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देखे 100 वसंत,अब भी उत्साह अनंत
वैदिक संध्या में यजुर्वेद का एक मंत्र आता है। मंत्र में परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि हम सौ वर्ष और उससे भी अधिक जीवित रहें।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं श्रुणुयाम शरद:
शतं प्रब्रवाम शरद: शतं दीना:
स्याम शरद: शतं। भूयश्च शरद: शतात्।।
अर्थात पूर्व दिशा से उदित होने वाले और देवताओं द्वारा स्थापित इस जगत के चक्षु-शुभ्र, स्वच्छ सूर्य देव से प्रार्थना की गई है कि हे सूर्यदेव, हम सौ शरद (वर्ष) देखें, हमारी नेत्र ज्योति तीव्र बनी रहे। हमारा जीवन सौ वर्षों तक चलता रहे। सौ वर्षों तक हम सुन सकें, हमारी कर्णेन्द्रियां स्वस्थ रहें। हम सौ वर्षों तक बोलने में समर्थ रहें, हमारी वागेन्द्रिय स्पष्ट वचन निकाल सके। हम सौ वर्षों तक अस्वस्थता से बचे रहें, दूसरों पर निर्भर न होना पड़े, हमारी सभी इन्द्रियां कर्मेन्द्रियां तथा ज्ञानेन्द्रियां, दोनों शिथिल न होने पाएं और यह सब सौ वर्षों बाद भी हो। हम सौ वर्ष ही नहीं उसके आगे भी निरोग रहते हुए जीवन धारण कर सकें।
यजुर्वेद की प्रार्थना में मनुष्य के सौ वर्ष तक जीवित रहने की एक कसौटी दी गई है, इस पर बहुत कम लोग खरे उतरते हैं। इस कसौटी पर खरे उतरे हैं धन प्रकाश जी। वे रा.स्व.संघ के प्रचारक हैं और आयु का यह पड़ाव पार करते हुए वे संघ के वयोवृद्ध प्रचारक हैं। धनप्रकाश जी अपने जीवन के सौ वर्ष पूर्ण कर 101वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। यह संभवत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास का पहला उदाहरण होगा, जब किसी प्रचारक ने अपने जीवन के सौ वर्ष पूर्ण किए हों। वह भी पूर्ण स्वस्थता के साथ। वे देश के उन चुनिंदा प्रचारकों में से एक हैं, जिन्हें संघ के सभी सरसंघचालकों का सान्निध्य और उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला है। धनप्रकाश जी आज भी अपने दैनिक कार्य स्वयं करते हैं और इस उम्र में भी लेखन और अध्ययन में अपना समय व्यतीत करते हैं। वरिष्ठतम धनप्रकाश जी संघ परिवार और विचारधारा से जुड़े लोगों में लिए प्रेरणास्रोत हैं।
दरअसल, लगातार काम, प्रवास और अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा के कारण संघ में प्रचारक वृत्ति एक कठिन साधना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में कई उतार-चढ़ावों के साक्षी रहे वरिष्ठ प्रचारक धनप्रकाश जी सुबह पांच बजे से अपनी दिनचर्या की शुरुआत करते हैं। शाखा जाना, व्यायाम, प्राणायाम करना और उसके बाद स्वाध्याय करना, यह सब उनके दैनिक कार्यों का अनिवार्य हिस्सा है। संघ कार्यालय पहुंचने वाले सभी स्वयंसेवकों से खुलकर बातचीत करना और सहज भाव से मनोविनोद कर लेना उनकी कला है। वह देश के ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करना भी नहीं भूलते।
जीवन में हमेशा सत्य बोलना धनप्रकाश जी के जीवन का दृढ़ संकल्प है। वे यही सीख वातार्लाप करने वाले स्वयंसेवकों को भी देते हैं। शिक्षा में नैतिक शिक्षा का अभाव उन्हें खलता है। धर्म के दस लक्षण वाला पत्रक उन्होंने स्वयं हाथ से लिखकर तैयार कर रखा है। इसकी कई सारी फोटो प्रतियां उनके पास हैं। चर्चा के बाद आपको भी उसकी कॉपी सशर्त मिल सकती है। शर्त है आपको उसका प्रचार-प्रसार करना है, ताकि जीवन में नैतिकता को बढ़ावा मिले। उनके दौर से लेकर आज तक समाज में आए बदलाव, उनके स्वस्थ जीवन का राज और भावी पीढ़ी के लिए उनका संदेश जैसे
कई मुद्दों पर धनप्रकाश जी के साथ पाञ्चजन्य के सम्पादक हितेश शंकर और ईश्वर वैरागी की चर्चा हुई। प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के प्रमुख अंश-
आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में कब आए और प्रचारक कैसे बने?
