विश्व धरोहर-मराठा सैन्य परिदृश्य : दुर्ग हिंदवी, समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से नए युग का निर्माण छत्रपति की दुर्ग धरोहर
July 20, 2025
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छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्ग: स्वाभिमान और स्वराज्य की अमर निशानी

छत्रपति शिवाजी ऐसे अद्वितीय नायक थे, जिन्होंने केवल तलवार और नीति से ही नहीं, बल्कि कला, संस्कृति और स्थापत्य से भी एक नए युग का निर्माण किया।

by नागार्जुन
Jul 19, 2025, 11:00 pm IST
in भारत, महाराष्ट्र
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छत्रपति शिवाजी ऐसे अद्वितीय नायक थे, जिन्होंने केवल तलवार और नीति से ही नहीं, बल्कि कला, संस्कृति और स्थापत्य से भी एक नए युग का निर्माण किया। उनके 12 किलों को यूनेस्को से मान्यता मिलना दर्शाता है कि उनकी राजनीतिक दूरदृष्टि और स्थापत्य दृष्टिकोण वैश्विक धरोहर के रूप में स्वीकार्य है।

शिवनेरी दुर्ग-

स्वाभिमान की अमर निशानी

शिवनेरी किला पुणे के जुन्नर गांव के पास स्थित एक प्राचीन और अभेद्य गिरिदुर्ग है। इसका इस्तेमाल मुख्यत: बंदरगाह शहर कल्याण तक के पुराने व्यापारिक मार्ग की रक्षा के लिए होता था। खड़ी चट्टानों से घिरा यह किला छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्मस्थान है। यह न केवल मराठा साम्राज्य की नींव का साक्षी रहा, बल्कि यह भारत की स्वतंत्रता की भावना का प्रेरणास्रोत भी बना।

शिवनेरी किले का इतिहास सातवाहन काल (ईसा पूर्व) से आरंभ होता है। पहाड़ी की तीनों ढलानों पर स्थित गुफाएं इसका प्रमाण हैं। इसके बाद इस क्षेत्र पर शिलाहार, चालुक्य, यादव, बहमनी सुल्तान और मुगल शासकों का अधिकार रहा। 1599 ई. में यह किला छत्रपति शिवाजी के पितामह मालोजी भोसले को अहमदनगर के सुल्तान बहादुर निजामशाह से जागीर स्वरूप मिला था।

शिवाजी राजे के पिता शाहाजीराजे भोसले बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की सेना में सेनापति थे। निरंतर युद्ध के कारण उन्होंने अपने परिवार को शिवनेरी में भेज दिया, जहां छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ। किले में माता शिवाई का एक मंदिर था। शिवाजी महाराज का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया। 1630 के बाद यह किला मुगलों के अधीन चला गया। शिवाजी महाराज ने 1674 ई. में इस पर अधिकार पाने का प्रयास किया, पर यह संघर्ष का केंद्र नहीं बन पाया। किले तक जाने के सात द्वार हैं, जिन्हें इस प्रकार बनाया गया कि शत्रु-प्रवेश कठिन हो। हाथी का आक्रमण रोकने के लिए पांचवें द्वार पर लोहे की नुकीली कीलें लगाई गई थीं।

किले में दो जलकुंड, ‘गंगा’ और ‘जमुना’ चट्टानों को काटकर बनाए गए थे। किले में पानी के कई टैंक, अस्तबल भी थे। यह किला मराठा स्वाभिमान, संघर्ष और आत्मगौरव का प्रतीक है। इसकी अभेद्यता, सामरिक स्थिति और ऐतिहासिक महत्व इसे एक अमूल्य धरोहर बनाते हैं। सर रिचर्ड टेंपल ने इसे ‘एक जननायक के जन्म के लिए उपयुक्त स्थल’ बताया है। यह कथन आज भी शिवनेरी की गरिमा को अभिव्यक्त करता है। किले का मुख्य आकर्षण है वह कक्ष, जहां शिवाजी महाराज का जन्म हुआ था। हाल के वर्षों में पुनर्निर्माण किया गया है। पास ही में ‘शिवकुंज मंदिर’ में माता जीजाबाई और बालक शिवाजी की प्रतिमाएं आज भी श्रद्धा केंद्र हैं।

