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एक करोड़ भारतीय मूल के लोगों पर अनिश्चितता के बादल– मुजफ्फर हुसैनभारत से बाहर विदेशों में कुल कितने भारतीय बसते हैं, इसकी निश्चित संख्या हमारे पास नहीं है। ये भारतीय दो प्रकार के हैं। एक तो वे हैं, जो वर्षों पहले भारत से बाहर चले गए थे। और समय के साथ उन्होंने न केवल वहां की नागरिकता, बल्कि राष्ट्रीयता भी स्वीकार कर ली। इस श्रेणी के लोगों को भारतीय मूल के लोगों की संज्ञा दी जाती है। दूसरे वे हैं, जिनकी नागरिकता और राष्ट्रीयता तो भारतीय ही है लेकिन वे रोजगार पाने की दृष्टि से विदेशों में जा कर बस गए हैं। इन्हें बोलचाल की भाषा में अनिवासी कहा जाता है। यदि कोई संकट आता है तो वे निजी रूप से यदि भारत में आ कर बसना चाहे हैं तो इसके लिए उन्हें कोई कानूनी कठिनाई नहीं है। लेकिन भारतीय मूल के लोग इतनी सरलता से भारत नहीं लौट सकते।खाड़ी युद्ध के समय जब इराक ने कुवैत पर हमला किया था। वहां काम कर रहे भारतीयों को भारत सरकार ने अपने पैसों से स्वदेश बुला लिया था। लेकिन 1972 में जब युगांडा के तानाशाह इदी अमीन ने भारतीय मूल के लोगों को रातोंरात युगांडा छोड़ने का आदेश दिया था, उस समय भारत ने न तो कोई अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और न ही इदी अमीन के सामने अपनी जुबान खोली थी। 45 हजार भारतीय मूल के लोग अपना सब कुछ छोड़कर वहां से भाग निकले। चूंकि उनमें अधिकांश धनिक लोग थे और उनके पास ब्रिटिश पासपोर्ट थे, इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अपने देश में स्थान दे दिया। यही भारतीय गरीब होते और उनके पास पासपोर्ट नहीं होते तो क्या ब्रिटिश सरकार उन्हें अपने यहां स्थान देती? 45 हजार भारतीयों का क्या होता? क्या भारत अपने मूल के लोगों को स्वीकार कर लेता?पिछले दो माह से चल रहा फिजी का संकट यथावत है। भारतीय मूल के प्रधानमंत्री महेन्द्र चौधरी को जार्ज स्पेट के गुंडों ने भले ही रिहा कर दिया हो लेकिन क्या निर्वाचित प्रधानमंत्री को उनका स्थान पुन: मिलेगा? क्या फिजी में रह रहे भारतीय मूल के चार लाख एक हजार लोगों का जीवन सुरक्षित है? अपदस्थ प्रधानमंत्री के इस बयान के पश्चात् तो स्थिति और भी नाजुक हो गई है। श्री महेन्द्र चौधरी ने कहा कि वे भारतीय मूल के अल्पसंख्यक समुदाय को देश छोड़ने से नहीं रोकेंगे, क्योंकि उन्हें यहां दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश शुरू हो गई है। फिजी के मामले में भारत सरकार ने अपदस्थ प्रधानमंत्री की रिहाई पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि भविष्य में वहां लोकतंत्र की गाड़ी पुन: पटरी पर आ जाएगी, ऐसी आशा है। भारत सरकार का यह वक्तव्य न तो फिजी के खलनायकों की निंदा करता है और न ही वहां के भारतीय मूल के लोगों को किसी प्रकार का आश्वासन देता है।भारतीय मूल के फिजीवासियों के पास किसी पश्चिमी राष्ट्र का पासपोर्ट नहीं है कि कोई और देश उन्हें अपना ले। इसलिए वाजपेयी सरकार को इस सम्बंध में कोई न कोई नीतिगत निर्णय घोषित करने की आवश्यकता है।