भारत का संविधान केवल कानून की किताब नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति और स्वतंत्र चेतना का संहिताबद्ध दस्तावेज है। लेकिन क्या होगा जब इस संविधान की आत्मा, इसकी प्रस्तावना में ही तानाशाही की दूषित मानसिकता से हस्तक्षेप कर इसमें कुछ शब्द असंवैधानिक तरीके से जोड़ दिए जाएं?
आज हम बात कर रहे हैं वर्ष 1976 की, उस वर्ष की जब देश आपातकाल के अंधेरे में था। इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान 11 नवंबर 1976 को 42वां संविधान संशोधन पारित कराया। इसके तहत संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए, ‘समाजवादी’ और ‘सेकुलर’।
शब्दों की बात यदि एक बार छोड़ भी दें और इस कृत्य की प्रक्रिया का विश्लेषण करें तो आप पाएंगे कि राजनीतिक धृष्टता का यह कदम ऐसा था, जो संविधान सभा की मूल मंशा का ही उल्लंघन करता था और संविधान और इसकी प्रक्रियाओं को रौंदने वाली इस गलती का परिमार्जन 50 वर्ष बाद भी नहीं हुआ है।
अब बात शब्द की। ध्यान रहे कि इस देश के संविधान को रूप, आकार या कहिए जन्म देने वाली संविधान सभा ही भारतीय संविधान में सेकुलर शब्द जोड़ने के विरुद्ध थी। सभा के सदस्य के.टी. शाह ने तीन बार (15, 25 नवम्बर और 3 दिसम्बर 1948) “सेकुलर” शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा, लेकिन हर बार इसे सदन ने अस्वीकार कर दिया। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी इस शब्द को प्रस्तावना में जोड़ने का विरोध किया था। इसका सीधा अर्थ यह है कि संविधान सभा ने पर्याप्त विचार करने के बाद इन अभारतीय शब्दों में निहित भाव और मानसिकता को समझते हुए इन शब्दों को संविधान में शामिल नहीं किया।
जो सीमा और प्रक्रिया संविधान सभा ने इस संविधान के अनुपालकों ( विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए भी) तय कर दी उसे कौन बदल सकता है! हर किसी का कार्य, कार्य का स्वरूप और करने का तरीका संविधान तय करता है। हमारे संविधान के भाग 20 का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान संशोधित करने की शक्ति और प्रक्रिया देता है।
ऐसे में विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका भी संविधान का मूल ढांचा नहीं बदल सकती। संविधान की प्रस्तावना को इसकी आत्मा माना गया है, इससे छेड़छाड़ या इसमें परिवर्तन करना मूल ढांचे को परिवर्तित करना है।
बिना दोराय सबको यह स्पष्ट है कि 42वां संशोधन अधिनायकवादी तरीके से पारित किया गया। इस समय विपक्ष वस्तुतः अनुपस्थित था। मंत्रिमंडल की सहमति तो छोड़िए चर्चा तक कराए बिना राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आधी रात को आपातकाल की स्वीकृति पर मोहर लगवाई गई थी। यह संविधान द्वारा तय लोकतांत्रिक प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लंघन था।
42वें संशोधन ने न्यायिक समीक्षा को निष्क्रिय किया। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की शक्तियां घटाईं। संविधान को संसद की दासता में बदलने की कोशिश की गई। यह स्पष्ट रूप से आपातकालीन तानाशाही की विधायी अभिव्यक्ति थी।