स्थापत्य और भौगोलिक विशेषताएं : किला त्रिकोणीय पर्वत की चोटी पर है, जिसकी ऊंचाई लगभग 300 मीटर है। इसका आधार दक्षिण की ओर चौड़ा और शिखर उत्तर में संकीर्ण है। नानेघाट दर्रे के निकट होने के कारण यह सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। यह किला पश्चिमी घाट के व्यापारिक मार्गों और घाटी की निगरानी के लिए भी उपयुक्त था। किले का आकार शिवलिंग के समान है। इसकी ऊंचाई तथा खड़ी ढलानें इसे शत्रुओं के लिए दुर्गम बनाती हैं।

लोहगढ़ दुर्ग-

मराठा साम्राज्य का अभेद्य दुर्ग

लोहगढ़ किला महाराष्ट्र के पुणे जिले में लोनावला के पास सह्याद्रि पर्वत शृंखला की एक शाखा पर समुद्रतल से लगभग 1050 मीटर (लगभग 3400 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। इसका नाम ‘लोहगढ़’ (लोहे का किला) इसकी अभेद्यता और मजबूती को दर्शाता है। पूर्व मेें इस किले पर सातवाहन, चालुक्य, राष्ट्रकूट, यादव, बहमनी, निजाम और मुगलों का अधिकार रहा।

छत्रपति शिवाजी महाराज ने 1648 ई. में इस किले पर अधिकार किया था। परंतु उन्हें 1665 ई. में पुरंदर की संधि के तहत इसे मुगलों को सौंपना पड़ा। बाद में, 1670 ई. में उन्होंने इसे पुनः जीत लिया। शिवाजी महाराज ने किले में कई सैन्य और रणनीतिक सुधार किए, जैसे मजबूत किलेबंदी, दीवारें और चारों प्रमुख प्रवेश द्वारों को सुदृढ़ीकरण करना। इस किले को उन्होंने माल-असबाब, हथियार, सैनिकों की तैनाती और रणनीतिक अभियानों के संचालन के लिए उपयोग किया।

विशेष रूप से 1664 और 1670 में सूरत पर आक्रमण के दौरान उन्होंने जो खजाना प्राप्त किया था, उसे यहीं संग्रहित किया था। किले की सुरक्षा के लिए मराठा सेना के प्रमुख शिलेदारों (सैनिकों) को नियुक्त किया गया। लोहगढ़ के निकट स्थित विसापुर किला ऊंचाई में बड़ा है। शिवाजी ने दोनों किलों को मिलाकर एक संयुक्त रक्षा प्रणाली विकसित की थी। बाद में 1818 ई. में अंग्रेजों ने विसापुर किले की ऊंचाई का लाभ उठाकर वहां से तोपों से लोहगढ़ पर हमला किया, इस कारण मराठों को यह किला छोड़ना पड़ा।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : लोहगढ़ किला इंद्रायणी और पावना नदियों की घाटियों के बीच स्थित है, जो इसे रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है। लोहगढ़ किले के भीतर आज भी प्राचीन गुफाएं, विशाल जल-संचय टंकियां, छत्रियां और अन्य स्थापत्य आकर्षण मौजूद हैं। किले के चारों प्रमुख प्रवेश द्वारों की व्यूह-रचना अद्वितीय है और वे आज भी मजबूत स्थिति में हैं। किले की पश्चिम दिशा में एक संकीर्ण पर्वतीय स्कंध फैला है, जिसका आकार बिच्छू के डंक जैसा प्रतीत होता है। इसलिए मराठी में इसे ‘विंचूकाटा’ कहा जाता है। लोहगढ़ किला न केवल मराठा साम्राज्य की रणनीतिक कुशलता और सैन्य संगठन का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय स्थापत्य, प्राकृतिक सौंदर्य और लोक इतिहास का जीवंत उदाहरण भी है।

रायगढ़ दुर्ग-

हिंदवी स्वराज्य की राजधानी

रायगढ़ किला केवल एक दुर्ग नहीं, बल्कि मराठा साम्राज्य की राजनीतिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक शक्ति का प्रतीक है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने 1656 ई. में इसे चंद्रराव मोरे से जीतकर ‘रायगढ़’ नाम दिया और इसे हिंदवी स्वराज्य की राजधानी बनाया। यही वह पवित्र भूमि है, जहां 1674 में उनका भव्य राज्याभिषेक हुआ, जिससे एक स्वतंत्र मराठा साम्राज्य की नींव पड़ी। सह्याद्रि पर्वतमाला की कठिन चट्टानों पर स्थित यह किला लगभग 5.12 वर्ग किलोमीटर के पठारी क्षेत्र में फैला हुआ है।

