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आतंकवाद से लड़ना भारत से सीखे दुनिया ­-राम माधव

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्यकरिणी के सदस्य राम माधव ने आतंकवाद के विभिन्न पहलुओं, उससे लड़ने और अंकुश लगाने के बारे में पूरी बारीकी से जानकारी दी।

हितेश शंकर by हितेश शंकर
Dec 6, 2022, 09:30 am IST
in भारत, संघ, साक्षात्कार
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हितेश शंकर
Editor at Panchjanya

हितेश शंकर पत्रकारिता का जाना-पहचाना नाम, वर्तमान में पाञ्चजन्य के सम्पादक

  • हितेश शंकर
    https://panchjanya.com/author/hitesh-shankar/
    Jan 26, 2023, 10:07 pm IST
    प्रश्न मुफ्त की रेवड़ी नहीं, उसे दे पाने का है - निर्मला सीतारामन
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https://panchjanya.com/wp-content/uploads/speaker/post-259338.mp3?cb=1670308658.mp3

पाञ्चजन्य के मुंबई संकल्प कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्यकरिणी के सदस्य राम माधव ने आतंकवाद के विभिन्न पहलुओं, उससे लड़ने और अंकुश लगाने के बारे में पूरी बारीकी से जानकारी दी। भारत कैसे आतंक से लड़ रहा है, कैसे विजय हासिल हो रही है, कैसे षड्यंत्र थे? अंतरराष्ट्रीय युतियां कैसे उसे पुष्ट कर रही हैं और कहां-कहां प्रहार करने की आवश्यकता है, यह उन्होंने रेखांकित किया। प्रस्तुत है पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर से उनकी बातचीत के अंश

चौदह साल पहले यह जगह होटल ताज आतंकियों के कब्जे में था। हर आघात में अडिग रहने वाले इस भारतीय लोकतंत्र के लिए इस जगह से हमारा संदेश क्या है? हम जानना चाहेंगे राममाधव जी के मन में क्या है?
दुनिया में अगर एक देश आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार हुआ है, तो वह हमारा देश भारत है। हम दशकों तक इसकी त्रासदी झेलते रहे। हमारी सेना, पुलिस के अनेक लोग बलिदान हुए। बहुत बड़ी संख्या में नागरिक बलिदान हुए। जनरल वैद्य को पुणे में मार दिया गया और यहां मुंबई में सैकड़ों निर्दोष मारे गए। तो, आतंक का सबसे बड़ा शिकार भारत रहा है। पर यह कहते हुए मैं एक पंक्ति और जोड़ना चाहूंगा। भारत केवल आतंक का शिकार होने वाला देश मात्र नहीं है, भारत आतंक से लड़ने, परास्त करने की क्षमता रखने वाला देश भी है।

आज हमारे पास इसका पूरा ज्ञान है कि आतंक होता क्या है, इसके कितने आयाम हैं, कितने प्लेयर होते हैं, कौन-कौन-सी गतिविधि आतंक को प्रोत्साहन देती है, आतंक में लिप्त होती है। इस ज्ञान के आधार पर हमने आतंक को परास्त करने में बड़ी सफलता पाई। 2008 की घटना बड़ी घटना थी, पर वह आखिरी नहीं थी। उसके बाद भी 4-5 साल तक आतंकी घटनाएं होती रहीं। हमारे त्योहार, हमारे बाजार, हमारे स्कूल, हमारी ट्रेनें सुरक्षित नहीं थीं।

पर पिछले आठ साल में कश्मीर को छोड़, बाकी पूरे देश ने आतंक को एक इंच भी जमीन नहीं देने के लिए संकल्प से काम किया। यह इसलिए संभव हुआ कि हमने आतंक को, केवल आतंकवादी की दृष्टि से नहीं, इसके पीछे की व्यापक मशीनरी, आतंकवादी तंत्र और उस तंत्र से कैसे निपटना है, यह जाना है। इसे आज दुनिया हमसे सीखती है, सीखना चाहिए। कानून में इससे कैसे लड़ना है, हमारे पास उसका भी ज्ञान है। इसलिए हम जब इस प्रकार का कार्यक्रम करते हैं तो दुनिया को यह बताने के लिए कि न केवल हम शिकार हैं बल्कि आतंकवाद विरोध के विशेषज्ञ भी हैं।

