रायपुर में 142 साल पुराने एक होटल में गोमाता को भोग लगाए बिना शुरू नहीं होती बिक्री।
एक रुपये से होती है बोहनी। दिनभर बच्चियों और गरीबों को बांटी जाती है सेव-बूंदी
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की व्यस्ततम जगहों में से एक है रामसागर पारा मुहल्ला। इस मुहल्ले की पहचान रायपुर ही नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ सहित आधे ओडिशा में भी है। यह किराना मंडी के नाम से प्रसिद्ध है। इसी मुहल्ले में एक 142 साल पुराना होटल है, जहां गोमाता को भोग लगाने के बाद ही ग्राहकों को भोजन परोसा जाता है। यही नहीं, यहां बोहनी के नाम पर केवल एक रुपया लिया जाता है, वह भी किसी बच्चे या गरीब से। साथ ही, इस होटल में बेटियों को दिनभर मुफ्त में सेव-बूंदी दी जाती है।
रामसागर पारा मुहल्ले में अगर किसी जगह सुबह 10 बजे से लेकर रात 9 बजे तक भीड़ दिखे, वहां गायें और स्कूली बच्चे भी नजर आए तो समझ लें कि वह रायपुर का प्रसिद्ध रामजी हलवाई का होटल है। हालांकि होटल का न तो कोई बोर्ड है और न ही कहीं नाम लिखा है। फिर भी शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो, जो इस होटल के बारे में न जानता हो। हर कोई यह जानता है बालूशाही वाले रामजी हलवाई की दुकान रामसागर पारा में है, जो देखने से ही पुरानी लगती है।
तड़क-भड़क से दूर पुराने जमाने के बने दरवाजे और अलमारियां इस दुकान की पहचान हैं। यदि आप नए हैं तो आपको यह समझ में नहीं आएगा कि यहां मालिक कौन है और कर्मचारी कौन है? एक व्यक्ति सामान तौलते, फिर पैसे लेते और बचे हुए पैसे लौटाते हुए दिखेगा। चार-पांच लोग इस तरह काम करते दिख जाएंगे। वहीं मालिक कभी गल्ले पर तो कभी होटल के सामने कुर्सी पर बैठे दिख जाते हैं।
रामजी लाल अग्रवाल 1880 में राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के एक गांव से रोजी-रोजगार की तलाश में रायपुर आए थे। उस समय वे नमकीन और मीठे व्यंजन बनाकर टोकरी में रख घूम-घूम कर शहर में बेचते थे। उनके व्यंजनों को शहर में पसंद किया जाने लगा। धीरे-धीरे काम बढ़ता गया। उनके बाद बेटे पूनमचंद और दुर्गा प्रसाद ने काम संभाला। फिर उनके बाद उनकी अगली पीढ़ी छगनलाल और उनके बाद विनोद और अब उनके पुत्र सूरज। इस तरह, पांच पीढ़ियों से यह परिवार इसी काम में जुटा है। वैसे तो लड्डू, बालूशाही, गुलाब जामुन, नारियल की बर्फी, बूंदी और अलग-अलग तरह के सेव-गाठिया आदि मिठाइयां और नमकीन यहां की पहचान हैं। लेकिन बालूशाही का कोई मुकाबला नहीं है। कीमत भी इतनी कि इससे सस्ती बाजार में दूसरी कोई मिठाई नहीं मिलेगी। आज भी यहां मीठी और कुरकुरी बालूशाही पांच रुपये में (एक नग) मिलती है।
विनोद अग्रवाल कहते हैं कि उनके दादा-परदादा ने जो व्यवस्था शुरू की थी, आज भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। उनके पूर्वजों ने करीब 40-42 साल तक सिर पर टोकरी रखकर मीठा-नमकीन बेचे। फिर उन्होंने 80 साल पहले यह होटल खोला। तब से न तो होटल का रंग-रूप बदला है और न ही यहां बनने वाले मीठे-नमकीन की गुणवत्ता में कोई बदलाव आया है। कच्चे माल को दो घंटे से अधिक देर तक नहीं रखा जाता।
