास मल्लपुरम में समुद्र तट पर बना होटल, बारह एकड़ की सम्पत्ति है, उस पर बनी आधी इमारत को राज्य सरकार ने अवैध घोषित कर दिया है। उस पर कानूनी नोटिस मिला है। इसलिए उसका दाम कम लगा।किराया नियंत्रण कानून के अधीन होने के कारण उस स्थान पर सिर्फ होटल ही चलाए जा सकते हैं। दूसरा उनका रखरखाव बहुत खराब है। कोई खरीदेगा तो उसे काफी पैसा खर्च करना पड़ेगा। तीसरा, उनकी बैलेंसशीट में भारी घाटे हैं, जो नए खरीददार को सहन करने पड़ेंगे। चौथा-वहां बड़ी संख्या में कर्मचारी हैं, न उन्हें निकाला जा सकता है, न उनकी तनख्वाहें कम की जा सकती हैं। तो इन होटलों का पूरा दाम मिलना तो संभव नहीं था। या हम कहें कि इन सबको बंद कर दें, तब तो सबकी नौकरियां चली जाएंगी। सरकार ऐसा नहीं करना चाहती।थ् जब सही दाम नहीं मिल रहे थे तो उनकी बिक्री रोकी जा सकती थी।दृ ऐसा भी हुआ। कई सम्पत्तियां, जिनकी बोली हमारे मूल्यांकन से कम आयी, हमने उन्हें नहीं बेचा। दिल्ली और मुम्बई के सेंटोर होटल की बोली हमारे मूल्यांकन से कम आयी हमने उन्हें नहीं बेचा। हिन्दुस्तान जिंक को भी नहीं बेचा।थ् इन सौदों में हुए अनुबंध के अनुसार एक साल तक किसी कर्मचारी को निकाला नहीं जाएगा। लेकिन एक साल के बाद क्या होगा, क्या आपने यह सोचा?दृ एक साल तक तो किसी को निकाला नहीं जाएगा। एक साल के बाद निकाला जा सकता है, ऐसी स्थिति में कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लाभ दिया जाएगा। यह योजना तो आज भी चल रही है, तभी तो सार्वजनिक उपक्रमों में कर्मचारियों की संख्या 20 लाख से घटकर 17 लाख हो गई।थ् जब होटलों की सम्पत्ति के दाम पूरे नहीं मिल रहे थे, तो उन्हें बेचने में जल्दबाजी क्यों की गई?दृ कहते हैं होटल बेचने में जल्दबाजी की गयी, लेकिन देखें तो पूर्वी जर्मनी में दो साल में 13,000 सरकारी कम्पनियां निजी क्षेत्र को बेची गयीं, जबकि हमने दस साल में सिर्फ नौ कम्पनियां बेचीं। बाल्को का मामला पांच साल से चल रहा था। होटलों का मामला माधवराव सिंधिया के समय यानी पिछले 6-7 साल से चल रहा था। हम हर वर्ष एक-एक होटल में 5 से 10 करोड़ का घाटा उठाते रहे। मेरी समझ में इन सौदों में जल्दबाजी नहीं, बल्कि देरी की गई।थ् कुछ प्रतिष्ठानों के कर्मचारी संघ के प्रतिनिधि जब आपसे मिलने आए तो आपने उन सौदों में उन्हें त्रिपक्षीय समझौते का वादा किया था? लेकिन वादा निभाया नहीं।दृ सवाल ही नहीं उठता। मैंने कभी किसी को कोई आ·श्वासन नहीं दिया। किसी भी कम्पनी के सौदे में त्रिपक्षीय समझौता नहीं होता। फिर आप देखिए हर कम्पनी में तीन-तीन, चार-चार मजदूर संघ हैं, अगर उनको शामिल करके त्रिपक्षीय वार्ता होती तो कभी कोई सौदा हो नहीं सकता था। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक में पहुंचा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि त्रिपक्षीय समझौते का प्रश्न ही नहीं उठता।थ् अशोक होटल, बंगलोर के साथ-साथ आपने एयरपोर्ट रेस्तरां भी बेच दिया, जबकि बिक्री समझौते में वह था ही नहीं। वह तो खुद ही भा.प.वि.नि. ने 5 साल के लिए पट्टे पर खरीदा था।दृ एयरपोर्ट रेस्तरां बिक्री दस्तावेज में हमेशा ही था। मान लो नहीं था, और हमने बेच दिया, तो हमें तो सी.बी.आई., केन्द्रीय सतर्कता आयोग पकड़ लेता। यह सिर्फ उन लोगों का कहना था, जो सौदा नहीं चाहते थे। और वे लोग सौदा नहीं चाहते, जोकि चौधरी बने हुए हैं और करदाता की जेब से आए रुपए पर राज कर रहे हैं।थ् ये चौधरी कौन हैं?दृ ये चौधरी हैं, सार्वजनिक उपक्रमों के अधिकारी, हमारे जैसे नौकरशाह।थ् पता चला है कि इन होटलों में घाटे का एक बड़ा कारण विभिन्न सरकारी मंत्रालय और सरकारी विभाग और अधिकारी हैं। उदाहरण के लिए अशोक होटल, दिल्ली को लें। मंत्रालयों और सरकारी संस्थानों पर करोड़ों का भुगतान बकाया है।दृ बिल्कुल सच है। अगर सरकार होटल चलाएगी तो उसमें ऐसा दुरुपयोग होगा ही। और इसी को रोकने के लिए निजीकरण जरूरी है।27

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