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देवेन्द्र स्वरूप राजनीति, न्यायपालिका और भीड़

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Mar 12, 2000, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Mar 2000 00:00:00

यह देश चल रहा है या धकेला जा रहा है? कौन इसे चला रहा है-राजनीतिज्ञ, सर्वोच्च न्यायालय या भीड़? इस 20 नवम्बर को दिल्ली में जो दृश्य खड़ा हुआ उससे यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। उस दिन प्रात: 9 बजे से 10 बजे के बीच शहर के हर कोने में भीड़ एक साथ सड़कों पर उतर आयी। उसने अपने आक्रोश का प्रदर्शन करने के लिए बसों, कारों, दफ्तरों पर पथराव शुरू कर दिया। कई सरकारी भवनों में आग लगा दी। न्यायाधीशों, दण्डाधिकारियों, विधायकों, पुलिस अधिकारियों को चुन-चुन कर हमलों का निशाना बनाया गया। पूरे शहर में अराजकता का माहौल छा गया। आनन-फानन में बसें सड़कों से गायब हो गयीं। लोग जहां के तहां फंसे रह गए। मीलों पैदल चलकर अपने गन्तव्य पर पहुंचे। दोपहर में स्कूल की बसें बच्चों को घर वापस ले जाने के लिए नहीं आयीं। नन्हे-मुन्ने बच्चों को कहीं-कहीं तो 8-10 किलोमीटर तक चलना पड़ा, भूखे-प्यासे। मां-बाप चिन्ता में डूबे रहे। दिल्ली सरकार ने विद्यालयों को दो दिन के लिए बन्द कर दिया। बताया गया है कि इन उपद्रवों में भाग लेने वालों की संख्या हजारों में नहीं, लाखों में थी। इस भीड़ के चरित्र का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि महानगर टेलीफोन निगम के एक कार्यालय को पांच सौ की भीड़ ने चारों ओर से घेर लिया। कार्यालय के 70 कर्मचारी, जिनमें 35 महिलाएं भी थीं, जान बचाने के लिए पिछले दरवाजे का ताला तोड़कर पांच फुट ऊंचाई से नीचे कूदे। भीड़ ने निगम की एस्टीम कार और स्कूटरांे को आग लगा दी। छह भुगतान पटलों पर धावा बोलकर लगभग पांच लाख रुपए लूटे, दूरभाष यंत्र उठा लिए। कार्यालय को आग लगा दी। पूरा अभिलेख जला दिया। जब यह ताण्डव चल रहा था, तब पुलिस लगभग नदारद थी। कहीं थी भी तो अपर्याप्त थी। कुछ स्थानों पर पुलिस को आत्मरक्षा के लिए गोली चलानी पड़ गयी। इस पूरे उपद्रव के फलसवरूप तीन लोगों की जान गयी, 100 से अधिक लोग घायल हुए, जिनमें पुलिसकर्मियों की संख्या अधिक है। इस उन्माद-प्रदर्शन में करोड़ों रुपए की सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति बर्बाद हो गयी।