होटल के संचालक विनोद अग्रवाल कहते हैं कि बालूशाही बनाने के लिए मैदा, घी, दही और शक्कर के साथ जलेबी में प्रयुक्त होने वाले रंग का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए कच्चा माल हाथ से तैयार किया जाता है।
हालांकि होटल में बिक्री सुबह 10 बजे से शुरू हो जाती है, लेकिन भट्ठी पर मीठा और नमकीन बनाने और दुकान सजाने का काम बहुत पहले शुरू हो जाता है। इस रास्ते से गुजरने पर खुशबू से ही आप दुकान को पहचान जाएंगे, किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भीड़ इतनी होती है कि भट्ठी पर चढ़ी कड़ाही कभी खाली नहीं रहती। खास बात यह कि सबसे पहले अग्निदेव को भोग लगाया जाता है। इसके बाद गो माता और बच्चियां मौजूद हों तो उन्हें भी भोग दिया जाता है। गायों और बच्चियों की संख्या कितनी ही क्यों न हों, भोग सभी को दिया जाता है। यह क्रम दिनभर चलता रहता है। इसके अलावा, भिखारियों को भी मुफ्त में नमकीन-मीठा खिलाया जाता है।
आज के दौर में जहां बड़े-बड़े कारोबारी, व्यापारी बड़ी रकम से बोहनी करने की इच्छा रखते हैं, वहीं इस होटल में सबसे कम पैसे देने वाले का इंतजार किया जाता है। यही कारण है कि आज भी इस होटल में पहले ग्राहक से केवल एक रुपया लिया जाता है। वह पहला ग्राहक अक्सर कोई बच्चा या कोई गरीब होता है।
बेटियों और गायों को पहले भोग लगाने या बेटियों को दिनभर मुफ्त भोग देने, भिखारियों को दान करने या 1 रुपए से बोहनी करने के बारे में पूछने पर होटल के संचालक विनोद अग्रवाल कहते हैं कि यह व्यवस्था दादा-परदादा के जमाने से चली आ रही है। यह सब हमारे लिए अगले जन्म के लिए एफडीआर की तरह हैं। हमारे पूर्वजों ने करीब 40-42 साल तक सिर पर टोकरी रखकर मीठा-नमकीन बेचे। फिर उन्होंने 80 साल पहले यह होटल खोला। तब से न तो इस होटल का रंग-रूप बदला है और न ही यहां बनने वाले मीठे-नमकीन की गुणवत्ता में कोई बदलाव आया है।
विनोद अग्रवाल के बेटे सूरज कहते हैं कि थोक मंडी में होने के कारण हमें बखूबी मालूम है कि उच्च कोटि का सामान कहां मिलता है। हम इससे समझौता नहीं करते। अपनी देखरेख में ही अनाज, नमक और मसाले तैयार कराते हैं ताकि ग्राहकों को बढ़िया स्वाद मिले। बालूशाही के लिए तैयार कच्चे माल को दो घंटे से अधिक देर तक नहीं रखा जाता।
होटल का बोर्ड या नाम नहीं लिखा होने पर वे कहते हैं कि हमारे पारिवारिक विरासत को किसी पहचान की जरूरत नहीं है।
हमारी ग्राहक इतने हैं कि हमें कभी प्रचार करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। विनोद के दो बेटे सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। अच्छे-खासे वेतन पैकेज पर दोनों बेटों को अमेरिका में नौकरी भी मिल गई थी, लेकिन उन्होंने उन्हें जाने नहीं दिया। उनका कहना था कि पुश्तैनी कारोबार को कौन संभालेगा! अब दोनों दुकान संभालते हैं। उनका तीसरा बेटा भी अपने इसी कारोबार में हाथ बंटा रहा है। इस तरह, इस पुश्तैनी कारोबार से विनोद, उनके भाई और बेटे यानी पांचवीं पीढ़ी दादा-परदादा की विरासत को आगे बढ़ा रही है। सबके काम और काम के घंटे बंटे हुए हैं।
टिप्पणियाँ