इसके तीन प्रमुख स्कंध हैं – हिरकणी (पश्चिम), टकमक (उत्तर) और भवानी (पूर्व)। रायगढ़ की भौगोलिक संरचना इसे तीन दिशाओं से अगम्य बनाती है, जो इसे प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करती है। किले का एकमात्र प्रवेशद्वार छत्रपति शिवाजी की रणनीतिक सोच को दर्शाता है – “मित्र के लिए सरल, शत्रु के लिए असंभव।” शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग के निर्माण कार्य का दायित्व अपने प्रमुख अभियंताओं आबाजी सोनदेव और हिरोजी इंदुलकर को सौंपा था। वैभव काल में रायगढ़ में लगभग 300 भवन और संरचनाएं थीं। 1689 तक यह संभाजी महाराज के पास रहा। बाद में यह मुगलों, फिर मराठों और अंततः 1818 में अंग्रेजों के अधीन आ गया। अंग्रेजों ने किले पर कब्जा करने के बाद इसे लूटा और नष्ट कर दिया।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : किला एक फनाकार पर्वतीय चट्टान पर स्थित है, जिसे सह्याद्रि पर्वत शृंखला से एक गहरी घाटी अलग करती है। यह दक्कन के पठार के सबसे मजबूत किलों में से एक है। इसकी तलहटी में स्थित पाचाड़ गांव में माता जीजाबाई की समाधि है। शिवाजी महाराज के प्रिय कुत्ते वाघ्या की समाधि भी पास ही है। वहां से महादरवाजा तक की चढ़ाई में विशाल बुर्ज और मजबूत प्राचीर, ऊपरी गंगासागर तालाब, राजपरिवार का निवास स्थान, शिवाजी का सिंहासन स्थल, बाजार क्षेत्र, जगदीश्वर मंदिर और शिवाजी की समाधि स्थित हैं। किले के ऊपरी भाग में अनेक कुंड, जलाशय, और इमारतों के अवशेष मौजूद हैं।

राजगढ़ दुर्ग –

शौर्य एवं स्थापत्य गौरव

महाराष्ट्र के गिरिदुर्गों में राजगढ़ किले का स्थान विशिष्ट और गौरवपूर्ण है। यह न केवल दक्खन की किलाबंदी शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि मराठा साम्राज्य के उत्थान का भी मूक साक्षी है। सह्याद्रि पर्वतमाला की मुरुम शाखा पर स्थित यह दुर्ग पुणे से लगभग 35 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। समुद्र तल से लगभग 1,300 मीटर की ऊंचाई इसे अत्यंत सुरक्षित बनाती है। यह शिवाजी का प्रिय किला था। इसके तीन उप-पठार पद्मावती माची, सुवेला माची और संजीवनी माची हैं और केंद्र में एक छोटा किला (बालेकिल्ला)। किले के चार प्रवेश द्वार हैं-गुंजण दरवाजा, पाली दरवाजा, आळु दरवाजा और कालेश्वरी या दिंडी दरवाजा। पहले यह किला निजामशाही और आदिलशाही के अधीन था। इसकी सुरक्षित भौगोलिक स्थिति के कारण ही शिवाजी राजे ने इस पर अधिकार किया और इसका नाम राजगढ़ रखा।

26 वर्ष यह मराठा साम्राज्य की राजधानी रहा। बाद में राजधानी को रायगढ़ में स्थानांतरित हो गया। 1670 ई. तक उन्होंने इसमें विभिन्न निर्माण कार्य करवाए। वे यहां सर्वाधिक 2,827 दिन तक रहे। 1659 ई. में शिवाजी महाराज यहीं से अफजल खान के विरुद्ध अभियान पर निकले। 1665 ई. पुरंदर की संधि में उन्होंने 23 किले मुगलों को सौंपे, परंतु राजगढ़ नहीं दिया। शिवाजी की आगरा यात्रा और वापसी से जुड़ी घटनाएं भी यहीं घटित हुईं। उनके दूसरे पुत्र राजाराम महाराज का जन्म भी राजगढ़ में हुआ।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : किले की संरचना पंख फैलाए पक्षी जैसा है। पद्मावती माची व संजीवनी माची इसके दो पंखों और सुवेला माची और बालेकिल्ला मुख्य शरीर जैसा दिखता है। राजगढ़ के विभिन्न हिस्सों में पुराने निवास स्थलों, प्रशासनिक कार्यालय, बाजार, धान्य कोठार, बारुदखाना और प्राचीन मंदिरों के अवशेष देखे जा सकते हैं। पद्मावती माची पर जल प्रबंधन अत्यंत प्रभावशाली था, इसलिए किले की अधिकांश गतिविधियां वहीं केंद्रित थीं। यहां तालाब, कुंड व कुएं भी थे, जो पूरे वर्ष जल की उपलब्धता सुनिश्चित करते थे। यह किला शिवाजी की दूरदृष्टि, स्थापत्य प्रेम और सैन्य संगठन का प्रतीक है।

