महाराष्ट्र की भूमि दुर्गो (किलों) की भूमि है। ये दुर्ग महाराष्ट्र ही नहीं, संपूर्ण भारतवर्ष का गौरव हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने शासनकाल में गिरिदुर्ग, जलदुर्ग और भू-दुर्ग की एक शृंखला खड़ी की थी। इन किलों के माध्यम से उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य को भूमि एवं जलमार्ग से सुरक्षित रखने, विस्तार देने और सुदृढ़ बनाने में सफलता प्राप्त की। मात्र 35 वर्ष में उन्होंने किलों का साम्राज्य ही खड़ा कर दिया था। यही कारण है कि विश्व इतिहास में छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम अत्यंत सम्मान से लिया जाता है।

निदेशक, गोखले एडवांस्ड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, जलगांव
महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में स्थित ये किले मराठा पराक्रम के साक्षी हैं। हाल ही में मराठा साम्राज्य की शक्ति को दर्शाने वाले हिन्दवी स्वराज्य के 12 किलों को ‘यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों’ की सूची में शामिल किया गया है। इनमें शिवनेरी, राजगढ़, रायगढ़, प्रतापगढ़, पन्हालगढ़, साल्हेर, लोहगढ़, खान्देरी, सुवर्णदुर्ग, विजयदुर्ग और सिंधुदुर्ग के साथ-साथ तमिलनाडु स्थित जिंजी किला शामिल है। इन किलों को सामूहिक रूप से ‘मराठा सैन्य परिदृश्य’ (Maratha Military Landscape) कहा गया है।
अनूठी सैन्य प्रणाली
‘मराठा सैन्य परिदृश्य’ एक अनोखी सैन्य प्रणाली है, जिसका निर्माण छत्रपति शिवाजी महाराज ने सामरिक दूरदर्शिता से किया था। इन किलों का निर्माण सह्याद्रि पर्वत शृंखला, कोंकण तट, दक्खन पठार और पूर्वी घाट की भौगोलिक विशेषताओं के अनुसार किया गया। छत्रपति ने इन किलों के निर्माण में अनेक अभिनव प्रयोग किए। इसलिए, इनकी निर्माण की विधियां, कार्य-पद्धति, नियम-कानून, संसाधनों का संरक्षण एवं अन्य पहलू निश्चित रूप से आज भी कार्य-संस्कृति और कौशल विकास के लिए दिशा-निर्देशक हैं। रामचंद्रपंत अमात्य लिखित ‘आज्ञापत्र’ में छत्रपति शिवाजी महाराज के किलों से जुड़े स्पष्ट विचार पढ़कर उनकी दूरदर्शिता का पता चलता है। उनकी पहल पर निर्मित और उनके स्पर्श से पवित्र इन किलों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
संरक्षण एवं सुरक्षा
छत्रपति शिवाजी महाराज ने किलों की सुरक्षा पर जोर दिया था। आज्ञापत्र में कहा गया है कि मुख्य किले के पास वाली ऊंची पहाड़ी पर या तो किले का निर्माण किया जाए या उस पहाड़ी को ध्वस्त कर दिया जाए। यही कारण है कि किले तक जाने वाले रास्तों को दुश्मन के लिए कठिन बनाया गया था। यही नहीं, हर किले पर सुरक्षा के अनेक महत्वपूर्ण उपाय किए गए थे। इनसे छत्रपति शिवाजी की दूरदर्शिता और कार्यस्थल पर आवश्यक सुरक्षा योजनाओं का पता चलता है।
किलों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी था कि वहां काम करने वाला हर आदमी वफादार हो। प्रत्येक दुर्ग पर चार महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। ये सभी अपने काम में सक्षम और कुशल होते थे। इन सभी को समान स्तर का अधिकार दिया गया था। किसी भी किले पर अधिकारियों की नियुक्ति स्थायी नहीं होती थी। उनका तबादला किया जाता था। यदि एक ही परिवार के सदस्यों को नियुक्त करना हो, तो उन्हें दूर के किलों पर नियुक्त किया जाता था। यह तथ्य दर्शाता है कि छत्रपति शिवाजी मानव संसाधन का उपयोग कितनी कुशलता से करते थे।
कौशल और कार्य-संस्कृति