फिर वोट राजनीति का संजाल

इस ताण्डव दृश्य के पीछे दिल्ली के उन सवा लाख लघु उद्योगों का हाथ बताया जा रहा है जो सभी आवासीय बस्तियों में बिखरे हुए हैं। जिनसे होने वाले प्रदूषण से जन- स्वास्थ्य की हानि हो रही है व उनमें आकस्मिक विस्फोटों व आगजनी से अनेक निर्दोषों की जान जा रही है। लम्बे समय से एक ओर पर्यावरणविदों द्वारा और दूसरी ओर नागरिक संगठनों द्वारा यह मांग उठायी जा रही है कि इन लघु उद्योगों को आवासीय बस्तियों से हटाकर औद्योगिक बस्तियों का अलग से निर्माण किया जाए। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डी.डी.ए.) ने सन् 2001 तक दिल्ली के आगामी विकास की पूर्व कल्पना करके एक मास्टर प्लान तैयार किया हुआ है, जिसके अनुसार आवासीय बस्तियों के मकानों का उद्योग या व्यापार के लिए प्रयोग करना वर्जित है व कानूनन अपराध है। किन्तु इस मास्टर प्लान का उल्लंघन करके दिल्ली में अनधिकृत बस्तियों का लगातार विस्तार होता रहा है और आवासीय बस्तियों के बीच लघु उद्योगों की स्थापना के लिए अनुज्ञा-पत्र (लाइसेंस) आदि की सुविधाएं प्राप्त होती रही हैं। स्वाभाविक ही, इन सब गैरकानूनी गतिविधियों के पीछे सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों का आशीर्वाद रहा है। चुनाव का समय आते ही विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच तीव्र स्पद्र्धा शुरू हो जाती है कि सवा लाख लघु उद्योगों के मालिकों और इन उद्योगों पर आश्रित लगभग दस लाख श्रमिक परिवारों तथा अनधिकृत बस्तियों के असंख्य मतों का हितचिन्तक कौन अपने को सिद्ध करे। इसलिए जन स्वास्थ्य, जान-माल की सुरक्षा और दिल्ली के सुनियोजित विकास से जुड़ा यह महत्वपूर्ण प्रश्न वोट राजनीति में बुरी तरह उलझा हुआ है।

भीषण दुर्घटनाएं

दिल्ली केन्द्रीय सरकार की राजधानी है और दिल्ली राज्य की अलग से सरकार है। और दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर परिषद् व छावनी बोर्ड जैसे तीन स्थानीय निगम भी हैं। केन्द्रीय सरकार का अपना प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड है, दिल्ली सरकार का अलग से प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड है। इस प्रकार यह प्रश्न अनेक सत्ता केन्द्रों एवं संस्थानों के बीच फंस गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों ने इन लघु उद्योगों को दो वर्गों में बांट दिया है। एक वे जो प्रदूषण नहीं फैलाते, दूसरे वे जो प्रदूषण फैलाते हैं।

प्रदूषण के अतिरिक्त इन उद्योगों में प्रयोग होने वाले खतरनाक रसायनों के गोदामों में आग लगने या विस्फोट होने से पास-पड़ोस के निवासियों की बड़ी संख्या में जान-माल की हानि के समाचार समय-समय पर सामने आते रहते हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स (22 नवम्बर) ने ऐसे अनेक अपघातों की सूची प्रकाशित कर राजनीतिज्ञों एवं समाज को इस समस्या की गम्भीरता का स्मरण दिलाया है। इस सूची के अनुसार जून,1999 में पुरानी दिल्ली की घनी बस्ती लालकुआं में एक बड़ी हवेली के तलघट में ज्वलनशील रसायनों का गोदाम बनाया गया था। इस गोदाम में अचानक आग लग जाने से उस हवेली में रहने वाले 570 प्राणियों में से 40 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी और 100 से अधिक लोग घायल हो गए। यह दुर्घटना उन दिनों अखबारों के पहले पन्नों पर छायी रही। ऐसी घनी आवासीय बस्तियों से इन गोदामांे को तुरन्त हटाने का संकल्प भी बहुत जोरों से दोहराया गया। किन्तु समय के साथ समाचार शान्त हो गए और परनाला अपने रास्ते ही बहता रहा। छह महीने बाद दिसम्बर,1999 में समाचार छपा कि पश्चिमी दिल्ली के बिन्दापुर गांव में एक कमरे के मकान में रहने वाले परिवार ने जीविकोपार्जन के लिए घर में ही वेÏल्डग मशीन लगा रखी थी किन्तु एक दिन बिजली के तार की गड़बड़ से आग लग गयी और पांच लोगों का पूरा परिवार उसमें स्वाहा। पुन: शोर मचा, पुन: आवासीय बस्तियों से ऐसे उद्योगों को अलग करने की मांग उठी, पर फिर पुराना क्रम आगे बढ़ा। मार्च,2000 में शाहदरा में एक आवासीय मकान में चलने वाली फैक्ट्री के लिए प्लास्टिक कचरे और फोम जैसे ज्वलनशील सामग्री के भण्डार में आग लगने से एक महिला और उसके दो बच्चे भस्म हो गए। दिल्ली में घटने वाली ऐसे वारदातों की सूची बहुत लम्बी है। ऐसे हजारों उद्योग घनी बस्तियों में विद्यमान हैं और उससे कई गुना अधिक परिवार उनकी विनाशकारी लपेट में जी रहे हैं। पर, इसे जीविकोपार्जन की मजबूरी ही कहना होगा कि लोग अपने सीमित साधनों के भीतर अपने प्राणों के लिए खतरा मोल लेकर भी अपने छोटे-से आवासीय मकान के भीतर ही कोई छोटा-सा उद्योग लगा लेते हैं। इस दृष्टि से देखें तो हजारों-लाखों लोगों की रोजी-रोटी से जुड़ा यह लघु उद्योग व्यापार एक बड़ा मानवीय प्रश्न बन गया है। इसलिए आवासीय बस्तियों से इन उद्योगों को हटाने का अर्थ है 30-35 किमी. की दूरी पर इन लघु उद्योगों को फेंकना। अनेक उद्यमियों के पास तो नए सिरे से बसने के साधन भी नहीं होंगे, उन पर आश्रित श्रमिकों और उनके अपने आवागमन की समस्या का हल भी सरल नहीं होगा। आवास, उद्योग और बाजार के बीच सम्पर्क का हल क्या है?