विजय दुर्ग –

समुद्री शक्ति का अजेय गढ़

भारत के पश्चिमी तट पर स्थित विजय दुर्ग किला वाघोटन नदी के मुहाने पर स्थित है। यह रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों को अलग करता है। यह प्राकृतिक दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित, तीन तरफ से अरब सागर और पूरब में एक खाई से घिरा है। हालांकि अब खाई भर दी गई है, पर इसकी रणनीतिक स्थिति आज भी अद्वितीय मानी जाती है।

पूर्व दिशा से प्रवेश करने पर रास्ता एक ऊंची दीवार के पास से होकर छिपे हुए भीतरी दरवाजे तक पहुंचता है, जो इसकी सामरिक सूझबूझ का प्रमाण है। किले से 100 मीटर पश्चिम में पानी के नीचे 3 मीटर ऊंची, 7 मीटर चौड़ी और 122 मीटर लंबी पत्थर की एक रहस्यमयी दीवार भी खोजी गई है, जिसका उद्देश्य अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है। बीजापुर के शासकों ने इसका प्रारंभिक विस्तार किया था। यह किला पहले ‘घेरिया’ के नाम से जाना जाता था और बीजापुर के आदिलशाही सुल्तानों के अधीन था। शिवाजी महाराज ने 1653 ई. में इस पर अधिकार किया और इसे ‘विजय दुर्ग’ नाम दिया।

उन्होंने इसका पुनर्निर्माण कर इसे एक अजेय किले में बदला और नौसैनिक रणनीति व समुद्री सुरक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया। मराठा नौसेना के महान सेनानायक सरखेल कान्होजी आंग्रे (1667–1729) के समय विजयदुर्ग को सर्वोच्च नौसैनिक किले का दर्जा मिला। यूरोपीय समुद्री शक्तियां (पुर्तगाली, डच और अंग्रेज) कई प्रयासों के बावजूद इस किले को जीतने में असफल रहीं। यह उनकी श्रेष्ठ नौसैनिक रणनीति और विजयदुर्ग की अभेद्यता का प्रमाण है। 1756 में पेशवाओं और अंग्रेजों के संयुक्त हमले में यह किला मराठों के हाथ से निकल गया। इसके बाद यह 1818 तक पेशवाओं के अधीन रहा, फिर अंग्रेजों के अधीन चला गया।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : इस किले के 27 बुर्ज थे, जिनमें कुछ दोमंजिले थे। किले में अनेक इमारतें, भंडारगृह और एक ‘विश्रामगृह’ थे। हालांकि समय के साथ अधिकांश संरचनाएं नष्ट हो चुकी हैं। किले के भीतर जलसंकट से बचाव के लिए कई कुंड और कुएं बनाए गए थे। यह किला मराठा समुद्री गौरव, सामरिक कुशलता और छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरदर्शिता का जीवित प्रतीक है।

सिंधुदुर्ग-

स्थापत्य कौशल का अद्वितीय उदाहरण

महाराष्ट्र के मालवण तट से एक किलोमीटर दूर कुरटे द्वीप पर स्थित सिंधुदुर्ग किला, छत्रपति शिवाजी महाराज की नौसैनिक दूरदृष्टि और स्थापत्य कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है। जब जंजीरा किले को जीतने के प्रयास विफल रहे, तब शिवाजी ने 1664–1667 ई. के बीच इस जलदुर्ग का निर्माण कराया। कुशल अभियंता हिरोजी इंदुलकर के निर्देशन में 3000 कारीगरों ने इसके निर्माण में तीन वर्ष तक दिन-रात मेहनत की। माना जाता है कि इसके निर्माण में सूरत से प्राप्त धन का उपयोग हुआ। करीब 48 एकड़ में फैले इस किले की दीवारें 9 मीटर ऊंची और 3 मीटर चौड़ी हैं, जिन पर 42 बुर्ज बने हैं। निर्माण में 72,576 किलो लोहे और पिघले सीसे का प्रयोग इसे और अधिक मजबूत बनाता है। 1818 में अंग्रेजों ने किले पर कब्जा कर इसकी रक्षा व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया। आज भी सिंधुदुर्ग मराठा साम्राज्य की सागर नीति का सजीव प्रतीक है।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : मालवण घाट से किले तक पहुंचने के लिए धोनतारा और पद्मगढ़ द्वीपों के बीच से एक संकरा जलमार्ग है। किले का मुख्य द्वार दो बुर्जों के बीच स्थित है जो छिपा हुआ है और दूर से दिखाई नहीं देता है। किले में शिवाजी का मंदिर है, जिसमें उनकी बिना दाढ़ी वाली मूर्ति है। प्रवेश द्वार के पास दो गुंबजों में शिवाजी के पदचिह्न सुरक्षित हैं। सिंधुदुर्ग की सुरक्षा के लिए निकट ही पद्मगढ़ नामक एक छोटा जलदुर्ग भी बनाया था, जो आज खंडहर अवस्था में है। यह किला कभी जहाज निर्माण का केंद्र भी था।

