प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय समन्वयक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य श्री जे. नंदकुमार ने कहा- संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल करने का सबसे उपयुक्त समय भारत के विभाजन का समय था, जो सांप्रदायिक हिंसा और रक्तपात से भरा हुआ था। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि डॉ. बी.आर. अंबेडकर जैसे नेताओं ने इसे तब शामिल नहीं किया।
उन्होंने जनम टीवी से बात करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले जी की टिप्पणियों को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है।
आपातकाल में आया धर्मनिरपेक्षता शब्द, अंबेडकर ने किया था खारिज
नंदकुमार जी ने कहा, “धर्मनिरपेक्षता शब्द को 1947-48 में प्रस्तावना में शामिल किया जाना चाहिए था। यह वह दौर था जब देश का विभाजन हुआ और उसके बाद लोगों को गहरे ज़ख्म मिले। उस समय डॉ. अंबेडकर, अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर और सी. राजगोपालाचारी जैसी विख्यात हस्तियाँ इस बात से पूरी तरह वाकिफ थीं कि प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल करने की कोई जरूरत नहीं है।”
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उन्होंने कहा- “यह मामला संसद में तीन बार उठाया गया और इस पर बहस हुई। सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श के बाद ही इसे शामिल न करने का फैसला किया गया। लेकिन 1976 में ऐसी कोई मांग नहीं की गई। तत्कालीन कानून मंत्री ने इसे संसद में विधेयक के रूप में पेश किया।”
उन्होंने यह भी बताया कि प्रस्तावना का उल्लेख संविधान के पहले भाग में है। निर्माण प्रक्रिया के दौरान संविधान सभा के सदस्य के.टी. शाह ने नवंबर और दिसंबर 1948 सहित तीन बार प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को शामिल करने की मांग की थी।
शाह ने शुरुआत में “धर्मनिरपेक्षता” और “संघीय समाजवाद” शब्द प्रस्तावित किए थे। हालांकि, मसौदा समिति की अध्यक्षता कर रहे डॉ. अंबेडकर ने इन प्रस्तावों को खारिज कर दिया।
होसबोले जी के शब्दों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है
नंदकुमार जी ने आगे कहा कि आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले जी के शब्दों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। उन्होंने कहा- “डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में 1950 में अपनाए गए संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द शामिल नहीं थे। ये दोनों शब्द 1976 में जोड़े गए, उस समय जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में लोकतंत्र और संविधान समेत कानूनी ढांचे को कुचला जा रहा था।”
“दत्तात्रेय होसबोले जी ने वास्तव में जो कहा था, वह यह था कि हमें यह जांच करनी चाहिए कि ये शब्द संविधान में कैसे आए। अपने भाषण में उन्होंने कहीं भी यह सुझाव नहीं दिया कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हटाया जाना चाहिए। ऐसा उनका कभी इरादा नहीं था।”
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नंदकुमार जी ने दोहराया कि होसबोले जी ने इन शब्दों को शामिल करने पर गंभीर चर्चा की आवश्यकता पर बल दिया था, विशेष रूप से लोकतांत्रिक प्रणाली और नए युग की उभरती जरूरतों के बारे में वर्तमान बहस के संदर्भ में। उन्होंने कहा, “लेकिन अब जो फैलाया जा रहा है, वह यह झूठा दावा है कि उन्होंने संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हटाने का आह्वान किया था।”
चर्चा से क्यों डरें..?
नंदकुमार जी ने एक सवाल भी उठाया: “हम चर्चा से क्यों डरते हैं?” ऐतिहासिक समझ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने आज के छात्रों और युवा पीढ़ी से इन शब्दों को शामिल करने के आसपास के तथ्यों से जुड़ने का आग्रह किया। उन्होंने कहा- “यह समझना महत्वपूर्ण है कि 1950 में मूल रूप से अपनाए जाने के 26 साल बाद ये दो शब्द संविधान में कैसे और क्यों आए।”
नंदकुमार जी ने वर्तमान पीढ़ी से अपील करते हुए निष्कर्ष निकाला कि जो, उनके अनुसार, स्वाभाविक रूप से आलोचनात्मक सोच में सक्षम हैं, उन्हें इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए।
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