भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर यूं ही नहीं माना गया है; हमारे वैदिक मनीषियों द्वारा प्रतिपादित “पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया” की उक्ति इसी अवधारणा की पोषक है। यही कारण है कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि से शुरू होने वाले हम सनातनधर्मियों के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली का पांच दिवसीय उत्सव में सबसे पहला महत्व ‘धनतेरस’ पर्व को दिया गया है। इस बारे में वैदिक शास्त्रों के विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल बताते हैं कि धन अर्थात समृद्धि और तेरस का अर्थ है 13 की संख्या। इस तरह धनतेरस का पर्व सात्विक धन को तेरह गुना बढ़ाने और उसमें वृद्धि करने का दिन माना गया है।
शास्त्रीय मान्यता है कि धनतेरस वाले दिन 13 दीपक जलाकर नये खरीदे बर्तन में भोग प्रसाद अर्पित कर मां महालक्ष्मी और धनाध्यक्ष कुबेर के पूजन से धन सम्पदा में अपूर्व वृद्धि होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिन परिवारों में धनतेरस के दिन प्रात:काल स्नान कर पर्व की प्रतिनिधि देव शक्ति के समक्ष दीपदान कर आरोग्य नियमों के पालन व धन के सुनियोजन के सत्संकल्प लिये जाते हैं वहां श्री सम्पदा व आरोग्य सुख सदा बना रहता है। इस दिन प्रदोष काल में यम देव के लिए दीपदान किया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है। धनतेरस के दिन बर्तन, सोना, चांदी, गहने खरीदना शुभ माना जाता है। कहा जाता है कि इस दिन खर्च किया गया धन घर में श्री सौभाग्य की वृद्धि करता है।
आयुर्वेद के प्रणेता ऋषि धन्वंतरि का प्राकट्य दिवस
शास्त्रों में वर्णित कथानक के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। शास्त्रीय मान्यता है कि संसार में चिकित्सा विज्ञान के विस्तार और प्रसार के लिए ही भगवान विष्णु ने धनवंतरि ऋषि के रूप में अवतार लिया था। महानतम आयुर्वेदाचार्य आचार्य धन्वंतरि को आयुर्वेद का जनक माना जाता है। इसी कारण इस पर्व को धन्वंतरि जयंती के रूप में मनाया जाता है। इनके जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमरत्व का अमृत कलश माना जाता है। सुश्रुत व चरक संहिताओं के साथ रामायण, महाभारत व श्रीमद्भागवत पुराण आदि पुरा साहित्य में आचार्य धन्वंतरि की आयुर्वेदिक उपलब्धियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। आरोग्य के प्रतिनिधि देवता के रूप में विख्यात आचार्य धन्वंतरि के स्वास्थ्य दर्शन के मुताबिक मानव देह की प्रत्येक कोशिका अपने आपमें एक संसार है। उनके मुताबिक भौतिक देह एक ऐसा संगठन है जो सृजन और विनाश की प्राकृतिक शक्तियों के मध्य एक सुनिश्चित क्रम और सन्तुलन में ढला रहता है। जब यह सन्तुलन बिगड़ता है, तब हमारे काय तंत्र में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी यह भारतीय अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। वे स्वास्थ्य को समग्रता में देखते हैं। उन्होंने स्वास्थ्य को व्यक्ति के स्व और उसके परिवेश से संतुलित तालमेल के रूप में परिभाषित किया और जीवन के इस ज्ञान विज्ञान को आयुर्वेद की संज्ञा दी। धन्वंतरि के तत्वदर्शन के अनुसार जिन पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, पानी, धरती) से यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड बना है, उन्हीं से हमारे शरीर की भी संरचना हुई है। इसीलिए प्रकृति के साथ तदाकार हुए बिना हम कभी स्वस्थ नहीं रह सकते। धन्वंतरि का आयुर्वेद वह विज्ञान है जो जीवन के लिए हितकारी और अहितकारी, पथ्य और अपथ्य, जीवन जीने की शैली, रोगों से बचाव के तरीके और रोगों के उपचार के उपायों का ज्ञान कराता है।
यही नहीं, उन्हें पशु-पक्षियों के स्वभाव, उनके मांस के गुण-अवगुण और उनके भेद भी ज्ञात थे। मानव की भोज्य सामग्री का जितना वैज्ञानिक व सांगोपांग विवेचन धन्वंतरि ऋषि ने किया है, वह आज के युग में भी दुर्लभ है। धन्वंतरि ऋषि ने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव-गुण को प्रकट किया। धन्वंतरि संहिता को आयुर्वेद का मूल ग्रंथ माना जाता है। उनके बाद चरक आदि आचार्यों ने आयुर्वेद की इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
परम्पराओं की बात करें तो वैद्यगण इस दिन विशेष रूप से धन्वंतरि ऋषि का पूजन कर यह वरदान मांगते हैं कि उनकी औषधि उपचार में ऐसी शक्ति आ जाए, जिससे रोगी को शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो। यह पर्व विशेष रूप से स्वास्थ्य, धन और समृद्धि से सम्बन्धित है। शास्त्रों में इस दिन प्रदोष काल में नदी, घाट, गोशाला, कुआं, बावली, मंदिर आदि स्थानों पर दीपदान करना शुभ फलदायी बताया गया है।
टिप्पणियाँ