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वनवासी गौरव बिरसा मुंडा

ईसाई शिक्षकों व पादरी द्वारा वनवासी संस्कृति का उपहास होते देख उन्होंने पादरियों और उनके धर्म का अपमान कर दिया, जिस वजह से उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। वे महान् धर्मनायक भी थे और प्रभावी समाज-सुधारक भी।

by पूनम नेगी
Nov 15, 2022, 03:05 pm IST
in भारत, संस्कृति
भगवान बिरसा मुंडा

भगवान बिरसा मुंडा

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भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर कई ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया। बिरसा मुंडा माँ भारती के एक ऐसे ही वनवासी सपूत थे। जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वनवासी समाज की दिशा व दशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। उन्होंने न केवल वनवासियों के अधिकारों के लिए जंगल व जमीन की निर्णायक लड़ाई लड़ी बल्कि आजादी की लड़ाई में भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वे महान् धर्मनायक भी थे और प्रभावी समाज-सुधारक भी। झारखंड के एक वनवासी परिवार में 15 नवम्बर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा को झारखंड ही नहीं वरन बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के वनवासी बहुल क्षेत्रों में ‘भगवान’ की तरह पूजा जाता है। आज इस अप्रतिम वनवासी के महानायक की 147 वीं जयंती है; जिनकी स्मृति में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने वर्ष 2000 में झारखंड को बिहार से अलग कर पृथक राज्य  घोषित किया था और गत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिरसा मुंडा की जयंती पर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा की थी।

गौरतलब हो कि अंग्रेजों की घुसपैठ से पहले देश की वन्य सम्पदा पर जल, जंगल और जमीन के सहारे खुली हवा में जीवन जीने वाले आदिवासियों का राज था; लेकिन अंग्रेजी शासन में आदिवासियों की स्वतंत्रता, स्वायत्ता और सुरक्षा पर ग्रहण लग गया। अंग्रेजों ने जब आदिवासियों से उनके जल, जंगल, जमीन को छीनने की कोशिश की तो वनवासी भाषा में ‘उलगुलान’ यानी आंदोलन हुआ।   बिरसा से पहले हुए वनवासी विद्रोह जमीन बचाने के लिए हुए थे लेकिन बिरसा का उलगुलान (आन्दोलन) तीन लक्ष्यों पर केन्द्रित था। पहला जल-जंगल व जमीन की रक्षा, दूसरा नारी की सुरक्षा व सम्मान और तीसरा भारतीय धर्म व संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा। खेद का विषय है कि मात्र 25 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में वनवासी समाज के हितों के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में राष्ट्रीय फलक पर एक चमकते हुए सितारे के रूप में उभरे बिरसा के योगदान को आजाद भारत की कांग्रेस सरकार व वामपंथी इतिहासकारों ने वह महत्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे।

वर्ष 1875 में रांची जिले के उलिहतु गाँव में 15 नवम्बर को सुगना मुंडा और करमी हटू के पुत्र के रूप में जन्मे बिरसा मुंडा बचपन से ही अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के बालक थे। बृहस्पतिवार को जन्म होने के कारण माँ-बाप ने बिरसा नाम दिया। यह वह दौर था जब अपनी विस्तारवादी नीतियों के चलते ब्रिटिश हुकूमत भारत में अपनी जड़ें जमा रही थी और ईसाई मिशनरियां भारत में लोभ, लालच व प्रलोभन के बल पर बड़े पैमाने पर धर्मानान्तरण के सुनियोजित षड्यंत्र में पुरजोर तरीके से जुटी हुई थीं। इन मिशनरियों के झांसे में आकर बड़े पैमाने पर आदिवासियों के साथ बिरसा के परिवार के चाचा, ताऊ आदि कई लोग ईसाई धर्म अपना चुके थे। उधर जब गाँव की प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक ने बिरसा की बौद्धिक प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके पिता को उन्हें चाईबासा के जर्मन मिशन मिडिल स्कूल में पढ़ाने की सलाह दी तो वे पुत्र के बेहतर भविष्य के लिए चाईबासा चले आये। चूंकि उस मिडिल स्कूल में पढ़ने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था; अतः बिरसा व उनके पिता को ईसाई धर्म अपनाने  को बाध्य होना पड़ा। बिरसा में पिता सुगना जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी भी बन गये। धर्मान्तरण के बाद बिरसा का नाम डेविड रख दिया गया। उस जर्मन मिशन स्कूल में 1886 से 1890 तक चार साल तक पढ़ाई के दौरान ईसाई धर्म व ईसाई मिशनरियां की मंशा व षड्यंत्रों को मेधावी बिरसा ने बेहद करीब से देखा और समझा। स्कूल में ईसाई शिक्षकों व पादरी द्वारा वनवासी संस्कृति का उपहास होते देख एक दिन अचानक बिरसा के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने भी पादरियों का अपमान कर दिया। फलतः स्कूल से निकाल दिया गया।

संयोगवश उसी दौरान उनकी भेंट बंदगांव के एक हिन्दू वैष्णव संत स्वामी आनन्द पांडा से हुई। उनके व्यक्तित्व व उपदेशों का बिरसा के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और जर्मन मिशन की सदस्यता त्यागकर बिरसा ने एक साल तक (वर्ष1891) उनके सानिध्य में रहकर रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि हिन्दू धर्मग्रंथों का अध्ययन-मनन व अनुशीलन किया और वे मांसाहार त्याग यज्ञोपवीत धारण कर हिन्दू धर्म में दीक्षित हो गये। इसके बाद भारतीय दर्शन और संस्कृति के रहस्यों को जानने की गहरी रुचि के चलते बिरसा सत्य की खोज के लिए महात्मा बुद्ध की तरह एकांत स्थान पर कठोर साधना में जुट गये। लगभग चार साल एकांतवास के बाद वर्ष 1894 जब बिरसा अपनों के बीच पुनः प्रकट हुए तो एक हिन्दू महात्मा की तरह पीला वस्त्र, लकड़ी की खडाऊं और यज्ञोपवीत धारण किये हुए।

