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धरती का प्रश्न मैं कांपती हूं
जब आदमी चीखता है।
मैं डोलती हूं
जब आदमी चलता है।
मैं हो जाती हूं बौनी
जब भार ढोती हूं।
मैं हैरान हूं।
मेरी दुर्दशा पर
हंसता है आदमी।
दैत्याकार होकर
काटने लगता है जंगल
तोड़ने लगता है पहाड़-
तोड़ने लगता है खनिज
रोकने लगता है नदियों का पानी
घोलने लगता है हवाओं में विष।
मैं कर्तव्यविमुखी सी
सोचने लगती हूं
कितना नादान, असभ्य है
मनुज।
जो अपनी विद्वता का
ढिंढ़ोरा पीटता घूमता है?
— सुरेश आनंद
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