पश्चिमी दृष्टि

भारतीय यथार्थ को समझ कर शहरी विकास की योजनाएं बनाने की ओर हमारा ध्यान नहीं है, अपितु पश्चिम के साधन सम्पन्न नगरों का चित्र ही हमारे यहां के नीति-निर्धारकों एवं समाज सुधारकों की आंखों में नाचता रहता है। वे भारत की समस्याओं का हल खोजने के लिए पश्चिमी देशों की यात्रा पर निकल जाते हैं। जहां तक राजनीतिज्ञों का सम्बंध है, उनकी दृष्टि तो आगामी चुनावों और वोट बैंक के आगे जाती ही नहीं। जन-कल्याण और विकास के उनके नारे केवल वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही अपना स्वर बदलते रहते हैं। इस प्रकार परस्पर विरोधी आकांक्षाओं के बीच हमारा सार्वजनिक जीवन फंसा हुआ है। एक ओर हमारे समाज सुधारक प्रत्येक व्यक्ति की आजीविका के लिए चिन्तित हैं, वेश्याओं, हिजड़ों, भिखारियों, अपंगों जैसे सब वर्गों की आजीविका की रक्षा को मानवाधिकार का प्रश्न बनाते हैं, दूसरी ओर प्रदूषण, स्वास्थ्य और शहरी सौन्दर्य के पाश्चात्य फार्मूलों को अपनाने के लिए भी लालायित रहते हैं।

मानवाधिकारवादियों और समाज सुधारकों के इस वर्ग ने जनहित याचिका पद्धति का आविष्कार कर न्यायपालिका को अपने अभियान का हिस्सा बना लिया है। दिल्ली में पिछले एक सप्ताह से जो जनोन्माद और राजनीतिक कशमकश का माहौल बना हुआ है, उसे पैदा करने का ठीकरा न्यायपालिका के सर पर ही फोड़ा जा रहा है।

