भारतीय कला परंपरा केवल सौंदर्य और मनोरंजन तक सीमित नहीं है, अपितु यह जीवन-दर्शन की संवाहक परंपरा है। चिंतन की राष्ट्रीय धारा के ऋषि तुल्य चिंतक-विचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी की पुस्तक ‘हिन्दू कला दृष्टि: संस्कार भारती क्यों?’ इन्हीं बिंदुओं को केंद्र में रखकर भारतीय कला की आत्मा, उसकी गहराई एवं उसकी सामाजिक भूमिका पर विमर्श करती है। यह एक साधारण पुस्तक नहीं, अपितु एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का घोष है।
पुस्तक के लेखन का एक उद्देश्य कला-संस्कृति के क्षेत्र में राष्ट्रीय विचार को लेकर सक्रिय संगठन ‘संस्कार भारती’ का परिचय कराना भी है। लेखक ने प्रारंभ में ही बताया है कि संस्कार भारती की स्थापना का उद्देश्य क्या रहा है? ठेंगड़ी जी की यह पुस्तक ‘संस्कार भारती’ के लिए प्रकाश स्तम्भ की भांति है। प्रस्तावना में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति रहे कमलेशदत्त त्रिपाठी ने उचित ही लिखा है कि दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी की यह रचना कला-प्रेमियों और कला-समीक्षकों को तो गंभीर संदेश देती है।
लेखक ठेंगड़ी जी ने तीन अध्यायों- अबोधगम्य, दृष्टिकोण और दिशा में कला के संदर्भ में हिन्दू दृष्टि और संस्कार भारती की भूमिका को लेकर चर्चा की है। विमर्श को गंभीर और प्रामाणिक बनाने की दृष्टि से उन्होंने स्थान-स्थान पर उपयुक्त दृष्टांत एवं संदर्भ भी दिए हैं। दरअसल, हम भारतीय अभी तक मानसिक रूप से औपनिवेशिक दासता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। इसलिए हमें अपनी ज्ञान-परंपरा पर तब तक कोई विश्वास और गौरव की अनुभूति नहीं होती, जब तक कि कोई यूरोपीय विद्वान उसकी सराहना न कर दे। ‘हिन्दू कला तथा हिन्दू मानस’ की चर्चा करते हुए यह पीड़ा श्री ठेंगड़ी जी ने भी व्यक्त की है। वे लिखते हैं- “हमारा देश चार दशक से भी पहले स्वाधीन हो गया, किन्तु यहां का आधुनिक शिक्षित मानस अब भी पहले की भांति ही दास भाव से जकड़ा हुआ है।
पुस्तक में हिन्दू कला के मूल स्वरूप की व्याख्या की गई है, यहां कला एक ‘साधना’ है और कलाकार एक ‘साधक’। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि भारत की पारंपरिक कलाएं – जैसे नृत्य, संगीत, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि केवल अभिव्यक्ति के माध्यम नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन का हिस्सा रही हैं। यह कला दृष्टि, पश्चिमी दृष्टिकोण से भिन्न, आत्मा से संवाद की कला है। पुस्तक यह भी स्थापित करती है कि कला जीवन के अन्य विषयों एवं क्षेत्रों से अलग-थलग नहीं है।
श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने भूगोल से जोड़कर भी कला को देखने का एक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि भूगोल और कला का आपसी संबंध हमारे देश में लगभग अनदेखा-सा ही रह गया है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के संगीत में अंतर को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है- “उत्तर को अनेक आक्रमण झेलने पड़े, अत: उसने योद्धा जातियों को जन्म दिया। दक्षिण में जीवन अधिक शांतिपूर्ण था और लोगों के पास खेती-बाड़ी के लिए समय था। उन्हें विदेशियों से मिलने-जुलने के अधिक अवसर नहीं मिले। अत: वे परंपरावादी और अलग-थलग रहे। इसकी झलक उनके संगीत में मिलती है, जो पारंपरिक तथा शास्त्रीय बना रहा है”। राजस्थान, पंजाब और बिहार की भौगोलिक परिस्थितियों का संगीत पर क्या प्रभाव है, इसकी चर्चा भी लेखक ने की है। प्रकृति और संगीत के संबंध को भी उन्होंने देखा है।
पुस्तक की भाषा संस्कृतनिष्ठ किंतु प्रवाहमयी हिन्दी में है। श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी ने जटिल विचारों को भी सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिससे यह ग्रंथ शोधकर्ताओं के लिए ही नहीं अपितु सामान्य पाठकों के लिए भी उपयोगी बन गया है। शैली में भावात्मकता के साथ-साथ तर्क की स्पष्टता भी है, जो पाठक को गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करती है। कहना होगा कि यह पुस्तक एक वैचारिक और सांस्कृतिक दस्तावेज है, जो न केवल भारतीय कला की गरिमा को प्रतिष्ठित करता है, बल्कि आधुनिक समय में उसके पुनर्स्थापन की अनिवार्यता को भी रेखांकित करता है।
यह उन सभी पाठकों के लिए अनिवार्य पाठ है, जो भारतीय संस्कृति, कला और विचारधारा को केवल समझना नहीं, जीना भी चाहते हैं। अपनी इस रचना के माध्यम से श्री ठेंगड़ी ने कला-संस्कृति के क्षेत्र में शोध करने वाले समाज विज्ञानियों के सामने शोध की अनेक खिड़कियां खोली हैं। हिन्दू कला दृष्टि के विविध पक्षों को लेकर शोध होते हैं, तब हम न केवल अपने समाज को अपितु विश्व को भी हिन्दू कला के विपुल भंडार तक ले जाने में आवश्यक भूमिका का भूमिका का निर्वहन करेंगे।
(समीक्षक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)
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