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हितेश शंकर
समय के आकाश पर घटनाओं की चमक कई बार पूर्णत: नए परिदृश्य पैदा करती है। इस प्रतिपदा की अरुणिमा कुछ ऐसी ही है। पूर्वोत्तर के अलंघ्य कहे जाते रहे क्षेत्र में, तीन राज्य विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधनों की जीत और विशेषकर त्रिपुरा में वामपंथी कुशासन का किला ढहने से यह दृश्य पैदा हुआ है। यह दृश्य केवल लेनिन की मूर्ति गिरने और इससे जुड़ी खबरों का नहीं है। सचाई यह है कि पूर्वोत्तर की हर छोटी-बड़ी घटना में एकाएक पूरे देश की जिज्ञासा जाग गई है और यही मार्के की बात है। यह जिज्ञासा जरूरी है। आखिर, क्यों हम सब अब तक अपने ही देश के इन सब राज्यों, सामरिक और सांस्कृतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्से के प्रति उदासीन रहे? इस परिवर्तन को लेकर दिख रही दिलचस्पी के बीच पूर्वोत्तर से जुड़ा एक प्रश्न हम सब को स्वयं से जरूर पूछना चाहिए— हम इस क्षेत्र के प्रति उदासीन हुए तो क्यों हुए? अहोम राजा अलंघ्य थे तो आक्रांताओं के लिए थे, भारतीय संस्कृति में रचा-बसा, पूर्वोत्तर अलंघ्य और अलग कब था! मुगल सेनाओं को धूल चटाने वाले लचित बड़फूकन का शौर्य, रानी मां गाइदिन्ल्यू का ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सिंहनाद इस राष्टÑ की सांस्कृतिक अस्मिता का ही तो उद्घोष था! पंचतत्व को पूजते जनजातीय समाज और घाटियों में गूंजते विष्णुभक्ति नाद में इस क्षेत्र को अलग करने वाले तंतु थे या एकात्म संस्कृति के सूत्र! पूर्वोत्तर जागा था किन्तु ठंडे, निर्मम सियासी षड्यंत्रों और बाकी देश की उदासीनता ने उसे शिथिल कर दिया था।
हाल तक चली राजनीति के गुणा-भाग ऐसे ही तो थे! इन राज्यों में कुर्सी पर गहरी और लगातार पकड़ सबको संदिग्ध और अलोकप्रिय तो लगती थी, किन्तु लोगों के पास चारा ही क्या था! इस बदलाव की आहट के साथ ही आशा की जानी चाहिए कि अब यह सिलसिला जरूर टूटेगा। दिल्ली में सत्ता का केन्द्र बदलने के करीब चार वर्ष बाद हुआ यह परिवर्तन इसलिए भी स्वागतयोग्य है क्योंकि इसमें राजनीतिक सक्रियता का मुकाबला सामाजिक सजगता से था। यह रेखांकित करने वाली बात है कि राजनीति में सांप्रदायिकता का विरोध करने वाली सेकुलर लामबंदियां जब चर्च द्वारा भाजपा के खुले लिखित विरोध पर कुंडली मारे बैठी थीं, जब सेकुलर पार्टियों के राजनीतिक हरकारे चर्च में ही भविष्य की राजनीति पर मजहबी आकाओं के साथ सिर से सिर जोड़े बैठे थे तब यह परिवर्तन हुआ है।
— यह उन लोगों के लिए सबक है जिन्हें लगता था कि पूर्वोत्तर को सिर्फ चर्च और मिशनरी इशारों पर चलाया जा सकता है और चलाया जाना चाहिए।
— यह सबक उन लोगों के लिए भी है जो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए देश में विखंडन को बढ़ावा दे रहे थे। ये ऐसे सत्ताधीश थे जिन्हें लगता रहा कि किसी राज्य की जनसंख्या का सांप्रदायिक और जातीय आधार पर विभाजन लोगों को देशहित से मुद्दों से भटका सकता है।
इन चुनावों में ईसाई अथवा जनजातीय बहुलता वाले क्षेत्रों में जनता ने इस बात पर मुहर लगाई है कि उसके लिए पहचान और आस्था व्यक्तिगत प्रश्न है और पांथिक पहचान से पहले इस देश के सभी नागरिक भारतीय हैं। ये तमाम कारण ऐसे हैं जो इस परिवर्तन को बड़ा फलक देते हैं। भाजपा की जीत पर समर्थकों को तो खुशी होगी ही, बाकी देश के लिए उत्साह की बात यह है कि राष्टÑीय विचारों का व्याप अब स्थानीय दल और नेतृत्व के लिए नए दरवाजे खोल रहा है। इससे किसे इनकार होगा कि ‘पूरब की ओर देखने’ और ‘पूरब के लिए करने’ की भाजपा की राजनीतिक सोच ने इस बदलाव को यह ऊंचाई दी है। बहरहाल, भाजपा के पूर्वोदय और प्रतिपदा के सूर्योदय के बीच नागपुर में राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के आयोजन का संयोग बना है। संघ के अधिष्ठाता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही है। संस्कृति की अलख और राजनीति के फलक को जोड़कर बहुत खबरें गढ़ी जा सकती हैं, लेकिन यह समय की अपेक्षा है कि मीडिया संघ में सिर्फ भाजपा की खबर तलाशने की बजाय अब इससे आगे भी रुख करेगा। पूर्वोत्तर में दशकों से दबी बुरी खबरों की खंगाल समय की जरूरत है और वहां से कुछ सकारात्मक समाचारों की चाह पूरे देश में है।
विक्रमी संवत् 2075 की सभी को शुभकामनाएं!
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