रणनीतिक सहयोगियों के साथ रिश्तों में अमेरिका की अव्यावहारिकता बड़े नुकसान का कारण बन सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग समवेत स्वर में कह रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कुछ ज्यादा ही बेतुकी हरकतें कर रहे हैं और ऊटपटांग बोल रहे हैं। जी-7 शिखर सम्मेलन, वाशिंगटन डीसी, कनानैस्किस और अन्य स्थानों पर बार-बार किए उनके दावों की अंतरराष्ट्रीय गलियारों में गहरी विवेचना चल रही है।

निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी, सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड एंड होलिस्टिक स्टडीज, नई दिल्ली
22 अप्रैल, 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आईएसआई प्रायोजित आतंकवादियों द्वारा 26 पर्यटकों की निर्मम हत्या के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ समय के लिए सशस्त्र संघर्ष हुआ था। तब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहला दावा यह किया कि उनकी मध्यस्थता के कारण ही भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ संघर्ष परमाणु युद्ध में तब्दील होने से बच गया।
खुली पोल
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्हाइट हाउस और अन्य स्थानों पर राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा किए दावों की पोल खोलते हुए मध्यस्थता, संवाद और हस्तक्षेप जैसी किसी भी प्रकार की उनकी भूमिका को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। सच तो यह है कि भारत द्वारा पाकिस्तान के वायुसेना ठिकानों को अंदर तक तबाह करने के बाद असहाय पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा उपयुक्त संपर्क माध्यमों से किए गए विशेष अनुरोध पर ही ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को रोका गया था। इसी बीच, ट्रंप ने दुनिया के सामने अपनी शेखी बघारने के लिए दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच एक बड़े परमाणु युद्ध को रोकने का श्रेय खुद को देते हुए ट्वीट कर दिया। फिर कुछ दिन बाद वे अंतरराष्ट्रीय मीडिया को आड़े हाथों लेते हैं और यह पूछ बैठते हैं कि दो कट्टर शत्रुओं के बीच शांति स्थापित करने की उनकी ‘शानदार भूमिका’ के बारे में उन लोगों ने क्यों नहीं लिखा?
जी-7 बैठक के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप के साथ टेलीफोन पर 35 मिनट की बातचीत की। इस दौरान उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि संघर्ष को रोकने में ट्रंप की कोई भूमिका नहीं थी। भारतीय विदेश कार्यालय द्वारा जारी वक्तव्य को पढ़ते हुए सचिव विक्रम मिसरी ने राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा किसी भी मध्यस्थता को मजबूती से खारिज किया है।
यह बात बड़ी हास्यास्पद है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सिरे से खारिज करने के बाद भी ट्रंप अपने कार्यालय से फिर वही राग अलापते दिखते हैं कि उन्होंने ही संघर्ष विराम करवाया। उनका दूसरा बड़ा दावा यह है कि प्रधानमंत्री मोदी को अपने पक्ष में करने के लिए भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते का इस्तेमाल किया गया। भारत ने इसे भी सिरे से खारिज कर दिया है।
बेतुका सुझाव
ट्रंंप का यह सुझाव कि भारत और अमेरिका के बीच का व्यापार समझौता एक बड़े युद्ध को रोकने में सफल हो सकता है, निहायत ही ‘बेतुका’ और ‘झूठा’ है। आतंकवाद को पालने वाले पाकिस्तान के साथ संघर्ष भारत का निजी मामला है, जिसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं है। ऐसे बारीक संकेत के साथ मोदी ने ‘पूर्व प्रतिबद्धताओं’ का हवाला देते हुए वाशिंगटन डीसी में बातचीत के लिए ट्रंप के निमंत्रण को दृढ़ता और विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। इतिहास का यह संभवत: पहला उदाहरण है, जब भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति के निमंत्रण को अस्वीकार किया हो। टेलीफोन पर बातचीत के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप को कुछ बातें साफ-साफ समझाई गईं, चाहे उन्हें पसंद आई हों या नहीं।
पाकिस्तान के मामले में भारत किसी की मध्यस्थता कभी स्वीकार नहीं करेगा। यह देश की ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ सिद्धांतों के तहत निर्धारित नीति की मूल अवधारणा है। एक और मजबूत संकेत यह दिया गया है कि आतंकवाद को वित्तपोषित और प्रायोजित करना या बढ़ावा देना भारत के खिलाफ स्पष्ट युद्ध माना जाएगा, न कि छद्म युद्ध। ऐसे में भारत वही करेगा जो उसे अपनी नीति के अनुरूप सही लगेगा। तीसरा, जम्मू-कश्मीर पर कोई समझौता नहीं होगा, क्योंकि यह भारत का अभिन्न अंग है। अगर बातचीत हुई भी तो केवल पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले क्षेत्रों पर ही विचार किया जाएगा।
