भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं अनादि काल से मानवता को आध्यात्मिकता, समरसता और भक्ति की राह पर चलने की प्रेरणा देती आई हैं। इन्हीं पवित्र परंपराओं में एक है उड़ीसा के पुरी में निकलने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा, जो केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं बल्कि करोड़ों आस्थाओं, परंपराओं और लोक मान्यताओं का प्रतीक है। हर साल की तरह इस वर्ष भी यह यात्रा अपार श्रद्धा और भक्ति के साथ 27 जून को प्रारंभ हो रही है। हिंदू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से शुरू होने वाली यह यात्रा नौ दिनों तक चलेगी और 5 जुलाई को समाप्त होगी। इस दौरान भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ भव्य रथों पर सवार होकर पुरी के मुख्य मंदिर से निकलकर मौसी के घर गुंडिचा मंदिर तक की यात्रा करते हैं। यह आयोजन न केवल भारत के सबसे प्राचीन धार्मिक उत्सवों में से एक है बल्कि विश्व के सबसे बड़े वार्षिक सार्वजनिक आयोजनों में भी इसकी गिनती होती है, जिसमें लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से भाग लेने आते हैं।
पुरी का जगन्नाथ मंदिर भारत के चार प्रमुख धामों (बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और पुरी) में से एक है। यह मंदिर न केवल वास्तुकला की दृष्टि से विशिष्ट है बल्कि इसकी महत्ता धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यंत विशिष्ट है। भगवान जगन्नाथ को विष्णु के अवतार के रूप में पूजा जाता है और यह मंदिर उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराजने वाले एकमात्र मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है। रथ यात्रा के माध्यम से यह ‘त्रिदेव’ जब मंदिर की सीमाओं से बाहर निकलते हैं तो भक्तों के लिए यह अवसर होता है प्रभु को निकट से देखने, उनके रथ को खींचने और मोक्ष की दिशा में एक कदम बढ़ाने का। इस रथ यात्रा की परंपरा का उल्लेख स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण और अन्य पुरातन ग्रंथों में मिलता है। मान्यता है कि रथ यात्रा में भाग लेने और विशेषकर रथ खींचने से समस्त पापों का नाश होता है और व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। यह यात्रा मानवीय समर्पण और भक्ति की पराकाष्ठा का जीवंत प्रदर्शन है, जहां हर कोई, चाहे वह राजा हो या आमजन, एक ही पंक्ति में खड़ा होकर भगवान की सेवा करता है।
रथ यात्रा की सबसे अनूठी परंपरा है ‘छेरा’ की रस्म। यह रस्म रथ यात्रा के पहले दिन पुरी के राजा द्वारा निभाई जाती है, जिसमें वे सोने की झाड़ू से तीनों रथों की सफाई करते हैं। इस परंपरा का आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश अत्यंत गहन है। एक राजा, जो स्वयं राज्य का सर्वोच्च होता है, भगवान के समक्ष स्वयं को एक सेवक मानकर झाड़ू लगाता है। यह प्रतीक है भगवान के समक्ष सभी के समान होने का, जहां न कोई ऊंचा है, न कोई नीचा। यह सामाजिक समरसता का वह आदर्श उदाहरण है, जो आज के समाज में अत्यंत आवश्यक है। जब लाखों की भीड़ ‘जय जगन्नाथ’ के उद्घोष के साथ इन रथों को खींचती है, तब वह केवल रथ नहीं खींच रही होती, वह अपनी भक्ति, आस्था, सेवा और आत्मशुद्धि की भावना को आगे बढ़ा रही होती है।
भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के रथों को नंदीघोष, तालध्वज और दर्पदलन कहा जाता है, जिन्हें हर वर्ष नए सिरे से विशेष प्रकार की नीम की लकड़ी से निर्मित किया जाता है। इन रथों का निर्माण विशेष रीति-रिवाज और शास्त्र सम्मत विधियों से होता है, जिसमें सैंकड़ों शिल्पकार और सेवक कई महीनों तक जुटे रहते हैं। हर रथ की अपनी आकृति, रंग, ध्वज और प्रतीक होते हैं, जो देवताओं के स्वरूप और गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रथों की ऊंचाई और आकृति निश्चित नियमों के अनुसार होती है। नंदीघोष रथ की ऊंचाई लगभग 45 फीट होती है और इसमें 16 चक्के होते हैं। तालध्वज रथ में 14 चक्के होते हैं और इसकी ऊंचाई लगभग 44 फीट होती है। दर्पदलन रथ सबसे छोटा होता है, जिसमें 12 चक्के होते हैं और यह लगभग 43 फीट ऊंचा होता है। यात्रा के दौरान तीनों रथों को श्रीमंदिर से गुंडिचा मंदिर तक खींचा जाता है और वहां सात दिनों तक भगवान विश्राम करते हैं। यह यात्रा किसी साधारण जुलूस की तरह नहीं होती बल्कि यह हजारों वर्षों से चली आ रही ऐसी आध्यात्मिक परंपरा है, जिसे केवल आंखों से नहीं, आत्मा से अनुभव किया जाता है।