खान्देरी दुर्ग-

समुद्र में मराठा शक्ति की लहर

खान्देरी किला, जिसे बाद में अर्जुनदुर्ग भी कहा गया, महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में अलीबाग के पास समुद्र के भीतर स्थित है। यह दुर्ग अगस्त 1679 में छत्रपति शिवाजी महाराज के अधिकार में आया, जब उन्होंने मयंक भंडारी को यहां किला बनाने का जिम्मा साैंपा। 1818 में यह किला ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया। किले में 1867 में प्रकाशस्तंभ इसकी ऐतिहासिक उपस्थिति को दर्शाता है। यह दुर्ग शिवाजी महाराज की नौसैनिक दूरदृष्टि और सामरिक चतुराई का प्रतीक है। कान्होजी आंग्रे के काल में इसकी भूमिका और भी बढ़ गई।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : यह किला मुंबई और गुजरात के बीच के व्यापारिक मार्गों पर नजर रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। शिवाजी महाराज ने इस किले को एक मजबूत जलदुर्ग के रूप में विकसित किया। इसमें मोटी पत्थर की दीवारें, तोपखाने, बुर्ज, जलकुंड, और गुप्त नौका मार्ग बनाए गए ताकि समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। यह दुर्ग अरब सागर के बीच एक चट्टानी द्वीप पर स्थित होने से आक्रमणों के लिए लगभग अभेद्य था। खान्देरी के पास स्थित उंधेरी किले के साथ मिलकर यह दुर्ग मराठा नौसेना का रणनीतिक आधार बन गया।

पन्हाला गिरिदुर्ग-

रणनीति, साहस और सुशासन का प्रतीक

पन्हाला दुर्ग महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले से 19 किमी पश्चिमोत्तर में सह्याद्रि पर्वत पर समुद्र तल से 850 मीटर ऊंचाई पर स्थित एक विशाल और अभेद्य गिरिदुर्ग है। यह त्रिभुजाकार किला लगभग 7.24 कि.मी. क्षेत्र में फैला है। शिवाजी महाराज ने अफजल खान को प्रतापगढ़ में पराजित करने के बाद बीजापुर की सत्ता को कमजोर कर पन्हाला पर धावा बोला। 1659 ई. में अफजल खान को पराजित कर उन्होंने इस किले पर अधिकार किया। उस समय यह बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के अधीन था। किला मराठा साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण सैन्य और प्रशासनिक केंद्र बना। कुछ समय तक यह मराठा साम्राज्य की अस्थायी राजधानी भी रहा। शिवाजी ने इसे एक शस्त्रागार और सैन्य प्रशिक्षण केंद्र के रूप में भी विकसित किया।