यह बात हमें दुनिया को बतानी है क्योंकि आतंक की छाया आज भी दुनिया पर मंडरा रही है। आतंकी स्रोत आज भी यथावत हैं। परंतु लगता है कि संकल्प कमजोर हो रहा है। आतंकवाद के विरुद्ध 2002 में अमेरिका का संकल्प बड़ा हो गया था। 2022 में वह संकल्प उतना ही बड़ा है क्या? थोड़ा प्रश्न चिह्न लगता है? एफएटीएफ की प्रतिबंधित सूची से जिस प्रकार पाकिस्तान को हटा दिया, उससे लगता है संकल्प कहीं कमजोर हो रहा है। ‘मेरा आतंक-तेरा आतंक’ फिर से वापस आ रहा है। इन प्रश्नों पर गंभीरता से सोचना चाहिए।

 

हम बाकी चीजें बदल सकते हैं मगर पास-पड़ोस नहीं बदल सकते। हमारे दो पड़ोसी हैं, वे असहज हैं हमें लेकर, विशेष तौर से अपनी आंतरिक चुनौतियों को लेकर। और बड़ी बात यह है कि भारत से किसी ना किसी चीज में उनकी कुढ़न है, जलन है या प्रतिस्पर्धा है। आपकी तो पूरी पुस्तक है इस पर… इस स्थिति कोकैसे देखते हैं?
भारत में आतंक का एकमात्र स्रोत हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान है। और पाकिस्तान में केवल अंध-भारत विरोध के कारण आतंकवादी तंत्र को बढ़ावा दिया गया है। एक समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने एक बयान दिया था – पॉलिसी आॅफ थाउजैंड कट्स। भारत के शरीर पर हजारों घाव करो। खून बहते-बहते भारत कमजोर हो जाएगा। इस नीति के चलते आतंकी तंत्र को पाकिस्तान ने बढ़ावा दिया है और यह पाकिस्तान की सरकारी नीति है। यह अलग बात है कि आतंकवाद के भस्मासुर का हाथ फिर पाकिस्तान को भी झेलना पड़ा। पर उसके लिए वह हमारी सहानुभूति की उम्मीद न रखे। उसने निर्माण किया, तो वहां उसे झेलना भी पड़ेगा। उसने हमारे यहां जो किया, वह इतना नृशंस था कि हम अभी तक उसका दुष्परिणाम झेलते रहे हैं। मैं अभी तक इसलिए कह रहा हूं कि बाकी देश आज मुक्त हैं। इस आतंक से हमारी पुलिस, हमारी राज्य व्यवस्थाएं बहुत अच्छी हुई, इसमें विशेषज्ञता आई है।

हमारी खुफिया एजेंसी आज विशेषज्ञता पाई हुई है। इसलिए आज देश में आतंकवादी हमला करना आसान नहीं है क्योंकि हम आज आतंकवादियों को पाकिस्तान के अंदर घुस के भी मार रहे हैं। तो एक समय था जब हम भारत में आतंकवादी से डरते थे, आज आतंकवादी हमसे पाकिस्तान में बैठकर भी डर रहे हैं। यह विशेषज्ञता हमने हासिल की है। पर आज भी कश्मीर जैसे राज्यों में ये घुस पा रहे हैं। किसी ना किसी रूप में आ रहे हैं। आकर हमारी सेना, हमारी पुलिस की बलि ले रहे हैं। तो, आज भी ये तंत्र चालू है। पाकिस्तान जब तक अपनी नीति से पूर्ण रूप से बाहर नहीं आएगा, यह चलता रहेगा। आज भी वे प्रमुख आतंकी नेता खुले घूम रहे हैं। पाकिस्तान में आज भी कार्रवाही नहीं होती है। दुनिया पूछती है तो कहते हैं कि हमारे पास है ही नहीं। थोड़ी पड़ताल शुरू होती है काबुल भेज देते हैं। तो पाकिस्तान की यह नीति भारत के लिए हमेशा सतर्करहने का ही एक आवाहन देती है।