वर्ष 1942 की बात है। मैं दिल्ली में नौकरी करता था। मेरे किसी साथी ने बताया कि कुछ उपद्रवी लोग हिन्दुओं को बहुत परेशान करते हैं। जहां-तहां हिन्दुओं की पिटाई हुआ करती थी। मैंने पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए तो उसने बताया कि हिन्दुओं का एक संगठन खड़ा हुआ है, आपको उससे जुड़ जाना चाहिए। वह मुझे दिल्ली में मिंटो रोड स्थित रेलवे क्वाटर्स ले गए। वहां रा.स्व.संघ की शाखा लगती थी। उन्होंने मुझे उस शाखा में बैठा दिया। इस प्रकार मैं नित्य शाखा जाने लगा। इसके बाद संघ के जितने भी कार्यक्रम होते थे, मैं उनमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। उस समय बसंतराव ओक दिल्ली में प्रचारक हुआ करते थे। एक बार साठ मील दूर यमुना के किनारे एक कार्यक्रम रखा गया। हम सभी लोग साइकिल से वहां पहुंचे। सभी कार्यक्रमों में मेरी उपस्थिति देखकर बसंतराव ओक के मन में आया कि मैं संघ का काम अच्छे से कर सकता हूं।
एक दिन मुझसे पूछा गया कि आप संघ का काम करने के लिए बाहर जा सकते हैं क्या? इस पर मैंने सहर्ष सहमति दे दी और उसी दिन से दफ्तर जाना बंद कर दिया। संगठन ने मुझे सहारनपुर भेज दिया। रोटी का प्रबंध एक कार्यकर्ता के यहां कर दिया गया। बस यहीं से मेरे प्रचारक जीवन की शुरुआत हुई। इसके बाद मुझे अलीगढ़ भेजा गया। यहां अलीगढ़ विश्वविद्यालय के गुंडा तत्व स्थानीय लोगों को पीटते थे। उनसे कई बार हमारी झड़प हुई। कुछ समय बाद उनके मन में संघ का डर पैदा हो गया और उन्होंने लोगों को परेशान करना छोड़ दिया।
उस जमाने में मजदूर संगठनों में कांग्रेस-कम्युनिस्टों का बोलबाला था। ऐसे में मजदूरों के बीच भारतीय मजदूर संघ को स्थापित करने में आपके सामने क्या कठिनाइयां आर्इं?
यह बात सही है कि उस समय मजदूर संगठनों कांग्रेस और कम्युनिस्टों का प्रभाव था। उनकी तूती बोलती थी, लेकिन दृढ़ संकल्प के साथ हमने काम शुरू किया। भारतीय मजदूर संघ ने मजदूरों के बीच पैठ बनाने के लिए यह घोषणा की कि हम कभी झूठ नहीं बोलेंगे। इसके बाद लोगों का विश्वास बढ़ने लगा और धीरे-धीरे वे संगठन से जुड़ने लगे और काम बढ़ता चला गया। अन्य मजदूर यूनियन मालिकों से पैसे लेकर मजदूरों के हितों से समझौता कर लेती थीं। लेकिन भामस ने जो कहा वही किया। अन्य मजदूर संगठनों की तुलना में हम खूब काम करते थे। इससे मालिकों और मजदूरों के बीच संगठन की पकड़ मजबूत हुई।
रा.स्व. संघ के काम में इतने दशक बाद आप क्या परिवर्तन देखते हैं?