शिवनेरी किला छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म स्थान है। राजमाता जीजाबाई ने यहीं पर छत्रपति महाराज के मन में स्वराज्य और शत्रु की दासता से मुक्ति की भावना का संचार किया था। इस किले से प्राप्त संस्कारों और अनुष्ठानों का प्रभाव उनके स्वराज्य के निर्माण में देखा गया। ‘जिसके हाथ में समुद्री मार्ग, उसके हाथ में तट’– इस विचार को शिवाजी महाराज ने बखूबी समझा और सिंधुदुर्ग किले का निर्माण किया। उन्होंने इस किले के माध्यम से न केवल कोंकण तट को सुरक्षित किया, बल्कि विदेशी आक्रमणकारियों का मार्ग भी अवरुद्ध किया। उन्होंने सिंधुदुर्ग किले का निर्माण यह सोचकर कराया था कि कोंकण तट एक वैकल्पिक व्यापार मार्ग बनेगा। इससे डच, पुर्तगाली, अंग्रेजी और जंजिरा के आक्रमण भी बाधित होंगे।
उन्होंने लगभग 24-25 वर्ष तक राजगढ़ किले से स्वराज्य का प्रशासन किया। सिंधुदुर्ग किला छत्रपति शिवाजी की कुशलता, दृढ़ता और दूरदर्शिता का प्रमाण है। इस किले का गोमुखी प्रवेश द्वार, मजबूत तटबंध, पानी के संरक्षित प्राकृतिक स्रोत और कई अन्य संरचनाओं में उनके शाश्वत विचार स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। प्रत्येक कार्य को सटीक रूप से पूरा करने की छत्रपति शिवाजी की यह शैली इस किले की इमारतों में परिलक्षित होती है। रायगढ़, दक्खन पठार और कोंकण तट को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने रायगढ़ की भौगोलिक स्थिति का भरपूर लाभ उठाया और पास के किलों के लिए आवश्यक संचार प्रणाली विकसित की। यहां बनी अनेक संरचनाएं उनके संवाद कौशल का उत्तम उदाहरण हैं। इसी तरह, सिंहगढ़ किले के नाम में ही वीरता झलकती है। इस किले का हर पत्थर कार्य-परायणता, कर्त्तव्य भावना तथा वचन-प्रतिबद्धता के प्रतीक है। यह त्रिसूत्री कार्य-संस्कृति और व्यक्तित्व विकास छत्रपति शिवाजी की कार्यशैली के अभिन्न अंग हैं।
कौशल का समावेश
जलदुर्ग के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि शिवाजी महाराज ने जलदुर्ग के निर्माण और जीर्णोद्धार में अनेक कौशलों का संयोजन किया। उन्होंने महाराष्ट्र के पश्चिमी तट पर सिंधुदुर्ग, कुलाबा, खान्देरी, पद्मदुर्ग और दुर्गाडी जैसे जलदुर्ग बनवाकर और विजयदुर्ग, सुवर्णदुर्ग और अन्य कई किलों का पुनर्निर्माण करा कर कोंकण तट पर अपना अधिकार स्थापित किया। विजयदुर्ग के निर्माण और उसके स्थापत्य से उनके परियोजना प्रबंधन और आयोजन के महत्वपूर्ण कौशलों का पता चलता है। इस किले के पास समुद्र के भीतर एक दीवार है। इस अदृश्य दीवार ने विजयदुर्ग को अभेद्य बना दिया था। पन्हालगढ़ किले में बने कुएं, जल कुंड और अन्न भंडारों की डिजाइन से छत्रपति शिवाजी की रचनात्मकता झलकती है।
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समन्वय, संचार और नवोन्मेष
मुख्य जलदुर्ग के साथ समन्वय, सतर्कता और संचार के लिए छोटे जलदुर्ग और तटीय दुर्गों की शृंखला का महत्व सुवर्णदुर्ग के माध्यम से स्पष्ट होता है। सुवर्णदुर्ग किले की सुरक्षा और निगरानी के लिए उन्होंने तट पर तीन उप-किले बनाए थे। इनके समन्वय से छत्रपति शिवाजी को संसाधनों के प्रभावी उपयोग में मदद मिली। इन सभी जलदुर्गों से उनकी प्रयोगशीलता, समस्या-समाधान दृष्टिकोण, टीमवर्क, आत्मनिर्भरता जैसे महत्वपूर्ण कौशल परिलक्षित होते हैं। सुवर्णदुर्ग किले के साथ तटीय उप-किलों का समन्वय यह दर्शाता है कि छत्रपति शिवाजी कितने प्रभावी तरीके से संसाधनों का उपयोग करते थे। इसके माध्यम से उन्होंने साहस, जोखिम उठाने की भावना और टीमवर्क का आदान-प्रदान किया। ये किले स्थापत्य, इतिहास और संस्कृति का अद्वितीय संगम हैं। ये केवल भौगोलिक संरचनाएं नहीं, बल्कि छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रशासनिक दूरदृष्टि, सैन्य कौशल और कार्य-संस्कृति के जीवंत प्रतीक हैं। इन्हीं विशिष्टताओं के कारण ये सभी दुर्ग ‘यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों ‘ के उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्यों पर खरे उतरते हैं।
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