श्री राममाधव से बात करते पाञ्चजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर

मगर उनका अपना जो तानाबाना है, वो देश मल्टी आर्गन फेल्योर की तरफ जा रहा है। एक तरफ सेना है, एक राजनीतिक व्यवस्था है, कारोबारी या वित्तीय व्यवस्था है। तीनों को आप कैसे देखते हैं और पाकिस्तान मल्टी आर्गन फेल्योर के कितना करीब दिखाई देता है?
ये सच है कि पाकिस्तान में स्थितियां ठीक नहीं हैं। पर यह हमारी सहानुभूति का विषय नहीं बनना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान का जो तानाबाना है, नेटवर्क है, उसके केंद्र बिंदु में सेना रहती है। आज भी है। इस समय जो सेनाध्यक्ष बना है लेफ्टिनेंट जनरल आसिम, यह वही है जो भारत पर जितने आक्रमण हुए, बालाकोट हो, उड़ी हो, जो आतंकवादी घटना हुई, उस पूरे गुट का यही इंचार्ज था।

सैन्य प्रतिष्ठान जो पाकिस्तान को जलाता है, वो प्रतिष्ठान आज भी जस का तस है, उनके इरादे जस के तस हैं। इसीलिए भले ही पाकिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता देखकर हमें लगता हो कि अब पाकिस्तान खुद भी फंस रहा है, पर सहानुभूति दिखाने की गलती नहीं करनी है। वह फंसे या न फंसे, जब तक उसकी सेना के इरादे ठीक नहीं होंगे, तब तक यह झंझट रहेगा। हां, एक आशा जरूर रख सकता हूं। यही स्थिति बांग्लादेश में थी।

वहां 1975 से 1992 तक सेना का ही शासन रहा पर लोग खड़े हो गए। सेना को 1992 में बहुत प्रचंड जनविरोध का सामना करना पड़ा। फिर 1993 के बाद आज तक वहां सेना बैरक तक सीमित है। पाकिस्तान में ऐसे दिन आएंगे क्या, ये अभी कह नहीं सकते, इतना जरूर दिखता है कि लोग खड़े हो रहे हैं। पर उसकी आखिरी तार्किक परिणति, जिसकी हम अपेक्षा करते हैं कि सेना बैरकों में सीमित रहे, यह होगा क्या? पता नहीं।

 

आपने एक संकेत जरूर दिया कि सेना बैरक में लौट सकती है। तंत्र टूट सकता है और आतंकवाद के बुरे दिन और पाकिस्तान के अच्छे दिन भी आ सकते हैं।
एक समय पाकिस्तान में लोकतंत्र ठीक ढंग से चल रहा था। सत्तर के दशक के आखिर में जब भुट्टो को जेल में डाला गया और जिया उल हक का सैन्य शासन आया, उसके बाद पाकिस्तान का जो पतन प्रारंभ हुआ, वह आज तक जारी है। तब से सेना पाकिस्तान के राज्यतंत्र पर कब्जा नहीं छोड़ रही है। छोड़ सकती है क्या, यह पाकिस्तानियों को सोचना है। हम तो उनको शुभकामना ही दे सकते हैं कि पाकिस्तान को लोकतांत्रिक बनाओ।

 

