कारगिल से,

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दिंनाक: 12 May 1999 00:00:00

गुरुचरने ने मां को लिखाबेबे!1राती2 तेरी बड़ी याद आई।दिन भर में एक गिलास पानी के बाद,सारी रातपिंड3 की नहर की छा याद आती रही।सरों4 के खेत की पीली रोशनी मेंहमने जंग के काले बीज कब बोये थे?बेबे!तू कहती थी,बर्फ की चोटियों के बीच,शंकर का घर है,हमने ई·श्वर को लोहे की दूरबीन सेआंका–झांका है।बार-बार, एक खत कारगिल से! गयी रात,तेरे हाथों की मीठी रोटीऔर अलाव की गर्मी की गंध,यहां तक आ पहुंचती है।जंग काली होती है बेबे!बड़ी काली।बड़े-बड़े मनों की रोशनी बुझा देता है,एक-एक दिन का अंधेरा।पर तू फिकर न कर,रोशनी बहुत पास है,और पिंड वाले साथ हैं,और सबसे बड़ा साथ है,वाहे गुरुजो दुश्मन के झूठ के नहीं हमारे सच के साथ है।1. मां, 2. रात, 3. गांव, 4. सरसोंदडा. ज्योतिकिरण शुक्ल27

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