संकट तो श्रीलंका में बसे मूल तमिलों पर भी गहराया हुआ है, लेकिन चूंकि वे आक्रमक बने हुए हैं, इसलिए भारत सरकार उनसे परहेज कर सकती है। सिंहली भी भारतीय मूल के हैं, इसलिए दोनों में अधिक अंतर नहीं किया जा सकता। यदि श्री लंका को 1911 में भारत से अलग नहीं किया जाता तो आज यह समस्या खड़ी नहीं होती। विभाजन ने जो पाप किया है, उसका फल सिंहली और तमिल दोनों भोग रहे हैं। भारत सरकार के पास कोई भी ऐसी दूरगामी योजना नहीं है, जिससे वह अपने मूल के लोगों को झगड़ने से बचा सके। यदि धर्म को बीच में न लाया जाए तो अनुवांशिक (नस्ल) आधार पर बंगलादेश और पाकिस्तान में रहने वाले लोग भी मूल रूप से भारतीय ही हैं। भाषा के आधार पर यदि बंगलादेश अलग बन गया तो कल यही स्थिति पाकिस्तान के सिंध और पंजाब की हो सकती है। ये सारे भाग किसी एक देश में रहें अथवा अलग-अलग हो जाएं फिर भी उनकी नस्ल तो भारतीय ही रहने वाली है। इन सब देशों की जनसंख्या को मिलाकर कम से कम बीस करोड़ भारतीय मूल के लोग वर्तमान भारत से बाहर बसे हुए हैं।भारत की अपेक्षा इस मामले में चीन बहुत अधिक सक्रिय है। उसका कोई नागरिक हो अथवा तो चीनी मूल का व्यक्ति यदि किसी भी देश में उन पर अत्याचार होते हैं तो चीन सरकार तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर देती है। उसके पास सारी दुनिया में बसे चीनी मूल के लोगों के आंकड़े हैं। विदेश नीति में इन मूल चीनियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। लेकिन भारत अपनी इस ताकत को कभी पहचान नहीं सका। पचास साल बाद भी इन मूल भारतीयों के लिए विदेश मंत्रालय की कोई नीति नहीं है। भारत में सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एक ऐसा राष्ट्रवादी संगठन है, जो वि·श्व में बसने वाले समस्त भारतीयों की चिंता करता है। लेकिन वि·श्वभर में बसे हिन्दू मूल के लोगों की रक्षा करने के लिए उसके पास भी कोई अंतरराष्ट्रीय संगठन नहीं है। जो व्यवहार आज भारतीय मूल के लोगों के साथ फिजी में हो रहा है, उससे भी उग्र और अमानवीय व्यवहार युगांडा में बसने वाले भारतीय मूल के लोगों के साथ हो चुका है।मारीशस और गुयाना, त्रिनिडाड-टोबैगो में भी भारतीय मूल के लोगों की बड़ी संख्या है। ब्रिटिश गुयाना की कुल आबादी 8 लाख है, जिसमें 6 लाख भारतीय मूल के लोग हैं। शांति के समय तो भारत के लोग इन देशों में जा कर हिंदी वि·श्व सम्मेलन आयोजित करते हैं लेकिन जब इन देशों में संकट आता है तब भाषा की राजनीति करने वाले गायब हो जाते हैं। दक्षिण अफ्रीका में तो अनेक बस्तियां केवल भारतीयों की हैं। जोहेन्सबर्ग, प्रिटोरिया और केपटाउन भारत के मूल के निवासियों से छलकते नजर आते हैं। तंजानिया, केन्या, नामीबिया और मेडागास्कर में भारतीय खासी संख्या में हैं। अप्रवासी भारतीयों से यह आग्रह तो किया जाता है कि वे अपना धन भारत के विकास में लगाएं, लेकिन संकट के समय भारत उनकी सहायता नहीं करता।पश्चिमी राष्ट्रों एवं खाड़ी के देशों में काम कर रहे भारतीयों की कुल संख्या 60 लाख के आसपास मानी जाती है। संयुक्त राष्ट्र अमरीका के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वहां एक लाख, 80 हजार भारतीय हैं। इनमें अधिकांश भारत के नागरिक हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि सम्पूर्ण वि·श्व में 2 करोड़ भारतीय मूल के लोग हैं। इंग्लैंड और कनाडा में भारतीय बहुत अधिक संख्या में हैं। इनमें मूल निवासी भी हैं और नागरिक भी। आज जर्मनी को दस हजार साफ्टवेयर इंजीनियरों की आवश्यकता है। उसने अपने दरवाजे भारतीयों के लिए खोल दिए हैं। लेकिन यह सच है कि दुनिया का हर देश रोजगार के साधन अपने नागरिकों के लिए जुटाना चाहता है, इसलिए कभी राष्ट्रीयता के नाम पर तो कभी धर्म और भाषा के नाम पर विदेशियों को अपने यहां निकालना चाहता है। भविष्य में यदि फिर से युगांडा और फिजी का पुनरावर्तन हुआ तो भारत क्या करेगा? इस समस्या से निपटने की योजना हमारी सरकार के पास अवश्य होनी चाहिए।25
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