आपने पड़ोसियों के संदर्भ में बड़ी गंभीर बात कही कि अगर लोक और तंत्र की बात करें तो एक जगह लोक पर तंत्र हावी है, सेना का तंत्र है जिसके पास एक देश है। दूसरा पड़ोस है जहां एक राजनीतिक दल के पास एक सेना है, देश है। वहां की स्थिति को भारत के संदर्भ में आप कैसे देखते हैं?
मैं मजाक में कहता हूं कि पाकिस्तान चीन का तीसरा हांगकांग है। हांगकांग और मकाऊ के बाद तीसरा, पाकिस्तान है। बीजिंग से नियंत्रित किया जाता है तो बीजिंग के समर्थन के बगैर पाकिस्तान की चर्चा कोई पूर्ण नहीं होगी। मैंने प्रारंभ में कहा कि एफएटीएफ के प्रतिबंध से अभी अगस्त में पाकिस्तान बाहर आया। इस निर्णय के दो महीने पहले अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने रिपोर्ट में कहा कि पाकिस्तान में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है।

पाकिस्तान आतंकवाद को रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहा। इसके दो महीने बाद पाकिस्तान को प्रतिबंध से मुक्ति मिल गई। क्योंकि एफएटीएफ में पाकिस्तान का आका चीन बैठा है। तो भारत के सभी विरोधियों को प्रोत्साहन देने का ये चीन का रवैया बहुत ही घातक विषय है। इस पर भी हमारा ध्यान रहना चाहिए। चीन की एक नीति है कि भारत को नियंत्रित करने के लिए एक तो रणनीतिक घेराबंदी करो। दूसरा, एंगेज भी करो। भारत में उनके मित्र बहुत हैं। तीसरा, जितने भारत के शत्रु हैं, सबसे दोस्ती करो। पाकिस्तान से दोस्ती करने से चीन को क्या फायदा होता है, कोई बता नहीं सकता। वह चीन पर बोझ है। ना आर्थिक व्यवस्था है, न शांति है, क्यों मित्रता करनी है? इसलिए क्योंकि उसका उपयोग करके भारत को तंग करते रहो। ये जो चीन की नीति है, इसके कारण भी पाकिस्तान आज वे गतिविधियां कर पा रहा है।

 

एक वैश्विक आयाम इससे जुड़ता है। एक बहस चलती है इस्लामी आतंकवाद की। चीन अपने यहां उईगर के साथ कैसा व्यवहार करता है, वो बात अलग है। मगर वैश्विक मंचों पर इस्लामोफोबिया की बात एक काउंटर नैरेटिव के तौर पर खड़ी की जाती है, जिससे कभी इस मुद्दे पर बात कायदे से हो ही न। संयुक्त राष्ट्र में 15 मार्च को इस्लामोफोबिया विरोधी दिवस मनाने का भी तय किया। क्या ये स्थितियां बदलेंगी? हम अपने पड़ोस में एक कट्टरता को कोसने वाला, दूसरा कट्टर राजनीतिक तंत्र देखते हैं। दोनों का गठबंधन चल रहा है?
वास्तव में इस्लामोफोबिया एक मिथ्यावाद है, कोई इस्लामोफोबिया नहीं है। अगर ऐसी कोई चीज है तो उसके लिए पूरा जिम्मेदार पाकिस्तान जैसा देश है जिसने इस्लाम के नाम पर आतंक को बढ़ावा दिया। भारत में 18 करोड़ मुसलमान शांति से जी रहे हैं। कहाँ इस्लामोफोबिया है? यहाँ तो सभी व्यवस्थाओं में बैठे हैं। दुनिया में सब जगह इस्लामोफोबिया, आतंकियों द्वारा स्वयं को पीड़ित बताने का प्रयास है। वैसे तो आज दुनिया में समस्या हिन्दूफोबिया की है।

