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भाजपा को आत्ममंथन की सलाह– प्रतिनिधिगत 24 व 25 मार्च,2001 को नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक सम्पन्न हुई। तहलका रहस्योद्घाटन की पृष्ठभूमि में हुई इस बैठक में विभिन्न सत्रों में उसी प्रकरण की प्रतिध्वनि गूंजी। जहां एक ओर प्रतिनिधियों ने राजनीतिक व आर्थिक प्रस्ताव पारित किए, वहीं दूसरी ओर आत्ममंथन की महती आवश्यकता भी महसूस की गई। बैठक के पहले दिन भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष श्री के. जनाकृष्णमूर्ति को विधिवत् अध्यक्ष पद का दायित्व सौंपा गया। अपने पहले अध्यक्षीय सम्बोधन में श्री कृष्णमूर्ति ने कहा कि “पार्टी के अध्यक्ष का आसन विक्रमादित्य के सिंहासन जैसा है। इस आसन पर आरम्भ में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे अत्यंत लब्ध प्रतिष्ठित नेता बैठे हैं जो अपनी गहन देशभक्ति, विशुद्ध राष्ट्रवाद, ईमानदारी और बुद्धिमत्ता के कारण हमारे देश के गिने-चुने महापुरुषों में माने जाते थे। फिर पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस आसन पर विराजमान हुए जो हमारे मित्र, चिंतक और मार्गदर्शक रहे। भाजपा के इस पद को श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लालकृष्ण आडवाणी और उनके उत्तराधिकारियों ने सुशोभित किया है। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होगा कि मुझे अपनी नई जिम्मेदारी के निर्वाह में जरा भी कठिनाई नहीं होगी। चूंकि पिछले 35 या इससे भी अधिक वर्षों से मैं अटल जी, आडवाणी जी, कुशाभाऊ आदि के साथ रह कर ही आगे बढ़ा हूं और उन्होंने ही मुझे दीक्षित किया है। अपनी इस विशाल पार्टी को निर्धारित लक्ष्य तक ले जाने एवं अपने साथ पूरे राष्ट्र को निर्दिष्ट गरिमा तक पहुंचाने में मुझे आपका सम्पूर्ण सहयोग मिलेगा।
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