1660 ई. में जब बीजापुर के सेनापति सिद्दी जौहर ने पन्हाला को चार महीने तक घेरे रखा, तब शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्धनीति अपनाते हुए रात के अंधेरे में बाजी प्रभु देशपांडे की मदद से विशालगढ़ की ओर प्रस्थान किया। लेकिन 1673 में उन्होंन इस पर पुन: विजय प्राप्त किया। 1689 में मुगलों ने किला जीत लिया, लेकिन 1692 में मराठों ने दोबारा अपना अधिकार स्थापित किया। 1701 में औरंगजेब ने फिर से कब्जा किया, मगर जल्द ही रामचंद्र पंत अमात्य के नेतृत्व में मराठों ने इसे वापस लिया। किले के प्रमुख स्थलों में ‘तीन दरवाजा’, विशाल गंगा कोठी (धान्य भंडार), सज्जा कोठी (जहां संभाजी को नजरबंद किया गया था) और भग्न मंदिर व इमारतें शामिल हैं।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : यह किला न केवल एक सामरिक स्थल था, बल्कि साहित्य और प्रशासन की दृष्टि से भी समृद्ध रहा। रणनीतिक दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे दक्षिण महाराष्ट्र और कोंकण क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। इसका भौगोलिक स्थान और विशाल परकोटे इसे एक अभेद्य किला बनाते थे। किले को जीतने के बाद शिवाजी ने इसके परकोटे, बुर्ज और दरवाजों की मरम्मत और सुदृढ़ीकरण करवाया। किले में जलकुंडों, कुओं और धान्य कोठारों की भी व्यवस्था की गई, जिससे यह लंबे समय तक घेराबंदी झेल सके। मराठी कवि मोरोपंत का जन्म यहीं हुआ था और ‘आज्ञापत्र’ के लेखक रामचंद्र पंत अमात्य की समाधि भी यहीं स्थित है। पन्हाळा किला युद्धनीति, संस्कृति और शासन की त्रयी का गौरवशाली प्रतीक है।

सुवर्णदुर्ग-

नौसैनिक शक्ति का स्वर्णिम किला

महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के हर्णे बंदरगाह के समीप स्थित सुवर्णदुर्ग एक अत्यंत महत्वपूर्ण समुद्री किला है। पहले यह आदिलशाही सुल्तानों के नियंत्रण में था, लेकिन 1660 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस पर अधिकार कर इसे संगठित नौसैनिक केंद्र में परिवर्तित किया। उन्होंने इसकी तटबंदी, बुर्जों और परकोटे को सुदृढ़ कराया ताकि यह समुद्री आक्रमणों का सामना कर सके।

विशाल प्रस्तर-खंडों से बनी किले की दीवारें ठोस चट्टानों को काटकर बनाई गईं, जिनमें मसाले का प्रयोग नहीं हुआ। किले के भीतर जलकुंड, अनाज भंडार, शस्त्रागार और आवासीय इमारतें थीं, जो दीर्घकालीन घेराबंदी में उपयोगी सिद्ध होती थीं। निकट स्थित धरमतर (विजयगढ़) और सुवर्णदुर्ग की जोड़ी ने मिलकर मराठा साम्राज्य को समुद्री सुरक्षा कवच प्रदान किया। यह किला कान्होजी आंग्रे के अधीन रहते हुए भी मराठा नौसेना की रणनीतिक रीढ़ बना रहा। शिवाजी महाराज ने यहां गोपनीय जहाज निर्माण और मरम्मत का कार्य भी आरंभ किया, जिससे मराठा समुद्री शक्ति को मजबूती मिली। 1818 ई. तक यह किला पेशवा के अधीन रहा, इसके पश्चात अंग्रेजों ने इस पर अधिकार कर लिया। सुवर्णदुर्ग आज भी मराठा नौसेना की गौरवगाथा का प्रतीक है।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : इस किले के दो दरवाजे हैं-एक पूर्व में स्थल की ओर, जो भू-भाग से दृष्टिगत नहीं है और दूसरा पश्चिम में समुद्र की ओर। पूर्वी द्वार के पास कच्छप की आकृति और हनुमान (मारुति) की मूर्ति उकेरी गई है, जबकि पश्चिमी द्वार की दीवारों पर बाघ, गरुड़ और हाथियों की नक्काशी है। सुवर्णदुर्ग के पास तीन छोटे किले (गोवा, कणकदुर्ग और फतहगढ़) स्थित हैं। इनका निर्माण कान्होजी आंग्रे ने सुवर्णदुर्ग की रक्षा हेतु करवाया था। इनमें गोवा किला सबसे मजबूत था, जबकि कणकदुर्ग खंडहर और फतहगढ़ अब पूर्णतः नष्ट हो चुका है।

प्रतापगढ़ दुर्ग-

स्वराज्य की दिशा में पहला कदम

प्रतापगढ़ किला छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा 1656-57 में बनवाया गया एक ऐतिहासिक और रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण दुर्ग है। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित है। इसका निर्माण छत्रपति शिवाजी के प्रधानमंत्री मोरोपंत त्र्यंबक पिंगले के मार्गदर्शन में कुशल अभियंता हिरोजी इंदुलकर ने किया था। यह किला सह्याद्रि की शृंखलाओं में एक ऊंची गोलाकार पहाड़ी पर बना है, जिसे पहले ‘भोरप्या’ के नाम से जाना जाता था। किले का निर्माण छत्रपति शिवाजी द्वारा स्वराज्य की स्थापना के लिए की गई शुरुआत का पहला ठोस कदम था।