आज हिंदू के नाम पर दुष्प्रचार, हिंदुओं पर हमले वास्तव में बड़ी समस्या बन गई है। शांति से जी रहा हिंदू आज घृणा, हमले का शिकार हो रहा है। अपने आतंक जैसे घिनौने काम से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए कुछ तथाकथित मुस्लिम बुद्धिजीवी इस्लामोफोबिया का भ्रम फैलाते हैं। वास्तव में इस्लाम के अंदर आज बहुत बड़ी बहस यह चल रही है कि इस्लामोफोबिया नहीं है। इंडोनेशिया का सबसे बड़ा मुस्लिम संगठन, नौ करोड़ सदस्यों वाली संस्था नदवतुल उलेमा ने अपने एक वक्तव्य में कहा, कोई इस्लामोफोबिया कहीं नहीं है। अगर है तो मुसलमान ही जिम्मेदार हैं। तो यह अपनी गलत गतिविधियों को छुपाने, उस पर पर्दा डालने के लिए एक प्रयास है।

 

दो स्थितियां हैं। एक तो आतंकी नेटवर्क पुनर्संगठित हो रहे हैं और दूसरा दुनिया में वह विश्व व्यवस्था बदल रही है, खासतौर से कोविड के बाद में नई मित्रताएं हो रही हैं। उस तरह से पालेबंदी हो रही है। दोनों स्थितियों को आप आतंकवाद के खास परिपेक्ष्य में कैसे देखते हैं?
मैंने प्रारंभ में वह विषय उठाया था कि क्या आतंक से लड़ने का विश्व का संकल्प आज भी बरकरार है? आतंकवाद किसी आतंकी द्वारा हथियार उठा कर किसी को मारने तक सीमित नहीं है। आतंकवादी देश में कैसे घुसा, हथियार कैसे आया, फंडिंग कौन कर रहा है, चिकित्सा का पक्ष है, कानून का पक्ष है, अदालतें आतंकवादी और अपराधी में कैसे फर्क करती हैं, पुलिस के प्रति नजरिए का पक्ष है, एनजीओ हैं, मानवाधिकार हैं। ये मजबूत न हों तो आतंकवाद से लड़ने की व्यवस्था की क्षमता कम हो जाती है। इसलिए आतंक को कभी हमको केवल आतंकवादी के संदर्भ में नहीं देखना चाहिए। बाकी सभी व्यवस्थाओं को भी हमें इसके बारे में संवेदनशील बनाना है।

आज आतंक का सबसे बड़ा स्रोत है नारकोटिक्स और मनी लॉन्ड्रिंग। आज भी पाकिस्तान मनीलॉन्ड्रिंग के मामले में बड़ा खिलाड़ी है और उसके रास्ते सबको मालूम हैं। फिर भी आज पाकिस्तान बच जा रहा है। यह स्थिति सवाल उठाती है कि हमारा संकल्प कमजोर तो नहीं हो रहा है। इसलिए भारत जैसे देशों को ये संकल्प तब तक रखना है जब तक हम पूर्ण रूप से आतंक से मुक्त नहीं होते।

एक बात मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा। आज इस्लामिक जगत में बहुत जागरण है। आज आतंक से लड़ाई में हमारे साथ खाड़ी सहयोग परिषद के कई देश खड़े हैं। वे इसे एक मजहब की दृष्टि से नहीं देख रहे हैं। वे भी समझते हैं इस्लाम और आतंक को अलग करना है। और इस्लाम के नाम पर जो आतंक हो रहा है, उसको खत्म करना है। उनके सहयोग से ही हम पाकिस्तान जैसे देशों की गतिविधि पर नियंत्रण ला पा रहे हैं। वहीं यह भी देखना है कि कहीं चीन या अमेरिका जैसे देश कमजोर तो नहीं पड़ रहे हैं क्योंकि वे इससे पीड़ित नहीं हैं।

आतंक की छाया आज भी दुनिया पर मंडरा रही है। आतंकी स्रोत आज भी यथावत हैं। परंतु लगता है कि संकल्प कमजोर हो रहा है। आतंकवाद के विरुद्ध 2002 में अमेरिका का संकल्प बड़ा हो गया था। 2022 में वह संकल्प उतना ही बड़ा है क्या? थोड़ा प्रश्न चिह्न लगता है? एफएटीएफ की प्रतिबंधित सूची से जिस प्रकार पाकिस्तान को हटा लिया, उससे लगता है संकल्प कहीं कमजोर हो रहा है। मेरा आतंक-तेरा आतंक फिर से वापस आ रहा है