रथ यात्रा से जुड़े कई पौराणिक प्रसंग भी हैं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध स्कंद पुराण में वर्णित कथा है। इसके अनुसार, एक दिन भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा ने द्वारका शहर घूमने की इच्छा प्रकट की। तब श्रीकृष्ण और बलराम उन्हें रथ पर बैठाकर नगर दर्शन कराने ले गए। यही प्रसंग पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा के रूप में जीवंत होता है, जहां भगवान अपनी बहन को साथ लेकर नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। इस यात्रा के हर पड़ाव पर धार्मिक रस्में होती हैं, जैसे कि हेरा पंचमी, जब देवी लक्ष्मी क्रोधित होकर भगवान के देर से लौटने पर मंदिर के बाहर प्रतीक्षारत रहती हैं। इसके बाद बहुड़ा यात्रा होती है, जब भगवान जगन्नाथ गुंडिचा मंदिर से वापस अपने मुख्य मंदिर आते हैं। वापसी के बाद 5 जुलाई को उनका भव्य स्वागत किया जाएगा और सुनाबेसा रस्म के अंतर्गत उन्हें स्वर्णाभूषणों से सजाया जाएगा।
जगन्नाथ रथ यात्रा की लोकप्रियता केवल भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, जापान जैसे कई देशों में इस यात्रा का आयोजन किया जाता है, विशेष रूप से इस्कॉन संस्था द्वारा। इस यात्रा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की आध्यात्मिक शक्ति और सांस्कृतिक प्रभाव को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पुरी में हर साल लाखों की संख्या में विदेशी श्रद्धालु आते हैं, जो इस भव्य आयोजन में भाग लेकर भारतीय संस्कृति की गहराई को अनुभव करते हैं। यह भारत की सॉफ्ट पावर का एक जीवंत उदाहरण है, जहां धर्म, संस्कृति और पर्यटन एक साथ राष्ट्र के वैश्विक प्रभाव को मजबूत करते हैं।
आज के डिजिटल युग में रथ यात्रा की पहुंच और भी व्यापक हो गई है। विभिन्न टीवी चैनलों, यूट्यूब, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और सरकारी पोर्टल्स पर इस यात्रा का सीधा प्रसारण किया जाता है, जिससे देश और विदेश के करोड़ों लोग इसे अपने घर बैठे अनुभव कर सकते हैं। ओडिशा सरकार और भारत सरकार इस अवसर पर व्यापक व्यवस्थाएं करती हैं, जिसमें सुरक्षा, चिकित्सा, जल आपूर्ति, यातायात नियंत्रण और आपदा प्रबंधन तक की तैयारियां शामिल होती हैं। हजारों पुलिसकर्मी, डॉक्टर, वॉलंटियर्स और सेवक इस आयोजन को निर्बाध रूप से संपन्न कराने में दिन-रात लगे रहते हैं। यह आयोजन जहां एक ओर आस्था का प्रतीक है, वहीं यह प्रशासनिक समन्वय और जन-सहभागिता का भी उत्कृष्ट उदाहरण है।
रथ यात्रा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है इसकी सामाजिक और आर्थिक भूमिका। इस यात्रा के दौरान लाखों श्रद्धालु पुरी पहुंचते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी जबरदस्त बल मिलता है। होटल, लॉज, रेस्तरां, हस्तशिल्प, पारंपरिक परिधान और लोक कला से जुड़े व्यवसाय इस अवसर पर खूब फलते-फूलते हैं। पुरी का ‘पटकमाल’ (महाप्रसाद), स्थानीय शिल्पकारों द्वारा बनाए गए रथ मॉडल्स, पारंपरिक भजन और कीर्तन की प्रस्तुतियां भी इस यात्रा को एक सांस्कृतिक महोत्सव में बदल देती हैं। यह केवल धर्म का उत्सव नहीं, लोकजीवन का उत्सव बन जाता है। कुल मिलाकर, कहा जा सकता है कि जगन्नाथ रथ यात्रा न केवल एक धार्मिक उत्सव है बल्कि भारतीय संस्कृति, समर्पण, समानता और सामाजिक एकता की ऐसी गाथा है, जो पीढ़ियों से चली आ रही है और आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यह हमें सिखाती है कि जब हम समर्पण के भाव से आगे बढ़ते हैं तो स्वयं ईश्वर हमारे रथ में सवार होकर हमें मार्ग दिखाने आते हैं।
जय जगन्नाथ!
(लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)
टिप्पणियाँ