यह किला दो हिस्सों में विभाजित है–ऊपरी किला और निचला किला। पश्चिमोत्तर शिखर पर स्थित ऊपरी किला लगभग 180 वर्ग मीटर में फैला है। निचला किला दक्षिण-पूर्वी ओर बना है, जिसकी दीवारों और बुर्जों को इस प्रकार तैयार किया गया है कि वे प्राकृतिक ढलानों के अनुसार किले को सुरक्षा प्रदान करें। यह किला शिवाजी की गणिमी कावा (गुरिल्ला युद्धनीति) को भी मजबूती देता था।

प्रतापगढ़ की सबसे प्रसिद्ध घटना 10 नवंबर, 1659 को घटी, जब शिवाजी महाराज ने बीजापुर के सेनापति अफजल खां को एक रणनीतिक योजना के तहत पराजित किया। तब बीजापुर सल्तनत के प्रमुख आदिल शाह और छत्रपति शिवाजी महाराज के बीच युद्ध चल रहा था। अफजल खां ने छल से उन्हें मारने की योजना बनाई थी। उसने शिवाजी महाराज को मिलने के लिए बुलाया था। यह भेंट किले की तलहटी में एक शामियाने में हुई, जहां उसने शिवाजी महाराज को धोखे से मारने की कोशिश की। लेकिन सतर्क शिवाजी महाराज ने अपने हथेली में छिपाए वाघनख और कटार से पलटवार अफजल खां को मौत के घाट उतार दिया। इस विजय से मराठा शक्ति को नया आत्मविश्वास और स्वराज्य आंदोलन को निर्णायक दिशा प्रदान की। इस घटना की 300वीं वर्षगांठ पर 1959 में शिवाजी महाराज की भव्य अश्वारूढ़ प्रतिमा किले के शिखर पर स्थापित की गई। प्रतापगढ़ किला केवल एक सैन्य दुर्ग नहीं, बल्कि शिवाजी महाराज की रणनीति, दूरदृष्टि और आत्मबल का प्रतीक है। यह किला मराठा स्वराज्य की नींव रखने वाला पहला और सबसे प्रेरणादायक स्तंभ है।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : किले में दुहरी तटबंदी, सशक्त परकोटे, गुप्त मार्ग, जलकुंड, भंडारगृह और सैनिकों के लिए आवासीय सुविधाएं थीं। इसमें भवानी का भव्य मंदिर भी है, जो मराठा वंश के कुलदेवता को समर्पित है। अफजल खां की कब्र भी किले के नीचे है। रणनीतिक दृष्टि से प्रतापगढ़ किला कोंकण और घाटमाथा को जोड़ने वाले मार्ग पर है। यह व्यापार और सैन्य दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण था।

साल्हेर दुर्ग-

वीरता और रणनीति की शान

साल्हेर किला, महाराष्ट्र के नासिक जिले की सतना तहसील में है, जो सह्याद्रि पर्वतमाला की दूसरी सबसे ऊंची चोटी (1,567 मीटर या 5,141 फीट) पर स्थित है। यह किला न केवल अपनी ऊंचाई के कारण, बल्कि अपने इतिहास, धार्मिक मान्यता और सामरिक महत्व के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी परिधि लगभग 11 किलोमीटर और क्षेत्रफल 600 हेक्टेयर है, जो इसे क्षेत्रफल की दृष्टि से महाराष्ट्र के सबसे विशाल किलों में से एक बनाता है।

1671 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज ने बगलान क्षेत्र के विरुद्ध सैन्य अभियान शुरू किया और 1672 में साल्हेर किले पर अधिकार कर लिया। खुले मैदान में लड़े गए इस युद्ध में मराठा सेना की अनुमानित संख्या 15,000 से 20,000 थी, जबकि मुगल सेना लगभग 40,000 सैनिकों के साथ आई थी, जिनमें 12,000 घुड़सवार शामिल थे।