उसी दौरान छोटा नागपुर क्षेत्र में सूखे के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैल गयी थी। उस आपदकाल में बिरसा ने पूरे मनोयोग से पीड़ितों की सेवा की। कहते हैं कि 1895 में छोटा नागपुर क्षेत्र में कुछ ऐसी अलौकिक घटनाएं घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे और उनमें यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। धीरे-धीरे एक महात्मा और सुधारक के रूप में बिरसा मुंडा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।

उन्होंने गौ-हत्या का विरोध किया और अपने शिष्यों को नित्य तुलसी की पूजा करने की प्रेरणा दी। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे। अब तक बिरसा को बोध हो चुका था कि अंधविश्वासों के मकड़जाल में फंसा वनवासी समाज आस्था के मामले में पूरी तरह भटका हुआ है। इसीलिए कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाता है और कभी कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेता है। उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले वनवासी बंधुओं को समझाया कि ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ धर्म परंपराओं से विमुख होते जा रहे हैं। उन्होंने उनको हिंसा, मांसाहार एवं मादक पदार्थों से दूर रहने के लाभ बताये। नतीजतन उनके विचारों से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में वनवासी अपने मूल धर्म में वापस लौट उनके अनुयायी बन गये।

तदुपरांत बिरसा ने वनवासी समाज को ब्रिटिश शासकों व उनके चाटुकार जमींदारों-जागीरदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए तीन स्तरों पर संगठित किया। पहला सामाजिक स्तर पर ताकि वे अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट सकें। इसके लिए उन्होंने उनको स्वच्छता का संस्कार सिखाया, शिक्षा का महत्व बताया तथा आपसी सहयोग व सहकार की अहमियत समझायी। दूसरे; आर्थिक स्तर पर सुधार के तहत वनवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त करने के लिए बिरसा ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रुक गया। अपने मूल पैतृक अधिकारों को बहाल करने की मांग के साथ वनवासियों ने जब बिरसा के नेतृत्व में अदालत में याचिका दायर की तो शासक वर्ग बुरी तरह घबरा गया।  चूंकि सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलग गयी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी।

झारखण्ड जिला गजेटियर के अभिलेख बताते हैं कि बिरसा के तेजी से बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज प्रशासन, जमींदार, जागीरदार और मिशनरी सभी बुरी तरह चिंतित हो उठे थे। अतः सुनियोजित संघर्ष के तहत रांची के अंग्रेज कप्तान मेयर्स ने 24 अगस्त 1895 को बिरसा मुंडा को रात में सोते समय बेहोशी की दवा का रुमाल मुंह में ठूस रातोरात उन्हें उठवाकर उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाकर दो वर्ष के सश्रम कारावास के तहत हजारीबाग के केन्द्रीय कारागार में डाल दिया गया। इस घटना से बिरसा के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और बढ़ गयी और उन्होंने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।

जेल से छूट कर बिरसा अपनी लक्ष्य सिद्धि में प्राणप्रण से जुट गये। गुप्त सभाएं कर बिरसा ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए हजारों वनवासियों को पुनः संगठित कर उनको शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज करने के निर्देश देकर अन्याय के विरुद्ध महायुद्ध का शंखनाद कर दिया। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोल अंग्रेज सिपाहियों के छक्के छुड़ा दिए। वे अभी संभले भी नहीं थे कि 1898 में तांगा नदी के किनारे वनवासियों से भिड़ंत में अंग्रेज सेना पुनः हार गयी। इन हमलों से घबराकर अंग्रेजों ने हजारीबाग और कलकत्ता से बड़ी सेना बुलवानी पड़ी।

24 दिसम्बर 1899 को हुई लड़ाई में; जिसमें एक ओर अंग्रेजों के पास बंदूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे, जबकि दूसरी ओर वनवासी क्रांतिकारियों के पास तीर-कमान आदि हथियार, बिरसा और उनके अनुनायियों ने जान की बाजी लगाकर युद्ध लड़ा जिसमें बिरसा के लगभग चार सौ साथी मारे गये। इसके बाद जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर जब बिरसा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे; अंग्रेजी सेना ने अचानक धावा बोल दिया। उस हमले में बहुत सी स्त्रियां और बच्चे भी मारे गये थे और बिरसा के कई अनुयायियों की गिरफ्तारी भी हुई। अंततः 500/- रुपये के सरकारी ईनाम के लालच में जीराकेल गांवों के कुछ विश्वासघातियों के कारण बिरसा 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तारी कर लिये गये। जंजीरों में जकड़कर उन्हें रांची जेल में डाल दिया गया। वहां लम्बे समय तक हंसते-हंसते कठोर यातनाएं सहते हुए यह महान वीर रणबाँकुरा 9 जून 1900 को सदा सदा के लिए इस संसार से विदा हो गया।

जानकारों की मानें तो जेल के भोजन में संभवतः उन्हें मीठा जहर दिया गया था जबकि प्रचारित यह किया गया कि उनकी मृत्यु हैजा हो जाने से हुई। धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले ऐसे महान राष्ट्रनायक को उनकी जयंती पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि…।

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