रा.स्व. संघ का काम पहले की तुलना में काफी बढ़ा है। पहले शाखा आधारित काम था। धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों में संगठन खड़े होते गए। इसका फायदा यह हुआ कि जो लोग शाखा में नहीं जा सकते थे, वे इन संगठनों में आने लगे। इससे संघ का काम सर्वस्पर्शी होता जा रहा है। संघ का व्याप काफी बढ़ा है, लेकिन अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है। संघ का सभी क्षेत्रों में काम बढ़ा है। एक ही उद्देश्य है- समाज देशाभिमुखी हो। 2021 तक दुनिया में भारत की स्थिति संतोषजनक होगी। जो साल बचे हैं, इनमें काफी जागृति पैदा हो जाएगी।
गुरुजी के साथ आपका संपर्क रहा। उनसे जुड़ा कोई संस्मरण?
एक बार आदर्श विद्या मंदिर, जयपुर में एक कार्यक्रम रखा गया था। उसमें गुरुजी आए थे। उसके बाद उन्हें जब छोड़ने गया, तब उन्होंने मुझे गले से लगाया था। जब स्टेशन छोड़ने गया तो भीड़ थी और वे मेरे पास ही थे। जब मैंने उन्हें प्रणाम किया तो लगा कि मेरे प्रणाम का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। जब वे उठकर जाने लगे तो सबसे पहले मुझे प्रणाम किया। तो मैं समझ सकता हूं कि वे सचमुच में अंतर्यामी थे। मेरे मन में जो भाव आया, उसका पता उन्हें लग गया। बाद में भी उनसे मुलाकात हुई। एक बार गुरुजी शंकराचार्य से मिलने गए थे। उसके बाद मेरे घर आए तो मैंने पूछा कि शंकराचार्य जी से कोई बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि नहीं, कोई बातचीत नहीं हुई। हम दोनों के बीच बस भावों का आदान-प्रदान हुआ। इससे पता चलता है कि गुरुजी भी एक योगी ही थे। मेरे मन में उनके प्रति आज भी अगाध श्रद्धा बनी हुई है।
इस आयु में भी आप काफी सक्रिय दिखते हैं।
अभी तक काम कर रहा हूं। आंख में जाला वगैरह होने से अखबार के मोटे-मोटे अक्षर ही पढ़ पाता हूं। किन्तु फिर भी स्वाध्याय तो चलता ही है। टेलीविजन वगैरह यहां है भी नहीं। उसमें मेरी रुचि भी ज्यादा नहीं है।
आपका प्रतिदिन स्वाध्याय कितना होता है?
अच्छे लेखकों की पुस्तकें पढ़ने का शौक मुझे शुरू से ही रहा है। मेरे मन पर इसका असर भी हुआ है। मैंने लोकमान्य तिलक की जीवनी पढ़ी थी। तिलक की जीवनी ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उसकी भूमिका बहुत अच्छी है। अब भी कार्यालय में आने वाले समाचारपत्र तो मैं पढ़ता ही हूं, कुछ अच्छी पुस्तकें मिल जाती हैं तो उन्हें भी पढ़ लेता हूं। उम्र ज्यादा होने से संघ की जिम्मेदारियों से मुक्त हूं। इसलिए स्वाध्याय करने का खूब समय मिल जाता है। कई सारे लेख भी लिखे हैं, लेकिन वे अप्रकाशित हैं।
देश की वर्तमान परिस्थितियों के बारे में आपका क्या विचार है?