इस युद्ध में मराठा सेनाओं ने औरंगजेब के प्रमुख सेनापतियों इखलास खान और बहलोल खान को पराजित किया। साल्हेर किला डांग-गुजरात और बगलान को जोड़ने वाले प्रमुख व्यापार मार्ग पर स्थित होने के कारण, रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। सूरत से लाया गया खजाना और युद्ध सामग्री पहले यहीं सुरक्षित रखी जाती थी और बाद में इसे मराठा राजधानी रायगढ़ पहुंचाया जाता था।
शिवाजी महाराज ने किले पर अधिकार के बाद मजबूत प्राचीर, गुप्त जलाशय, सुरक्षित दरवाजे और सैनिक चौकियां बनवाईं। साथ ही, पास के सलोटा किले के साथ मिलाकर इसे एक एकीकृत सैन्य अड्डा बनाया, जिससे यह क्षेत्रीय नियंत्रण का सशक्त केंद्र बन गया।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : इस किले पर भगवान परशुराम की मूर्ति और चरण पादुकाएं, प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष और चारों ओर फैला प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों और पर्वतारोहियों को आकर्षित करता है। यहां से बगलान क्षेत्र, अजंता-सतमाला की पहाड़ियां, मंगी-तुंगी, तंबोला, हनुमान टेकड़ी, मुल्हेरगढ़, और हरनबाड़ी बांध जैसे स्थलों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

यह किला आज भी मराठा सैन्य कौशल और अद्भुत रणनीति का गवाह है- एक ऐसा स्थल जहां इतिहास, अध्यात्म और प्रकृति एक साथ मिलते हैं।

जिंजी दुर्ग-

दक्षिण भारत की महान दीवार

तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में स्थित जिंजी किला, जिसे सेंजी या चांची भी कहा जाता है, दक्षिण भारत के सबसे अभेद्य दुर्गों में से एक है। इसे ‘दक्षिण भारत की महान दीवार’ और अंग्रेजों द्वारा ‘पूरब का ट्रॉय’ भी कहा गया, जो इसकी अद्वितीय निर्माण शैली और सामरिक मजबूती का प्रमाण है। 1677 में छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस किले को बीजापुर के सुल्तानों से जीतकर इसे मराठा साम्राज्य का दक्षिणी आधार बनाया।

यह लगभग दो दशकों तक मराठाओं के नियंत्रण में रहा और दक्षिण भारत में मराठा गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना। उनके पुत्र राजाराम महाराज ने यहीं से मुगलों के विरुद्ध मराठा संघर्ष का नेतृत्व किया। इस किले की रणनीतिक स्थिति और मजबूत दीवारों ने उन्हें वर्षों तक प्रतिरोध करने में सहायता की। शिवाजी ने यहां ‘कर्नाटक सरकार’ के रूप में एक स्वतंत्र दक्षिणी प्रशासन की स्थापना की, जो मुगलों के विरुद्ध मराठा नीति का संचालन करता था। 1678 के एक जेसुइट पत्र में उल्लेख मिलता है कि छत्रपति शिवाजी द्वारा निर्मित परकोटा और संरचनाएं इतनी प्रभावशाली थीं कि यूरोपीय पर्यटक भी चकित रह गए। किले में भूमिगत मार्गों के साथ-साथ वैकल्पिक रास्ते भी बनाए गए, ताकि घेराबंदी की स्थिति में भी रसद, सैनिकों और संदेशों की निर्बाध आपूर्ति बनी रहे।

भौगोलिक और स्थापत्य विशेषताएं : यह विशाल किला तीन प्रमुख पहाड़ियों-राजगिरी, कृष्णगिरी और चंद्रगिरी-पर फैला हुआ है, जिन्हें गहरी खाइयों और ऊंची दीवारों से जोड़ा गया है। इसका परकोटा लगभग 13 किलोमीटर लंबा है। कुछ स्थानों पर खाई की गहराई 60 फीट और चौड़ाई 80 फीट तक है। कई जगहों पर दीवारों की मोटाई 20 फीट तक है।

किले के भीतर अनेक अद्भुत निर्माण हैं। इनमें हैं-कल्याण महल (पिरामिडनुमा बहुमंजिला भवन), विशाल अनाज भंडारण गृह, युद्ध सामग्री और रसद के लिए हाथी टैंक और अस्तबल, सैनिकों के लिए व्यायामशाला और गार्ड रूम्स तथा ऊंचाई तक पानी पहुंचाने की उन्नत तकनीक। इसके अलावा, किले के परिसर में कई प्राचीन मंदिर स्थित हैं, जैसे –वेंकटरमण स्वामी मंदिर, रंगनाथ मंदिर, गणेश मंदिर, जो इस क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं। प्रस्तुति: नागार्जुन

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