संघ गीत

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दिंनाक: 11 Jul 1999 00:00:00

लहू दे देंगे पर इस देश

की मिट्टी नहीं देंगे

न यह समझो कि हिन्दुस्थान की तलवार सोयी है।

जिसे सुनकर दहलती थी कभी छाती सिकन्दर की,

जिसे सुनकर कि कर से छूटती थी तेग बाबर की,

जिसे सुन शत्रु की फौजें बिखरती थीं, सिहरती थीं,

विसर्जन की शरण ले डूबती नावें उभरती थीं,

हुई नीली कि जिसकी चोट से आकाश की छाती,

न यह समझो कि अब रणबांकुरी हुंकार सोयी है।।1।।

कि जिसके अंश से पैदा हुए थे हर्ष औ विक्रम,

कि जिसके गीत गाता आ रहा संवत्सरों का क्रम,

कि जिसके नाम पर तलवार खींची थी शिवाजी ने,

किया संग्राम अन्तिम ·श्वास तक राणा प्रतापी ने,

किया था नाम पर जिसके कभी चित्तौड़ ने जौहर,

यह न समझो कि धमनी में लहू की धार सोयी है।।2।।

फिरंगी से तनिक पूछो कि हिन्दुस्थान कैसा है?

कि हिन्दुस्थानियों के रोष का तूफान कैसा है?

तनिक पूछो भयंकर फांसियों के लाल तख्तों से,

कहेंगे वे कि हिन्दुस्थान का सम्मान कैसा है।

बसा है नाग बांबी में मगर ओ छेड़ने वालो!

न यह समझो कि जीवित नाग की फुंकार सोयी है।।3।।

दिया है शान्ति का सन्देश ही हमने सदा जग को,

अहिंसा का दिया उपदेश भी हमने सदा जग को,

न इसका अर्थ हम पुरुषत्व का बलिदान कर देंगे,

न इसका अर्थ हम नारीत्व का अपमान सह लेंगे,

रहे इनसान चुप कैसे कि पादाघात सहकर जब

उमड़ उठती धरा पर धूल जो लाचार सोयी है।।4।।

न सीमा का हमारे देश ने विस्तार चाहा है,

किसी के स्वर्ण पर हमने नहीं अधिकार चाहा है,

मगर यह बात कहने में न चूकें हैं न चूकेंगे-

लहू दे देंगे पर इस देश की मिट्टी नहीं देंगे।

किसी लोलुप नजर ने यदि हमारी मुक्ति को देखा,

उठेगी जय प्रलय की आग जिस पर क्षार सोयी है।।5।। पग बढ़ाते ही चलो बस शीघ्र

होगा सत्य सपना

लक्ष्य तक पहुंचे बिना, पथ में पथिक विश्राम कैसा।

लक्ष्य है अति दूर दुर्गम मार्ग भी हम जानते हैं,

किन्तु पथ के कंटकों को हम सुमन ही मानते हैं,

जब प्रगति का नाम जीवन, यह अकाल विराम कैसा। लक्ष्य तक…।।

धनुष से जो छूटता है बाण कब मग में ठहरता

देखते ही देखते वह लक्ष्य का ही वेध करता

लक्ष्य प्रेरित बाण हैं हम, ठहरने का काम कैसा।। लक्ष्य तक…।।

बस वही है पथिक जो पथ पर निरन्तर अग्रसर हो,

हो सदा गतिशील जिसका लक्ष्य प्रतिक्षण निकटतर हो।

हार बैठे जो डगर में पथिक उसका नाम कैसा ।। लक्ष्य तक…।।

बाल रवि की स्वर्ण किरणें निमिष में भू पर पहुंचतीं,

कालिमा का नाश करतीं, ज्योति जगमग जगत धरती

ज्योति के हम पुंज फिर हमको अमा से भीति कैसा।। लक्ष्य तक…।।

आज तो अति ही निकट है देख लो वह लक्ष्य अपना,

पग बढ़ाते ही चलो बस शीघ्र होगा सत्य सपना।

धर्म पंथ के पथिक को फिर देव दक्षिण वाम कैसा।। लक्ष्य तक…।।

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