वर्तमान में देखने में आ रहा है कि देश में नैतिक शिक्षा का अभाव है। नागरिकों की नैतिकता कैसे ऊंची हो, उनमें सद्गुण कैसे आए, इस पर विचार नहीं हो रहा है। विद्यालय में जाने वाले बच्चे ए, बी, सी, डी तो जानते हैं, लेकिन नैतिकता क्या है, यह कोई नहीं जानता। नैतिकता का मतलब है- मनुष्य में सद्गुणों का विकास। हमारी शिक्षा पद्धति सद्गुणों का विकास करने वाली होनी चाहिए।
संक्षिप्त जीवन वृत्ता
धनप्रकाश त्यागी 10 जनवरी को अपने जीवन के 101वें साल में प्रवेश कर गए। उनका जन्म 10 जनवरी, 1918 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिला स्थित महेपुरा गांव में हुआ। उन्होंने 1942 में दिल्ली से संघ का प्राथमिक शिक्षा वर्ग, 1943 में प्रथम वर्ष, 1944 में द्वितीय वर्ष तथा ’47 में संघ शिक्षा का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। केन्द्र सरकार की नौकरी त्याग कर उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ को समर्पित कर दिया। 1943 में दिल्ली के संघ विस्तारक बने। उन्होंने सहारनपुर , अलीगढ़ , अंबाला, हिसार, गुरुग्राम, शिमला एवं होशियारपुर में संघ के विभिन्न दायित्वों का निर्वाह किया। संघ पर लगे प्रथम प्रतिबंध के समय धनप्रकाश जी जेल में भी रहे। 1965 से 1971 तक जयपुर विभाग प्रचारक के रूप में जिम्मेदारी संभाली। इसके बाद सेवा भारती, विद्याभारती की जिम्मेदारी भी उन पर रही। राजस्थान में भारतीय मजदूर संघ के विस्तार में धनप्रकाश की बड़ी भूमिका रही है। कठिन चुनौतियों और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच उन्होंने जीवन का लंबा समय भारतीय मजदूर संघ के काम को खड़ा करने, उसे मजबूत करने में लगाया।
शतायु जीवन का राज अनुशासित दिनचर्या
देश के वयोवृद्ध प्रचारक धनप्रकाश जी अपने दैनिक कार्य स्वयं करते हैं। होली हो या दीवाली, हर उत्सव स्वयंसेवकों के साथ मनाते हैं। संघ के क्षेत्र कार्यालय भारती भवन में रहने वाले सभी कार्यकर्ता उनका भरपूर ख्याल रखते हैं, फिर भी वे किसी को अपना काम करने का अवसर नहीं देते।
दीर्घायु और स्वस्थ जीवन का राज पूछने पर धनप्रकाश जी ठहाका लगाते हुए बताते हैं, ‘‘मेरे स्वस्थ जीवन का राज सामान्य सा है। मैं रात को सोने से पहले नीम के पत्ते पानी में डाल दे देता हूं, पानी कड़वा हो जाता है। सुबह उठने के बाद सबसे पहले एक-डेढ़ गिलास कड़वे पानी से उषापान करता हूं। इससे सम्पूर्ण शरीर विकार रहित हो जाता है। आंतें साफ हो जाती हैं। मल त्याग करने में आसानी होती है। इसके और भी फायदे मुझे मिल रहे हैं। पहले आंखों में लाल-पीले तिरमिरे आते थे, अब वे समाप्त हो गए। नीम स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छा है। इसके अलावा, सात्विक और कम भोजन करता हूं। सुबह-शाम एक रोटी और सब्जी खाता हूं। मिठाई से परहेज करता हूं। विवाह समारोह में भी जाता हूं तो केवल दूध ही पीता हूं। आंतों को स्वस्थ रखने के लिए कुछ फल जैसे- अनार, अमरूद और हरड़ की नमकीन गोलियां खा लेता हूं। कोशिश करता हूं कि किसी तरह पेट साफ रहे। ताकत के लिए आयुर्वेदिक टॉनिक भी अब लेना शुरू किया है।’’
व्यायाम को लेकर अपने जीवन की एक रोचक घटना सुनाते हुए धनप्रकाश जी कहते हैं, ‘‘एक बार कबड्डी खेलने के दौरान मेरे पैर के पंजे बाहर को मुड़ गए। मैंने पंजों को घुमाया और सीधा कर लिया था। लेकिन जब तक शरीर में खून था, क्षमता थी मुझे महसूस नहीं होता था। स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक था। जब उम्र बढ़ी और मैं 98 साल का हुआ तो शरीर में कमजोरी आने लगी। एक दिन सुबह मैं उठकर चलने लगा तो मेरे पैर इधर-उधर मुड़ने लगे। मैंने सोचा यह क्या बला आ गई? अब मैं प्रतिदिन प्रात: दो-तीन प्रकार के तेलों से करीब पौन घंटा दोनों पैरों की मालिश करता हूं। अब ऐसा लग रहा है कि घुटने फिर ठीक हो रहे हैं। ऐसे करके जीवन चल रहा है। लेकिन कभी-कभी सोचता हूं कि बुढ़ापे का फायदा ही क्या है।’’
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