प्रदूषकउद्योगों को हटाने का इतिहास

दिल्ली के लघु उद्योगों को हटाने की कहानी की शुरुआत 1985 से शुरू हुई जब एक पर्यावरणविद् एम.सी. मेहता ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। 9 साल खींचने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 30 दिसम्बर, 1995 को दिल्ली नगर निगम को आदेश दिया कि आवासीय बस्तियों में लघु उद्योगों को नए लाइसेंस न दिए जाएं और पुराने का नवीनीकरण न हो। इस आदेश के विरुद्ध सुभाष नगर लघु उद्योग एसोसिएशन की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने 19 अप्रैल,1996 को अपने पहले आदेश में संशोधन करके दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव को आदेश दिया कि वे इस बारे में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन करें, जिसमें दिल्ली सरकार, दिल्ली नगर निगम, दिल्ली विद्युत बोर्ड, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रतिनिधि रहें। यह उच्चस्तरीय समिति ऐसे सब लघु उद्योगों की सूची तैयार कर उनका वर्गीकरण करे और उन्हें अनुमति देने या न देने का निर्णय करे। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने इन उद्योगों को बन्द करने के लिए 1 जनवरी, 1997 की सीमा निर्धारित कर दी। तत्कालीन दिल्ली सरकार ने इन उद्योगों के पुनर्वास के लिए एक योजना तैयार की और उनसे वैकल्पिक स्थान के लिए आवेदन पत्र आमंत्रित किए। इस योजना के अन्तर्गत दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्र बवाना में एक हजार एकड़ से अधिक भूमि का अधिग्रहण कर लिया गया। दूसरे ग्रामीण क्षेत्र नरेला को भी पुनर्वास योजना में सम्मिलित किया गया। इस उच्चस्तरीय समिति ने 20 मई, 1997 को यानी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित समय सीमा के 5 महीने बाद निर्णय किया कि जिन उद्योगों ने दिल्ली सरकार पुनर्वास योजना के अन्तर्गत आवेदन पत्र नहीं दिए हैं, उन्हें अनुमति पत्र नहीं मिलेगा। दो साल बाद 8 सितम्बर, 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने पुन: इस प्रश्न को उठाया और आदेश दिया कि लघु उद्योगों को आवासीय बस्तियों से हटाने का काम 31 दिसम्बर,1999 तक पूरा हो जाना चाहिए अन्यथा उन्हें बंद कर दिया जाएगा। इस बीच दिल्ली में सत्ता परिवर्तन हो चुका था। 1998 तक भाजपा सत्ता में थी किन्तु अब कांग्रेस दिल्ली सरकार पर काबिज हो गयी। दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की कि लघु उद्योगों को हटाने के लिए उन्हें मार्च,2004 तक का समय दिया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया और केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय, डी.डी.ए., दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिए कि न्यायालय के पिछले आदेश का अब तक पालन क्यों नहीं किया गया? उनके पक्ष को सुनकर सर्वोच्च न्यायालय ने एक वर्ष बाद 12 सितम्बर,2000 को आदेश जारी किया कि इस प्रश्न से सम्बंधित विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय का दायित्व केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय का होगा। यहीं से केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री के नाते श्री जगमोहन इस समस्या से सम्बंधित विवाद का केन्द्र बिन्दु बन गए। दो महीने बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने 14 नवम्बर,2000 को एक नया आदेश दे दिया कि आवासीय बस्तियों में लघु उद्योगों को बन्द कराने में समन्वय सूत्र के नाते केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय नाकाम रहा है। अत: न्यायालय के आदेशों के क्रियान्वयन के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार दो अधिकारी-दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव पी.एस. भटनागर और दिल्ली नगर निगम के आयुक्त श्री एस.पी. अग्रवाल 28 नवम्बर,2000 को न्यायालय को सफाई दें कि उनके विरुद्ध न्यायालय की अवमानना का मामला क्यों न चलाया जाए?

