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-राबर्ट कुमार स्वामी, रेलवे कर्मचारी
मैं चालीस साल से यहां रह रहा हूं। ये बिशप व फादर लोग हमारे सामने यहां पर आकर बसे हैं। इन्होंने आज तक ईसाई विद्यालयों में हमारे बच्चों को शिक्षा नहीं दी। हमारे बच्चों के लिए कोई छात्रावास भी नहीं है। कहने को तो ये कई छात्रावास चलाते हैं किन्तु सब निजी स्वार्थ के लिए हैं। सहायता केवल केरल के लोगों को ही देते हैं। हम लोगों को तो अत्यधिक तिरस्कृत दृष्टि से देखा जाता है। इनके मुकाबले हमें हिन्दू भाइयों से अधिक प्रेम मिलता है। उनके साथ मिलजुलकर रहने से आज हमारे बच्चे सीता, राम तथा लक्ष्मण सबको पहचानते हैं। लेकिन ईसाई होने के बावजूद ईसा मसीह को नहीं पहचानते। ये वनवासियों के बच्चों को पढ़ाते हैं तो उनसे भी मूल्य वसूलते हैं। उनके नाम पर सहायता प्राप्त करते हैं। उन्हें ईसाई भी बना देते हैं। ईसाई बनने के बाद उनकी भी उपेक्षा प्रारम्भ हो जाती है। अनाथालय भी विदेशों से सहायता प्राप्त करने के माध्यम हैं। उनके चित्र खिंचवा कर विदेशों में भेज देते हैं। वहां से पैसा आ जाता है। वहां से कितना पैसा आता है, समाज के लोगों को यह कुछ नहीं बताया जाता। सतना के ईसाई समाज के बच्चों की शिक्षा व्यवस्था अत्यन्त दयनीय स्थिति में है। पहनने-ओढ़ने को कपड़े नहीं हैं। फादर- सिस्टर कारों से घूम रहे हैं। बाजारों से दो-दो पेटी अनार-सेब खरीदे जा रहे हैं। मुर्गा व अण्डा खरीदा जा रहा है।
अकारण नौकरी से निकाला
-मार्शल सद्दोम, पूर्व कर्मचारी, बिशप हाउस
मैं बिशप हाउस के अधीन वाहन चालक था। अचनाक बगैर कारण बताए मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। पहले रसोई में कार्य करता था। धीरे-धीरे गाड़ी चलाना सीख गया। बाद में अस्पताल में भी कार्य करने लगा। दस-ग्यारह साल की आयु से मैं यहां कार्य कर रहा था। 1987-88 में सरगुजा जिला अम्बिकापुर से यहां आया था।जब मैं पन्ना में था तो एक सिस्टर व फादर को आपत्तिजनक अवस्था में देखा था। बाद में मुझे पन्ना से सतना भेज दिया गया। ये लोग किसी को ज्यादा समय तक नौकरी में नहीं रखते। बाहर लोगों से मिलने भी नहीं दिया जाता। मुझे मात्र बारह सौ रुपया वेतन मिलता था। उसमें से चार सौ रुपया खाने का काट लिया जाता था।
प्रलोभन देकर मतान्तरण अनुचित
-हैरल्ड गोपी सिंह
अध्यक्ष, सतना क्रिश्चियन एसोसिएशन
हमने अपनी संस्था की स्थापना के अवसर पर कहा था कि हम प्रलोभन देकर मतान्तरण का विरोध करते हैं। हमें क्रिश्चियन एसोसिएशन बनाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि चर्च के लोगों जो कि अधिकांशत:केरल के हैं, ने स्थानीय ईसाइयों की उपेक्षा की है। ये केरल के लोगों को ही आगे बढ़ाते हैं। स्थानीय गरीब ईसाइयों की कोई सहायता नहीं करते। वेटिकन में यह निर्णय लिया गया था कि कैथोलिक मत के जो गरीब बच्चे हैं, शुल्क नहीं दे सकते, उनको भी कैथोलिक विद्यालयों में प्रवेश देना पड़ेगा। उन्हें विद्यालय की ओर से गणवेश व पुस्तकें देनी पड़ेंगी। यदि वे बच्चे पढ़ने में कमजोर हैं तो उनके लिए अलग से कक्षा लगाने की भी व्यवस्था करनी पड़ेगी। यह घोषणा स्वयं पोप ने की थी, लेकिन यहां इस निर्णय की अवहेलना हो रही है। इसलिए गरीब ईसाइयों के उत्थान के लिए संस्था बनाने की आवश्यकता पड़ी। मत-प्रचारकों ने स्थानीय कैथोलिक समाज की उपेक्षा की है। इसलिए हम लोगों ने विद्रोह किया है। बिशप के पास विदेशों से पैसा इसलिए आता है, ताकि ये गरीबों की सेवा करें। किन्तु ये गरीबों में केवल हरिजनों पर ध्यान देते हैं। ताकि उनको बाद में मतान्तरित कर सकें। ऐसा लगता है कि उनके पास इसी कार्य के लिए विदेशों से करोड़ों रुपया आता है।
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