पिछले कुछ हफ्तों में भारत ने राष्ट्रपति ट्रंप के मनमाने दावों पर न तो सीधे, न परोक्ष रूप से कोई प्रतिक्रिया दिखाते हुए अत्यधिक संयम का परिचय दिया और अपने संकल्प की दृढ़ता दिखाई है। दूसरी तरफ, पाकिस्तान के जनरल असीम मुनीर के साथ ट्रंप की बढ़ती नजदीकियां, उनके साथ बंद कमरे में लंच रिपब्लिकन राष्ट्रपति के नेतृत्व में अमेरिकी विदेश नीति में आए भारी उलट-पलट का संकेत हैं। ऐसी खबरें हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप ने पाकिस्तान की जमीन को ईरान के खिलाफ हमला करने के लिए इस्तेमाल करने की अपनी आकांक्षा के तहत उसे वैसी रक्षा प्रौद्योगिकियों को देने का वादा किया है, जिन्हें देने से वे अब तक इनकार करते रहे थे।
राष्ट्रपति ट्रंप और कॉरपोरेट जगत के उनके नीति सलाहकारों ने राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के साथ आचार-विचार के कूटनीतिक शिष्टाचार के पूरे नियम ताक पर धर दिए हैं। जनरल असीम मुनीर की मेजबानी के अलग-अलग अर्थ और संदेश हैं। शायद राष्ट्रपति ट्रंप यह मान रहे हैं कि एशिया में अमेरिकी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जनरल मुनीर का इस्तेमाल किया जा सकता है। ईरान के साथ 1000 किलोमीटर लंबी सीमा पर पाकिस्तानी एयरबेस और सेना के प्रवेश-निकास बिंदुओं का उपयोग करने से इस्राएल और ईरान के बीच के युद्ध के स्वरूप पर बड़ा असर पड़ेगा।
अपना मतलब साधने के लिए अमेरिका पहले भी पाकिस्तान पर मेहरबान होता रहा है। इसलिए कुछ भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञों के लिए ट्रंप-मुनीर लंच कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है। इसके अतिरिक्त, डोनाल्ड ट्रंप संभवत: आर्थिक रूप से कमजोर और दिशाहीन पाकिस्तान को लेन-देन संबंधी व्यापारिक सौदे के ‘संभावित बाजार’ के रूप में देख रहे हैं। साथ ही, इस्लामाबाद के सौजन्य से शायद ‘शांति के नोबेल’ से पुरस्कृत व्यक्ति के रूप में मानव इतिहास में दर्ज होने का सपना संजो रहे हैं। एक बड़ा शक उभरता है कि अमेरिकी डीप स्टेट प्रधानमंत्री मोदी के सफल नेतृत्व के खिलाफ कोई गंदा खेल तो नहीं रच रहा, क्योंकि इसने मोदी के लगातार तीसरी बार सत्ता में आने की राह को बाधित करने का प्रयास किया था।
एजेंसी और ट्रंप के बयान अलग
जल्दबाजी में कुछ भी बोल जाना अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वभाव और छवि का हिस्सा है। ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले को लेकर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दावे पर उनकी ही खुफिया एजेंसी की लीक रिपोर्ट ने सवाल खड़े कर दिए हैं। ट्रंप ने दावा किया था कि हमने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है, जबकि अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की खुफिया एजेंसी ‘डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी’ ने कहा है कि हमले के बाद भी ईरान का परमाणु कार्यक्रम खत्म नहीं हुआ, केवल कुछ महीनों के लिए पीछे खिसका है। यह विरोधाभास छोटी-मोटी बात नहीं, यह ईरान के परमाणु कार्यक्रम की निगरानी या अनदेखी की दिशा तय कर सकता है। अवसर समझते हुए ईरान ने यह तो माना है कि उसे काफी नुकसान हुआ है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया है कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखेगा।
फायदे की ताक में वामपंथी
रिपब्लिकन प्रशासन के साथ पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान की नजदीकी संभवत: ट्रंप और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के कद्दावर राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच सफलतापूर्वक हुए व्यापार सौदे के बाद उभरी होगी। निष्कर्ष यह है कि राष्ट्रपति ट्रंप का व्यक्तित्व भारत सहित किसी भी अन्य देश के लिए एक ‘अविश्वासपात्र सहयोगी’ के रूप में उजागर हो रहा है।
समीकरण चाहे दोस्तों के साथ हो या दुश्मनों के ट्रंंप प्रशासन का रुख एक समान ही प्रतीत होता है। अमेरिकी समाज में बढ़ती अशांति जो प्रदर्शनों और विरोधों में दिखाई देने लगी है ‘संयुक्त राज्य अमेरिका’ के मूल विचार पर मंडराते संकट का संकेत तो नहीं? दशकों से जड़ें जमाए अमेरिकी डीप स्टेट और वामपंथी लॉबी निश्चित रूप से इस उथल-पुथल से अपना फायदा उठाने की फिराक में होगी जो राष्ट्रपति ट्रंप के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है। इस प्रक्रिया में ट्रंप और भारत के रिश्ते कमजोर पड़ सकते हैं।
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