संविधान के जानकार आपातकाल के दौरान प्रक्रियाओं के उल्लंघन के अलावा इन शब्दों की आवश्यकता पर भी प्रश्न उठाते रहे हैं। उनका तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 25, 27 पहले से धर्म, जाति, भाषा के आधार पर भेदभाव से मना करते हैं। इसलिए ‘सेकुलर’ शब्द जोड़ना कोई नई सुरक्षा नहीं देता, यह केवल राजनीतिक प्रतीकात्मकता है। यह स्वाभाविक भी है कि जिस संविधान से – सबके लिए समान – होने की अपेक्षा हमारे संविधान निर्माताओं ने की उसमें ‘विशिष्ट राजनैतिक प्रतीकात्मकता’ पर प्रश्न उठेंगे ही।
संवैधानिक प्रक्रियाओं को तानाशाही के बूटों तले कुचलने वाली राजनीति से इतर बात भारत की आत्मा की भी है। सनद रहे, भारत ‘आध्यात्मिक लोकतंत्र’ है, न कि पश्चिमी शैली का दो भागों में बंटा ‘सेकुलर स्टेट’। यह देश विविध पंथ, उपासना पद्धतियों और नैतिक परम्पराओं को सदियों से लोकजीवन का अनन्य भाग मानने वाला अनूठा आध्यात्मिक देश है। ऐसे में आयातित शब्दों की संघर्ष और विभाजक विचार वाली पृष्ठभूमि तथा इनसे लिपटी संकीर्ण वैचारिकता भारत की विविधता के संवेदनशील ताने-बाने को चोट पहुंचा सकती है।
अब बात करते हैं उस राजनीतिक दल की, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो इस पूरे संशोधन और आपातकाल की मुख्य दोषी रही। उस समय कांग्रेस को हिंदू वोट बंटते दिख रहे थे, जबकि मुस्लिम वोट बैंक को संगठित रखने की आवश्यकता थी। इसलिए ‘सेकुलर’ शब्द जोड़ना एक वैचारिक निर्णय नहीं, बल्कि राजनीतिक गणित और समीकरण का हिस्सा था। ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ने के पीछे भी शायद इंदिरा की यही वोट आधारित नीति और अवचेतन में छपा जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक विचार रहा जो समाजवाद को ‘कांग्रेस का ब्रांड’ मानते थे।
जब राहुल गांधी यह मान चुके हैं कि आपातकाल उनकी दादी की ‘गम्भीर भूल’ थी। दादी की गलती पोता मान ले तो इसे, ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ कहना चाहिए किंतु साथ ही केवल मानने से कुछ नहीं होता उस भूल के सुधार के लिए भी पोते को आगे भी आना चाहिए। यदि आपातकाल गलती थी, तो उस दौर में किए गए संविधानिक संशोधन भी उसी गलती का फल हैं।
क्या कांग्रेस आज उन गलतियों को सुधारने की राजनीतिक प्रयत्नशीलता दिखा रही है?
कांग्रेस आज “संवैधानिक मूल्यों” की बात करती है, लेकिन तथ्य यह है कि इस दल ने उन्हीं मूल्यों को कुचला है। जो पार्टी संविधान सभा के निर्णयों को दरकिनार कर, आधी रात में संविधान बदल दे – वह आज संविधान रक्षक बनने का नैतिक अधिकार कैसे रखती है?
यदि राहुल गांधी और कांग्रेस इस संशोधन को गलत निर्णय मानते हैं तो उन्हें चाहिए कि वे संसद में इस संशोधन की समीक्षा की मांग करें, और ‘सेकुलर’ तथा ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की पहल करें। क्योंकि केवल आलोचना नहीं, संस्थागत सुधार की पहल ही सच्ची ज़िम्मेदारी होगी।
क्या अब आत्मसमीक्षा का समय नहीं है? संविधान की आत्मा को केवल शब्दों से नहीं, नीयत और प्रक्रिया की शुद्धता से सुरक्षित रखा जा सकता है। आपातकाल एक राजनीतिक अपराध था और इसकी प्रस्तावना में छेड़छाड़ उसका वैधानिक संस्करण।
अब जब इस ऐतिहासिक भूल को स्वयं कांग्रेस स्वीकार चुकी है, तो देश को चाहिए कि वह इस विषय पर नया विमर्श, नया संकल्प, और नया साहस दिखाए। शब्दों के साथ बात प्रक्रिया और वैधानिकता की भी हो। यह देश के संविधान की आत्मा से जुड़ा प्रश्न है। संविधान की आत्मा को अक्षुण्ण रखना, भारत को विकृतियों और आशंकाओं से परे विविधता का संरक्षक बनाए रखना है।
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