आपकी पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर मामलों पर पैनी नजर रही है। वहां अभी स्थितियां कैसी हैं और पूरी तरह से सामान्य होने में में आपको कोई अड़चन दिखती है या कितना समय लगने वाला है?
हमारे देश के लिए जम्मू-कश्मीर आतंक की दृष्टि से अत्यंत समस्याग्रस्त क्षेत्र रहा है। जैसा मैंने कहा, हमारे सिस्टम में जागरूकता है कि आतंक का सामना करना केवल आतंकवादियों को मार गिराने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। हम इसकी समझ होने से पिछले आठ साल में कश्मीर में बहुत बड़ा परिवर्तन लाए। पहले कश्मीर में जब आतंकी घटना होती थी तो पुलिस और सेना पर पीछे से एक-दो हजार लोग पथराव करते थे। पता चला, पथराव के लिए भुगतान होता है। हमने तय किया कि भुगतान देने वाला स्रोत को बंद करो। फिर व्हाट्सऐप संदेश से भीड़ एकत्र होती है।

ये संदेश का स्रोत बंद किया। फिर व्यवस्था में कुछ लोग सूचनाएं लीक करते हैं। उस स्रोत को बंद किया। फिर वित्तीय रास्ते बंद किए। उस प्रक्रिया में आज कश्मीर में बड़े-बड़े व्यवसायियों को जेल में डाला हुआ है। क्योंकि वे आतंक का ओवरग्राउंड फेस हैं। इस ओवरग्राउंड सहयोग ढांचे को खत्म करना पड़ेगा। उसमें जो दृढ़ता हमने विशेषकर पिछले चार साल में दिखाई है, उसका परिणाम था। पहले एक आतंकवादी तीन-चार साल तक सक्रिय रहता था। आज कश्मीर में आतंकवादी का जीवन दो महीने का है। हमने इंटेलिजेंस व्यवस्था को पक्का किया। जम्म-कश्मीर पुलिस के बलिदान का इसमें जो योगदान है, उसको कम नहीं आंकना चाहिए। आतंकवाद के साथ आतंकवाद के सभी आयामों के साथ जीरो टॉलरेंस रखना पड़ता है। जीरो टॉलरेंस पर काम करते समय समाज के साथ हमें संवेदना रख कर चलना होगा।

पूर्वोत्तर की समस्या को कम करने के हमने कई प्रयास किए थे। एक बहुत बड़ा प्रयास पिछले पांच छह सालों में जो हुआ, वो राजनैतिक था। आज पूर्वोत्तर के आठ में से सात राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। नागालैंड जैसे राज्य में भाजपा नंबर दो पार्टी है। पूर्वोत्तर में यह जो राजनीतिक परिवर्तन आया, उसके कारण भी वहां शांति हुई है। हम पूर्वोत्तर में बात भी कर रहे हैं। नगा ग्रुप से हमारी बातचीत चल रही है और बोडो समूह से चर्चा करके आज शांति है, लोकतंत्र है। वहां तो दोनों प्रकार के अलग-अलग अनुभव को हमने अलग-अलग ढंग से अच्छी तरह निबटाया। इसलिए मैं एक बार फिर कहता हूं कि आतंक को कैसे निबटाना है, यह दुनिया को हमसे सीखना चाहिए। हम केवल शिकार नहीं है, हम आतंकवाद विरोधी लड़ाई के विशेषज्ञ हैं।

Topics: देश मल्टी आर्गन फेल्योरदेश में आतंकवादी हमलाआंतरिक चुनौतिखुफिया एजेंसीइस्लामी आतंकवादइस्लामिक जगतलोक और तंत्रपाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टोराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघखुफिया एजेंसी आज विशेषज्ञताआतंक की छाया आज भी दुनिया पर मंडरा रही
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