बांग्लादेश में महान भारतीय फिल्मकार सत्यजीत रे का पैतृक निवास एक बार फिर सुर्खियों में है। पिछले दिनों उस देश की इस्लामी कट्टरपंथियों के कथित दबाव में काम कर रही यूनुस सरकार ने सत्यजीत रे के उस 200 साल पुराने घर को तोड़ने की ओर कदम बढ़ाए थे। बांग्लादेश सरकार की इस हरकत के लिए उसे दुनिया भर से लानतें भेजी जाने लगीं। सत्यजीत रे की कर्मभूमि रहे भारत के लोगों के दिल पर इस घटना से चोट लगना स्वाभाविक ही था। लोगों ने सोशल मीडिया पर बांग्लादेश सरकार को इस निर्णय के लिए भर—भर कर कोसना शुरू कर दिया। लेकिन अगले ही दिन कई तस्वीरें जारी हुईं जिनमें फावड़े—कुदाल लेकर मजूदर सत्यजीत रे का घर तोड़ते दिखे। इस बीच भारत सरकार हरकत में आई। विदेश विभाग ने बयान दिया कि यूनुस सरकार इस घर के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस कार्रवाई को तुरंत रोके। भारत ने तो यहां तक कहा कि वह इस घर के संरक्षण के लिए पैसा तक लगाने को तैयार है।
आखिरकार लोगों के दबाव और भारत के कूटनीतिक प्रयास रंग लाए हैं और उस इस्लामी देश की युनूस की अगुआई वाली अंतरिम सरकार ने उस महान फिल्मकार के घर को संरक्षित रखने का निर्णय लिया है। इतना ही नहीं, यूनुस सरकार की ओर से कहा गया है कि इसके पुनर्निर्माण के लिए विशेष कमेटी भी गठित की गई है। सरकार का यह फैसला अब सांस्कृतिक महत्व के उस घर का ढहना रोक देगा। इस नई स्थिति के बाद संभवत: बांग्लादेश के सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श में कट्टरपंथी प्रभावों को चुनौती देने का भी एक चलन शुरू हो सकता है।
सत्यजीत रे का जन्म भारत में हुआ था, लेकिन उनके पूर्वज बांग्लादेश के किस्तवार इलाके से संबंध रखते थे। उनकी बनाई फिल्में मानवता, समाज और परंपराओं की सूक्ष्म पड़ताल करती मालूम हैं, जो भारतीय उपमहाद्वीप की साझा सांस्कृतिक विरासत को देश—विदेश तक गुजाने का काम करती हैं। यही वजह है कि सत्यजीत रे का पैतृक घर केवल एक इमारत के रूप में नहीं देखी जाती, बल्कि यह बांग्ला सांस्कृतिक एकता और ऐतिहासिक चेतना का भी प्रतीक बन गया है।

इस्लामी कट्टरपंथ की आग में झोंके जा रहे उस देश में, मजहबी उन्मादी तत्व विशेषरूप से भारतीय और हिन्दू सांस्कृतिक धरोहरों को मिटाने पर तुले दिखते हैं। यही वजह है कि बीते कुछ वर्षों में बांग्लादेश में कुछ इस्लामी कट्टरपंथी समूह अपने देश के सांस्कृतिक—राजनीतिक महत्व के स्थलों और गैर-इस्लामी विरासतों को मिटाने की मुहिम चलाए हुए हैं।
इसी सोच के निशाने पर था सत्यजीत रे का पैतृक निवास, क्योंकि कट्टरपंथी ताकतें इसे ‘हिंदू प्रतीक’ या ‘भारतीय प्रभाव’ के रूप में देखती हैं। यह रुख केवल सांस्कृतिक विविधता पर चोट नहीं है, बल्कि बांग्लादेश की बहुलतावादी पहचान को धो—पोंछ देने का भी प्रयास है।
महान फिल्मकार के घर को तोड़े जाने की घटना पर भारत ने सही समय पर हस्तक्षेप किया और इसे रोकने का कूटनीतिक दबाव बनाया। भारत ने इस मुद्दे को सांस्कृतिक कूटनीति के रूप में प्रस्तुत किया, जहां इस मुद्दे को एक ऐतिहासिक विभूति की विरासत के संरक्षण की साझा जिम्मेदारी के रूप में प्रस्तुत किया गया।
भारत के विदेश मंत्रालय और सांस्कृतिक संस्थानों ने बांग्लादेश सरकार से संवाद स्थापित किया, जिसमें इस धरोहर के संरक्षण की मांग रखी गई। बेशक, अब इस दबाव का असर दिखा है और युनूस सरकार ने इस घर को तोड़ने के फैसले को निरस्त किया है। इसके साथ ही वहां की सरकार ने इसके पुनर्निर्माण के लिए एक विशेष कमेटी गठित की है।

सरकार द्वारा इस कमेटी में विशेषज्ञों को शामिल किया गया है, जिसमें प्रमुख रूप से इतिहासकार, वास्तुशिल्प विशेषज्ञ और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। यह कमेटी न केवल इस महत्वपूर्ण इमारत के पुनर्निर्माण की योजना बनाएगी, बल्कि इसे संग्रहालय या सांस्कृतिक केंद्र में परिवर्तित करने की संभावना भी तलाशेगी। अगर ऐसा होता है तो यह बांग्लादेश के समाज के लिए ही नहीं, अपितु भारत में सत्यजीत रे के असंख्य चाहने वालों के लिए भी एक बड़ी राहत और संतोष की बात होगी।
कह सकते हैं कि उस देश में सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित रखने से जुड़ा यह विवाद केवल उस एक इमारत तक सीमित नहीं है; यह उस बड़े संघर्ष का हिस्सा है जिसमें एक तरफ समावेशी, बहुलतावादी संस्कृति है तो दूसरी तरफ संकुचित मजहबी सोच। शेख मुजीबुर्रहमान के त्याग और समर्पण की बुनयाद पर खड़ा बांग्लादेश जैसा देश अगर कट्टरपंथ के दबाव में झुकता है तो उसकी पहचान खतरे में पड़ सकती है।
सत्यजीत रे का पैतृक निवास एक उदाहरण बन सकता है कि कैसे ऐतिहासिक विरासतों को बचाकर सामाजिक चेतना को जीवित रखा जा सकता है। अगर युनूस सरकार अपना विवेक जगाए रखकर इस प्रकार की हरकतों पर लगाम लगाती है तो यह चीज उस देश को सभ्य समाज के मध्य बनाए रख सकती है जिसे संभवत: जिन्ना के देश की शह पर मजहबी उन्मादी पाषाणकालीन सोच के तत्व शरिया की धरती बनाने पर तुले हैं।
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