20 नवम्बर के उन्माद-प्रदर्शन की तात्कालिक जड़ सर्वोच्च न्यायालय की अति सक्रियता में से निकले इस आदेश में विद्यमान है। 14 नवम्बर के आदेश से घबराकर मुख्य सचिव भटनागर ने आदेश निकाल दिया कि आवासीय बस्तियों में स्थित सभी लघु उद्योगों पर ताला ठोक दिया जाए और आदेश को क्रियान्वित करने के लिए दिल्ली नगर निगम ने अपने दल सब बस्तियों की ओर रवाना कर दिए। 18 और 19 नवम्बर को इन दलों को जगह-जगह लघु उद्यमियों के मालिकों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। तुरन्त राजनीतिज्ञ मैदान में कूद आए। राजनीतिज्ञों की शह पर लघु उद्यमियों की 50-52 संघों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर 20 नवम्बर को दिल्ली बंद का आह्वान कर दिया और पूरी तैयारी के साथ जनजीवन को ध्वस्त करने के लिए भीड़ की राजनीति खेलने का निर्णय ले लिया।

भीड़ की राजनीति

यहां प्रकट होती है भीड़ की राजनीति की सफलता। पिछले कई वर्षों के अनुभव से यह धारणा बन गयी है कि इस देश को भीड़ की राजनीति ही धकेल रही है। उसके सहारे किसी भी मांग को, वह उचित हो या अनुचित, पूरा करवाया जा सकता है। यह धारणा निराधार नहीं है, यह तुरन्त सामने आ गया। 20 नवम्बर के उन्माद-प्रदर्शन के बाद एक ओर तो इस स्थिति के उत्पन्न करने की जिम्मेदारी एक-दूसरे पर टालने की होड़ लग गयी कि केन्द्र सरकार, दिल्ली सरकार, दिल्ली नगर निगम में से कौन दोषी है? केन्द्र और नगर निगम में भाजपा सत्ता में है, इसलिए दिल्ली की कांग्रेसी सरकार ने अपनी पूरी ताकत और प्रचार हथकण्डे इनके विरुद्ध केन्द्रित कर दिए। दिल्ली की मुख्यमंत्री ने स्थिति को बिगाड़ने के लिए मुख्य सचिव भटनागर को दोषी ठहराया, क्योंकि उन्होंने न्यायालय के आदेशों की सीमा को लांघ कर सभी उद्योगों को बंद करने का आदेश जारी किया। मुख्य सचिव ने इस गलती के लिए पर्यावरण सचिव को जिम्मेदार ठहराया, क्योंकि आदेश का प्रारूप उन्होंने तैयार किया था। पर्यावरण सचिव ने कहा कि यह भूल टंकणकार की असावधानी से हुई। दिल्ली की मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के घर पर दल-बल सहित पहुंच गईं। उनकी मांग है कि लघु उद्योगों को बाहर निकालने के बजाय 15-17 बस्तियों को आवासीय से औद्योगिक बस्तियों के रूप में मान्यता दे दी जाए। इधर दिल्ली के छह भाजपा सांसदों के सामने सवाल है कि न्यायालय के आदेशों का पालन करें या अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखें। इसलिए अखबारों में छवि उभर रही है दिल्ली के छह भाजपा सांसद सातवें सांसद (केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री श्री जगमोहन) के विरुद्ध खड़े हैं। भाजपा का कहना है कि हमने 1996 में बवाना में जो जमीन अधिग्रहीत कर ली थी, कांग्रेसी सरकार ने उसके विकास के लिए दो वर्षों में कुछ भी नहीं किया। और अब दिखावे के लिए उस जमीन पर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं। बवाना की जनता ही पीछे क्यों रही? अब उसने भी शोर मचाना शुरू कर दिया है कि दिल्ली का प्रदूषण हमारे यहां क्यों भेजा जा रहा है? क्या यहां इंसान नहीं रहते? क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है? क्या उन्हें दिल्ली में रहने का अधिकार नहीं है? इस प्रकार इस एक प्रकरण ने हमारे पूरे राष्ट्रीय चरित्र और पूरी व्यवस्था को नंगा कर दिया है। (24 नवम्बर,2000)

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